मंगलवार, 4 जून 2013

आडवाणी का दर्द-ए-कुर्सी और पार्टी का बंटाधार

भारतीय जनता पार्टी 2014 में सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने का सपना देख रही है। सत्ताधारी कांग्रेस ने उसको खुलकर मौका भी दिया है। भ्रष्टाचार, महंगाई, विदेश नीति सरीखे ऐसे मुद्दे हैं, जिसपर कांग्रेस बैकफुट पर है। बीजेपी अगर चाहे  तो इन्हीं मुद्दों के जरिए वो कांग्रेस को पटखनी देकर दिल्ली में सरकार बना सकती है।

बीजेपी को दिल्ली में सरकार बनाने का इससे बेहतर मौका शायद ही कभी मिले। लेकिन आपसी खींचतान की वजह से ये असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर लग रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह है पीएम इन वेटिंग को लेकर आपसी कलह। पार्टी का एक बड़ा खेमा है जो खुले तौर पर नरेन्द्र मोदी का नाम ले रहा है। जबकि दूसरा खेमा लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है। मोदी को समर्थन करनेवालों की तदाद अधिक है, लिहाजा वे खुलकर उनका नाम ले रहे हैं। वे मोदी में पार्टी और देश दोनों का भविष्य देख रहे हैं। लेकिन लालकृष्ण आडवाणी खुद को पीएम इन वेटिंग की रेस से अलग नहीं होना चाहते। यही वजह है कि पार्टी के भीष्ण पितामह का दर्द-ए-दिल रह रहकर बयां हो जाता है।   

पीएम इन वेटिंग को लेकर कई खेमे में बंटी बीजेपी के भीतर जारी किचकिच एक बार फिर उजागर हुई है। लालकृष्ण आडवाणी के बयान ने एक बार फिर बीजेपी के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है। आडवाणी ने पहले मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की तारीफ में कसीदे गढ़े। उसके बाद नितिन गडकरी को चुनाव प्रचार समिति का हेड बनाने का शिगुफा छोड़ दिया। आडवाणी के दोनों बयानों में अपरोक्ष रूप से निशाने पर नरेन्द्र मोदी थी। वही नरेन्द्र मोदी जो जो कभी आडवाणी के सारथी हुआ करते थे। लेकिन कुर्सी के मोह में फंसे आडवाणी को मोदी से ही खतरा लगने लगा है।  

राजनीति के घाघ खिलाड़ी आडवाणी खुलकर मोदी का विरोध भी नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन पार्टी में मोदी का बढ़ता कद उन्हें बर्दाश्त भी नहीं है। दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर गोलियां दाग रहे हैं। कभी सुषमा स्वराज, कभी शिवराज सिंह चौहान तो कभी नितिन गडकरी को आगे रखकर अपने दिल की भड़ास निकाल रहे हैं। लेकिन उन्हें ये अहसास नहीं है कि उनकी चलाई गोली से विरोधी नहीं उनकी अपनी बनाई पार्टी ही घायल हो रही है।

लालकृष्ण आडवाणी ये मानने को तैयार नहीं हैं कि सक्रीय राजनीति में उनका समय अब खत्म हो चुका है। राजनीति में उन्होंने जो पौध लगाए थे, वे अब पेड़ बन चुके हैं। उन्हें अब आराम करने की जरूरत है। सक्रीय राजनीति को छोड़कर अगर वो अपने अनुभव से पार्टी के मेंटर के रूप में काम करेंगे तो उनका भी सम्मान होगा और पार्टी भी आगे बढ़ेगा। लेकिन आडवाणी सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। यही वजह है कि रह रहकर उनकी महत्वाकांक्षा बाहर निकल जाती है।


इसमें कोई दो राय नहीं कि लालकृष्ण आडवाणी भारतीय राजनीति के पुरोधा हैं। भारतीय राजनीति के वो एक ऐसे शख्सियत हैं जिन्होंने एक पार्टी को शून्य से लेकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया। लेकिन महान वही होता है, जो त्याग करता है। जो अंतिम क्षण तक दुश्मनों से भी सीखता है। आडवाणी को सत्ता का त्याग सोनिया गांधी से सीखना चाहिए। वह भी उस स्थिति में जब उनका उत्तराधिकारी कोई और नहीं बल्कि उन्हीं का चेला बना बन रहा हो। 

रविवार, 2 जून 2013

वे कैसा हीरो हैं ?

सब चुप हैं। बिल्कुल चुप। मानो जुबान को लकवा मार दिया हो। एक भी शब्द मुंह से नहीं निकल रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे उन्होंने कुछ देखा या सुना ही नहीं। पद और पैसे की लालच में अंधे और बहरे हो गए हैं। बहुत दिनों से टीवी पर भी नहीं दिखे। पैसे लेकर मुफ्त में भाषण देनेवाले पता नहीं कहां चले गए हैं। शायद, सबकुछ देखकर, सुनकर और समझकर अज्ञातवास में चले गए हैं। शांति की खोज में। पता नहीं।

उनको क्रिकेट से और फिर क्रिकेट को उनसे पहचान मिली। कम से कम भारत में तो वे जरूर वो स्तम्भ माने जाते रहे हैं, जहां से क्रिकेट को नई दशा और दिशा मिली। जिनकी वजह से लोगों का क्रिकेट से लगाव बढ़ा। फिरंगियों के खेल में उन्हीं को मात देने का जज्बा उन्हीं से सीखा सबने। तो फिर जब क्रिकेट कंलकित हो रहा है, अब वे अपना जज्ब क्यों नहीं दिखा रहे हैं।

हिन्दुस्तान में क्रिकेट के दीवाने उन्हें अपना हीरो मानते हैं। उन्हें सम्मान करते हैं। उनकी बातों पर गौर करते हैं। उनसे सुनकर और उन्हें पढ़कर सीखते हैं। उन्हें देखने के लिए, उन्हें सुनने के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।

ये सबकुछ है, क्रिकेट की वजह से। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि जिस क्रिकेट ने उन्हें नाम दिया। पहचान दी। शोहरत और दौलत दिया। आज जब वही क्रिकेट भ्रष्टाचार के दलदल में फंसा है। उस क्रिकेट का बीच चौराहे पर चीरहरण हो रहा है। तो वे कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हैं। क्रिकेट के दीवाने टकटकी लगाए बैठे हैं उनकी ओर कि कब वे कुछ बोले। कुछ ऐसी बात कहें, जिसका सीधा असर हो। कुछ ऐसा करें जिससे क्रिकेट से लोगों का भरोसा न टूटे। क्रिकेट को कलंकित करनेवालों को सजा दिलाने के लिए मुहिम छेड़ें। लेकिन वे हैं जो चुप्पी साध बैठे हैं। बस, इसलिए कि उन्हें कॉमेन्ट्री का कंट्रैक्ट उन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों की वजह से मिलता है।


आप ही बताइए न तो फिर वे बड़े-बड़े खिलाड़ी कैसे महान हो सकते हैं। कैसे मान लूं मैं उन्हें अपना हीरो। कैसे चलूं मैं उनके नक्शे कदम पर। क्यों टीवी पर सुनूं मैं उनकी बकवास। जो हीरो होता है, वो बोलता है। सच और झूठ के समाने डटकर खड़ा होता है। वो चंद पैसों की लालच में अज्ञातवास में नहीं चला जाता ।