गुरुवार, 25 जुलाई 2013

लौज का रोमांस

लोगों ने प्राइवेट हॉस्टल के नाम को ओवरहॉलिंग करते-करते लॉज बना दिया। जो छोटे बड़े हर शहर के गली मुहल्ले में मिल जाएंगे। जहां रेगिस्तान की छाती पर हराभरा सुनहरा जंगल बसाने की ख्वाहिस लिए लाखों बच्चे रहते हैं।  

शुरू-शुरू में ये किसी सज़ा से कम नहीं होता। लेकिन मजबूरी इसे मजा में बदल देती है। शुरू होता है ज़िंदगी का एक नया ड्रामा। उस ड्रामे में सबकुछ है। इमोशन है। प्यार है। एक्शन भी और सबसे ज्यादा भविष्य के गर्भ में छुपा ज़िंदगी का सस्पेंस भी। जहां कई कठोर निर्णय खुद लेने पड़ते हैं। जहां हर कदम फिसलनदार ज़मीन पर रखना पड़ता है। खुद को खुद से संभालना पड़ता है।

धीरे-धीरे बच्चे इस लॉज को अपना सबकुछ बना लेते हैं। 12 बाइ 10 के रूम की तुलना मुकेश अंबानी की एंटिलिया से होने लगती हैं। एक ही कमरे में पूरा फ्लैट। एक तरफ मां सरस्वती का फोटो तो दूसरी ओर बलखातीइतरातीमुस्कुराती अर्धनग्नावस्था में किसी हिरोइन का पोस्टर। जो आशिकिया मिज़ाज को पुख्ता करता है। रूम पार्टनर पारिवारिक सदस्य हो जाता है। जिससे कभी रोटी की दोस्ती तो कभी भात का बैर। जो भी होबीमार पड़ने पर दवा तो वही लाकर देता है।

इस सब के बावजूद एक बात ख़ास होती है। वो ये कि यहां हर कोई एक दूसरे को निकृष्ट जीव समझता है। हर कोई एक दूसरे से आगे बढ़ना चाहता है। एक ऐसी सोच जनती है जहां खुद को क्रेजी साबित करने की होड़ लगी रहती है। फ्लर्ट करने की हसरत लिए सच्ची झूठी कहानी गढ़ी जाती है।

यहां के रहन-सहन में कोई बंधे बंधाये नियम नहीं होते। कोई कसाव नहीं होता। हर काम में स्वच्छंदता रहती है। एक बिखरी हुई सी अनियमितता रहती है। जहां हर दिन एक रूटीन चार्ट बनता है। शाम होते-होते उसमें परिवर्तन होना शुरू हो जाता हैअगले दिन रुटीन खत्म और अगले सप्ताह फिर से नया चार्ट बनकर तैयार हो जाता है।

मीडिल क्लास फैमिली के बच्चे यहां आकर मनी मैनेजमेंट में पक्के हो जाते हैं। दो हज़ार रुपये में पूरा महीना मैनेज करने की कला कोई इनसे सीखें। मेस चलाना है। ट्यूशन फी देनी है। कॉपी और किताब भी खरीदनी है। और फिल्म का खर्चा भी निकालना है। पैसा जोड़-जोड़ इकट्टा करके फिल्म देखने का उत्साहइंसा अल्लाह। रिलिजिंग डेट पर फिल्म देखने का मजा यहां के बच्चों से ज्यादा भला कौन जान सकता है। जेब में पैसा रहे ना रहेरूतबा तो मुमताज के शाहजहां वाला चाहिए ही। तभी लड़की भी पटेगी।

लॉज में दिन की शुरुआत बड़े ही मजेदार तरीके से होती है। आंख मलते हुए ट्वायलेट जाना। नंबर लगाना पड़ता है। क़िस्मत अच्छी रही तो जल्दीवरना कभी-कभी फिर से एक नींद सोकर उठ जाइयेतब नंबर आयेगा। तभी तो स्वयंभू स्मार्ट लड़के आठ बजे के बाद ही सोकर उठने की चालाकी करते हैं। लेकिन स्नान करने के समय तो यहां पूरा समाजवाद दिखता है। सिक्स पैक बॉडी की तमन्ना रखने वाले तमान बच्चे जब एक साथ नहाने के लिए जमा होते हैं तो देखते ही बनाता है।

गैस ने हॉस्टल में नई क्रांति ला दी। स्टोव की सनसनाहट बंद हो गयी। हांकुकर की सिटी जरूर आवाज लगाती है। एक ही साथ कई कमरे से आवाज निकलती है। एक ही बार में बीडीसी बनकर तैयार। बीडीसीयानी भातदालचोखा की छात्रप्रियता में आज भी कोई कमी नहीं आई है। ये आज भी छात्रों का फेवरेट है। फटाफट एक ही साथ बनकर तैयार। मन किया तो छौंका लगा दियानहीं तो थाली भरकर भातउसके उपर आलू का चोखा और बाटी में दाल। खाते समय किसी फाइव स्टार होटल से कम स्वादिष्ट नहीं लगता। यहां के खाने में एक और ख़ासियत होता है कि यहां कुछ भी ज्यादा नहीं बनता। जो भी बनता हैसबका उदरभाजन हो जाता है।



खैरजो भी हो इस सब के बावजूद यहीं बुना जाता है जिंदगी का तानाबानासपनों में लगते हैं पंख। कोई इंजीनियरिंग की परीक्षा पास करता है। कोई मेडिकल की परीक्षा पास करता है। यहीं कोई मैनेजमेंट की तैयारी का फैसला करता है, कोई सीए का तो कोई जेनरल कंपिटिशन में क़िस्मत आजमाने के लिए घुस जाते हैं। 

मंगलवार, 4 जून 2013

आडवाणी का दर्द-ए-कुर्सी और पार्टी का बंटाधार

भारतीय जनता पार्टी 2014 में सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने का सपना देख रही है। सत्ताधारी कांग्रेस ने उसको खुलकर मौका भी दिया है। भ्रष्टाचार, महंगाई, विदेश नीति सरीखे ऐसे मुद्दे हैं, जिसपर कांग्रेस बैकफुट पर है। बीजेपी अगर चाहे  तो इन्हीं मुद्दों के जरिए वो कांग्रेस को पटखनी देकर दिल्ली में सरकार बना सकती है।

बीजेपी को दिल्ली में सरकार बनाने का इससे बेहतर मौका शायद ही कभी मिले। लेकिन आपसी खींचतान की वजह से ये असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर लग रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह है पीएम इन वेटिंग को लेकर आपसी कलह। पार्टी का एक बड़ा खेमा है जो खुले तौर पर नरेन्द्र मोदी का नाम ले रहा है। जबकि दूसरा खेमा लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है। मोदी को समर्थन करनेवालों की तदाद अधिक है, लिहाजा वे खुलकर उनका नाम ले रहे हैं। वे मोदी में पार्टी और देश दोनों का भविष्य देख रहे हैं। लेकिन लालकृष्ण आडवाणी खुद को पीएम इन वेटिंग की रेस से अलग नहीं होना चाहते। यही वजह है कि पार्टी के भीष्ण पितामह का दर्द-ए-दिल रह रहकर बयां हो जाता है।   

पीएम इन वेटिंग को लेकर कई खेमे में बंटी बीजेपी के भीतर जारी किचकिच एक बार फिर उजागर हुई है। लालकृष्ण आडवाणी के बयान ने एक बार फिर बीजेपी के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है। आडवाणी ने पहले मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की तारीफ में कसीदे गढ़े। उसके बाद नितिन गडकरी को चुनाव प्रचार समिति का हेड बनाने का शिगुफा छोड़ दिया। आडवाणी के दोनों बयानों में अपरोक्ष रूप से निशाने पर नरेन्द्र मोदी थी। वही नरेन्द्र मोदी जो जो कभी आडवाणी के सारथी हुआ करते थे। लेकिन कुर्सी के मोह में फंसे आडवाणी को मोदी से ही खतरा लगने लगा है।  

राजनीति के घाघ खिलाड़ी आडवाणी खुलकर मोदी का विरोध भी नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन पार्टी में मोदी का बढ़ता कद उन्हें बर्दाश्त भी नहीं है। दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर गोलियां दाग रहे हैं। कभी सुषमा स्वराज, कभी शिवराज सिंह चौहान तो कभी नितिन गडकरी को आगे रखकर अपने दिल की भड़ास निकाल रहे हैं। लेकिन उन्हें ये अहसास नहीं है कि उनकी चलाई गोली से विरोधी नहीं उनकी अपनी बनाई पार्टी ही घायल हो रही है।

लालकृष्ण आडवाणी ये मानने को तैयार नहीं हैं कि सक्रीय राजनीति में उनका समय अब खत्म हो चुका है। राजनीति में उन्होंने जो पौध लगाए थे, वे अब पेड़ बन चुके हैं। उन्हें अब आराम करने की जरूरत है। सक्रीय राजनीति को छोड़कर अगर वो अपने अनुभव से पार्टी के मेंटर के रूप में काम करेंगे तो उनका भी सम्मान होगा और पार्टी भी आगे बढ़ेगा। लेकिन आडवाणी सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। यही वजह है कि रह रहकर उनकी महत्वाकांक्षा बाहर निकल जाती है।


इसमें कोई दो राय नहीं कि लालकृष्ण आडवाणी भारतीय राजनीति के पुरोधा हैं। भारतीय राजनीति के वो एक ऐसे शख्सियत हैं जिन्होंने एक पार्टी को शून्य से लेकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया। लेकिन महान वही होता है, जो त्याग करता है। जो अंतिम क्षण तक दुश्मनों से भी सीखता है। आडवाणी को सत्ता का त्याग सोनिया गांधी से सीखना चाहिए। वह भी उस स्थिति में जब उनका उत्तराधिकारी कोई और नहीं बल्कि उन्हीं का चेला बना बन रहा हो। 

रविवार, 2 जून 2013

वे कैसा हीरो हैं ?

सब चुप हैं। बिल्कुल चुप। मानो जुबान को लकवा मार दिया हो। एक भी शब्द मुंह से नहीं निकल रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे उन्होंने कुछ देखा या सुना ही नहीं। पद और पैसे की लालच में अंधे और बहरे हो गए हैं। बहुत दिनों से टीवी पर भी नहीं दिखे। पैसे लेकर मुफ्त में भाषण देनेवाले पता नहीं कहां चले गए हैं। शायद, सबकुछ देखकर, सुनकर और समझकर अज्ञातवास में चले गए हैं। शांति की खोज में। पता नहीं।

उनको क्रिकेट से और फिर क्रिकेट को उनसे पहचान मिली। कम से कम भारत में तो वे जरूर वो स्तम्भ माने जाते रहे हैं, जहां से क्रिकेट को नई दशा और दिशा मिली। जिनकी वजह से लोगों का क्रिकेट से लगाव बढ़ा। फिरंगियों के खेल में उन्हीं को मात देने का जज्बा उन्हीं से सीखा सबने। तो फिर जब क्रिकेट कंलकित हो रहा है, अब वे अपना जज्ब क्यों नहीं दिखा रहे हैं।

हिन्दुस्तान में क्रिकेट के दीवाने उन्हें अपना हीरो मानते हैं। उन्हें सम्मान करते हैं। उनकी बातों पर गौर करते हैं। उनसे सुनकर और उन्हें पढ़कर सीखते हैं। उन्हें देखने के लिए, उन्हें सुनने के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।

ये सबकुछ है, क्रिकेट की वजह से। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि जिस क्रिकेट ने उन्हें नाम दिया। पहचान दी। शोहरत और दौलत दिया। आज जब वही क्रिकेट भ्रष्टाचार के दलदल में फंसा है। उस क्रिकेट का बीच चौराहे पर चीरहरण हो रहा है। तो वे कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हैं। क्रिकेट के दीवाने टकटकी लगाए बैठे हैं उनकी ओर कि कब वे कुछ बोले। कुछ ऐसी बात कहें, जिसका सीधा असर हो। कुछ ऐसा करें जिससे क्रिकेट से लोगों का भरोसा न टूटे। क्रिकेट को कलंकित करनेवालों को सजा दिलाने के लिए मुहिम छेड़ें। लेकिन वे हैं जो चुप्पी साध बैठे हैं। बस, इसलिए कि उन्हें कॉमेन्ट्री का कंट्रैक्ट उन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों की वजह से मिलता है।


आप ही बताइए न तो फिर वे बड़े-बड़े खिलाड़ी कैसे महान हो सकते हैं। कैसे मान लूं मैं उन्हें अपना हीरो। कैसे चलूं मैं उनके नक्शे कदम पर। क्यों टीवी पर सुनूं मैं उनकी बकवास। जो हीरो होता है, वो बोलता है। सच और झूठ के समाने डटकर खड़ा होता है। वो चंद पैसों की लालच में अज्ञातवास में नहीं चला जाता ।   

रविवार, 19 मई 2013

क्रिकेट में फिक्सिंग का ‘A’ कनेक्शन


  क्रिकेट में स्पॉट फिक्सिंग के आरोप में जिन तीन क्रिकेटरों को गिरफ्तार किया गया है, उसमें सबसे ज्यादा चर्चा श्रीसंत की हो रही है। स्वभाविक है, श्रीसंत वर्ल्डकप विजेता टीम के हिस्सा रह चुके हैं। श्रीसंत टेस्ट खिलाड़ी रह चुके हैं। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में श्रीसंत का कद इतना तो जरूर है, जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस सबसे अलग मेरी नजर बाकी दो क्रिकेटरों पर है। जिनके नाम अंकित चव्हाण और अजीत चंदीला है। ये अलग बात है कि इन दोनों की क्रिकेट में कोई खास पहचान नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लोग इन्हें नहीं जानते हैं। लेकिन एक बात है जो फिक्सिंग की दुनिया में इन्हें खास बनाती है। वो है इनके नाम।

दरअसल दोनों के नाम की शुरुआत अक्षर से होता है। और स्पॉट फिक्सिंग में भारतीय खिलाड़ियों की लिहाज से अक्षर विशेष महत्व रखता है। क्योंकि इन तीनों के अलावा जिस क्रिकेटर पर आईपीएल में फिक्सिंग का शक है, उसका नाम भी अक्षर से ही शुरू होता है। (आजिंक्य रहाणे)

इसके अलावा पुलिस ने अमित सिंह नाम के शख्स को गिरफ्तार किया है, जो कभी गुजरात की रणजी टीम का हिस्सा था। आईपीएल खेल चुका है। लेकिन बेहतर क्रिकेटर नहीं बन पाया तो सट्टेबाज और क्रिकेटर का दलाल बन गया।

इसे इत्तेफाक कहिए या कुछ और। लेकिन उसका नाम भी अक्षर से ही शुरू होता है।

स्पॉट फिक्सिंग, भारतीय क्रिकेट और अक्षर का बेजोड़ समीकरण है। क्योंकि इससे पहले भी दावत, दौलत, औरत और शोहरत के चक्कर में जेंटलमैन खेल को शर्मसार करने का आरोप जिन दिग्गजों पर लगा उनके नाम भी  अक्षर से ही शुरू होता है।

टीम इंडिया के सबसे बेहतरीन कप्तान अहजरूद्दीन का कैरियर इसी फिक्सिंग की बजह से बर्बाद हुआ। अजहर पर दक्षिण अफ्रिका के खिलाफ मैच फिक्सिंग का आरोप लगा। उन्हें टीम से निलंबित कर दिया गया। क्रिकेट खेलने पर ताउम्र प्रतिबंध लग गया। हालांकि बाद में ये प्रतिबंध हटा। लेकिन जब तक वो खुद को बेकसूर साबित करते, तब तक उनका कैरियर खत्म हो चुका था।

कमोबेश ऐसा ही आरोप अपने जमाने के सबसे बेहतर बल्लेबाज अजय जडेजा पर लगा था। अजय का क्रिकेट जब पूरे फॉर्म में था, तभी उनपर भी फिक्सिंग का दाग लगा। जडेजा का कैरियर भी खत्म हो गया।

दोनों दिग्गजों के नाम की शुरूआत अक्षर से ही होता है।

जिस दौर में अहजरूद्दीन और अजय जडेजा पर फिक्सिंग का आरोप लगा था, उस समय एक और खिलाड़ी था, जो फिक्सिंग के फांस में फंसा था। उसका भी नाम अक्षर से शुरू होता है। नाम है अजय शर्मा। चूकि अजय शर्मा का कद अजहर और जडेजा के बराबर नहीं था, लिहाजा उनके नाम की जर्चा ज्यादा नहीं हुई।

क्रिकेट की कलंक कथा का सबसे काला अध्याय है फिक्सिंग। एक ऐसा पाप जिसने जेंटलमैन खेल को शर्मसार कर दिया। इसमें अक्षर के क्रिकेटरों का पूरा योग्दान है। मेरा नाम भी अक्षर से ही शुरू होता है। लेकिन राहत की बात ये है कि मैं क्रिकेटर नहीं क्रिकेट प्रशंसक हूं। 

बुधवार, 15 मई 2013

मैं जेल जा रहा हूं !



मैं आप सबसे दूर जा रहा हूं। बहुत दूर। जहां न तो मेरी बीवी का बेइंतहा प्यार साथ होगा। न ही मेरे बच्चों का हंसता-खिलखिलाता दुलार होगा। ना ही मेरी बहनें मेरे साथ होगी और ना ही बुलंदी की असमीति ऊंचाई पर पहुंचानेवाले आप लोग होंगे। मैं उस जगह पर जा रहा हूं जहां सिर्फ मैं और मेरी तन्हाई होगी। अकेलापन होगा। यादें होंगी।

हर भूल का प्रायश्चित होता है। मैं भी प्रायश्चित करने जा रहा हूं, उस गलती का, जो नादानी में, अनजाने में मुझसे हो गया था। मैं उसी गुनाह की सजा भुगतने जा रहा हूं। मैं जेल जा रहा हूं। जहां आपके प्यार के भरोसे मुझे साढे तीन बरस बिताने हैं।

जेल में जिंदगी के साढे तीन बरस कम नहीं होते। बहुत कुछ बदल जाते है। इस दौरान बहुत कुछ सहना पड़ता है। अहसास है मुझे कि कैसे जेल में दिन बिताने पड़ते हैं। कैसे जिल्लतभरी जिंदगी जी जाती है वहां पर। पूरे डेढ़ साल रह चुका हूं मैं उस काल कोठरी में। जहां आजादी का कतराभर रौशनी नसीब नहीं होती। जहां पर बेबसी और लाचरगी ठहाके लगाती रहती है। और लोग बेचारे की तरह सबकुछ देखते रहते हैं।

इस बार पूरे साढे तीन बरस तक मैं सबसे दूर रहूंगा। मैं अपने परिवार को आपके भरोसे छोड़कर जा रहा हूं। मेरी बीवी, मेरे बच्चे आप ही के आसरे हैं। उम्मीद है, जरूर ख्याल रखेंगे आपलोग।
साढ़े तीन बरस कम नहीं होते उस औरत के लिए जिसका पति उससे इतना दूर हो कि चाहकर भी वो मिल न सके। जिसके साथ अपना दुख दर्द नहीं बांट सके। जिसने जिंदगी भर साथ निभाने का वादा करके उसे अपने घर लाया और अब उसके होठों पर सिसकियां और आंखों में आंसू छोड़कर खुद जेल चला गया।

जिंदगी के साढे तीन बरस कम नहीं होते उन नादान बच्चों के लिए जिन्हें अपने पिता का प्यार नहीं मिला। मेरे बच्चों को जिस उम्र में मेरे साथ की सबसे ज्यादा जरूरत थी, उसी वक्त मैं उससे दूर जा रहा हूं। जब मैं लौटकर आऊंगा तब तक मेरे बच्चे बड़े हो जाएंगे। वे स्कूल जा रहे होंगे। हो सकता है कि जब मैं अपना दाग धोने के बाद आजाद होकर दोबारा उनसे मिलूंगा तो वे मुझे पहचान भी ना पाएं। मेरे लिए कितना दर्दनाक होगा वो पल, जब मेरे बच्चे मुझे नहीं पहचान पाएंगे। सोच सोचकर मरा जा रहा हूं। मैं समझ रहा हूं। सिर्फ कानून का ही गुनहगार नहीं, अपने परिवार का भी गुनहनगार हूं मैं।

गुनहगार हूं मैं उनलोगों का जिनकी फिल्मों में मैं काम कर रहा हूं। मेरी वजह से कई फिल्में अधूरी रह गई। कई लोग बेरोजगार हो गए। कइयों की जिंदगीभर की कमाई दांव पर लगी है। अदालत से सजा मिलने के बाद जितना हो सका, मैंने किया। लेकिन जो नहीं हो सका उसके लिए मैं क्षमा मांगता हूं। मुझे उम्मीद है कि मेरी लाचरगी को आप जरूर समझेंगे।

मुझे यकीन है कानून पर। भरोसा है देश के संविधान पर । मैं इज्जत करता हूं इस देश का, जहां की मिट्टी में पलकर मैं बड़ा हुआ हूं। जहां के लोगों ने मुझे सिर आखों पर बिठाकर रखा। मैं इस देश की सबसे बड़ी अदालत के आदेश का सम्मान करने जा रहा हूं।

जब मैं लौटकर आऊंगा, तब तक बहुत कुछ बदल चुका रहेगा। मुझको लेकर लोगों का नज़रिया बदल जाएगा। लोगों की सोच बदल जाएगी। मुझको लेकर लोगों में सहानुभूति होगी। अपनापन होगा। और ज्यादा प्यार होगा। लेकिन नहीं होगा, तो बीचे के ये साढ़े तीन बरस। 

गुरुवार, 7 मार्च 2013

आत्मविश्वास से ही जीत है!


गिरकर संभलना कोई उससे सीखे। अपने बिखरे हुए विश्वास को समेटना कोई उससे सीखे। हारकर जीतना कोई उससे सीखे। आलोचनाओं से सीखना कोई उससे सीखे। वक्त से लड़ना कोई उससे सीखे। वक्त बदला। हालात बदले। जो कल तक उसको पानी पी-पी कर कोस रहे थे। आज फिर वे उसकी तारीफों में कसीदे गढ़ रहे हैं।

महेन्द्र सिंह धोनी। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान। महेन्द्र सिंह धोनी के लिए पिछले डेढ़ बरस बेहद खराब रहा। जो शख्स आसमान में बुलंदियों की ऊंचाई से ऊपर उड़ रहा था, वो अचानक धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। देश को क्रिकेट में दो-दो विश्वकप दिलानेवाले कप्तान पर सवाल खड़े होने लगे। धोनी के फैसले पर। खेल पर। बॉडी लैंग्वेज पर। विश्वास पर। व्यवहार पर। हर स्तर पर धोनी की आलोचना होने लगी। मौका परस्त साथी भी साजिश रचने लगे। लेकिन धोनी ने हार नहीं मानी।  

विश्वकप जीतने के बाद जिस इंग्लैंड की टीम ने धोनी के आत्मविश्वास को तोड़ दिया था। उसी अंग्रेजों के खिलाफ धोनी ने नई शुरूआत की। वन डे में न सिर्फ खुद अच्छी पारियां खेली, बल्कि साथियों का भी आत्म विश्वास बढ़ाया।

फिर आई कंगारूओं की बारी। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ चेन्नई में। चेपॉक स्टेडियम में टीम इंडिया के 4 विकेट आउट हो चुके थे। सचिन,सहवाग, मुरली, पुजारा ड्रेसिंग रूम लौट चुके थे। तब धोनी ने न सिर्फ खुद धुआंधार पारी खेली, बल्कि साथी खिड़ालियों का भी हॉसला बढ़ाया। धोनी ने बिखरी हुई टीम को समेटा। उन्होंने खुद एक ही दिन में 203 रन ठोक दिए। धोनी को कोहली, अश्विन, भुवनेश्वर जैसे युवाओं का साथ मिला। और धोनी के दिन लौट आए। चेन्नई के बाद हैदराबाद में धोनी के धुरंधरों ने फिर ऑस्ट्रेलिया को पानी पिला दिया। पारी और 135 रनों से करारी हार। पुजारा का दोहरा शतक। मुरली विजय का शतक। जडेजा और अश्विन की शानदार गेंदाबाजी।

अब फिर मैदान में वही हो रहा है, जो डेढ़ बरस पहले होता था। धोनी का हर फैसला सही होने लगा। बॉडीलैंग्वेज पर अब सवाल नहीं होते। आलोचकों को धोनी का आत्मविश्वास और व्यवहार अच्छे लगने लगे हैं। कप्तानी छोड़ने की सलाह देनेवाले सुनील गावस्कर फिर उन्हें 2019 तक कप्तान बनाए रखने की वकालत कर रहे हैं। टीवी स्टूडियों में बैठकर धोनी को कोसनेवाले स्वयंभू महान क्रिकेटर को अब जवाब नहीं सूझ रहा।


  

सोमवार, 4 मार्च 2013

लाचारी को कौन सुधारेगा?


बेचारा डीएसपी। लाचार। बेबस। निसहाय। सरकारी भीड़ का शिकार हो गया। मंत्री के गुर्गों ने उसे मार डाला। खाकी और खादी की टक्कर में खादी फिर भाड़ी पड़ी। खादी में छुपे गुंडों ने खाकीवाले की हत्या कर दी। वो चीखता रहा। चिल्लाता रहा। सरेआम। कानून का कत्ल हुआ। लेकिन किसी ने नहीं देखा। गणतंत्र में गनतंत्र से लड़नेवालों को मरते हुए देखने की हिम्मत किसी में नहीं। मौका-ए-वारदात पर वो कोई नहीं था, जिन्हें हिंद पर नाज है।

एक हंसता-खेलता परिवार बिखर गया। एक लड़की महज कुछ महीनों में विधवा हो गई। बूढे मां-बाप का सहारा खत्म हो गया। डीएसपी के अपने अब इंसाफ मांग रहे हैं। लेकिन इंसाफ देगा कौन। सरकार। वही सरकार जिसके मंत्री पर हत्या करवाने का आरोप लगा है। उसी मंत्री पर जिसके सामने किसी की नहीं चलती। वो अपने आप में सरकार है। राजा है। लोग उसे राजा भैया कहते हैं। यूपी के समाजवादियों के भैयाजी यानी अखिलेश यादव के भी भैया।

इंसाफ मांग रही डीएसपी की पत्नी से मिलने के लिए मुख्यमंत्री पहुंचे। सबसे पहले डीसपी की कीमत लगा दी। 25 लाख रूपये। फिर पेंशन दोगुना करने का वादा। और फिर पूरी घटना की सीबीआई से जांच कराकर दोषियों को कड़ी सजा दिलाने का दावा। उसी सीबीआई से जो सांप-सीढी के खेल में उलझी रहती है।

और इस सब के बीच डीएसपी की मौत पर हो रहा है खेल। वही गंदा खेल। जिसे राजनीति कहते हैं। बीएसपी-एसपी-कांग्रेस-बीजेपी। संसद से सड़क तक हंगामा। मौका मिला है। सब के सब पत्ते खेल रहे हैं। कोई कानून व्यवस्था का पत्ता फेक रहा है। तो कोई अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का पत्ता। मायावती डीएसपी की मौत का हिसाब मांग रही हैं। तो मुलायम सिंह यादव उन्हें फ्लैश बैक में ले जाकर आइना दिखा रहे हैं।

वैसे तो देश और समाज की रक्षा करनेवालों की कोई जाति या धर्म नहीं होती। लेकिन राजनीति के बिनानी सिमेंट उन्हें भी इनके बीच में मजबूत दीवार खड़ी कर देता है। कुछ नेता कह रहे हैं कि वो अल्पसंख्यक था इसलिए मारा गया। कुछ कहते हैं कि गरीब था इसलिए मारा गया। कुछ कहते हैं कि मंत्रीजी की जातिगत अदावत थी, इसलिए मरवा दिया।  

खैर, ये राजनीति है। मौकापरस्त हर लाश की लौ पर रोटी सेकने के आदी हो चुके हैं। इसबार भी वही कर रहे हैं। लेकिन बड़ा सवाल है कि चालीस बरस का पढ़ा-लिखा नौजवान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा है। लेकिन लाचार है। बिगड़ी व्यवस्था को तो युवा सुधार सकता है, जो डीएसपी सुधार रहा था। लेकिन लाचारी को कौन सुधारेगा?