शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

नरसंहार पर चुप्पी क्यों ?

78 लोग कम नहीं होते। नरसंहार हुआ है। बच्चे मरे हैं। महिलाएं मरी हैं। बुजुर्ग मरे हैं। घर जले हैं। ख्वाब खाक हुए हैं। विश्वास का कत्ल हुआ है। अहसास की हत्या हुई है। लेकिन सब चुप हैं। क्या हो गया है हमें। ना दुख है। ना मातम है। ना गुस्सा है। ना खबर है। ना बहस है। ना चर्चा है। ना संवेदना है।

सबको शोक में होना चाहिए था। देशभर में कोहराम मच जाना चाहिए था। आसमान को फट जाना चाहिए था। धरती को धंस जानी चाहिए थी। मीडिया में सिर्फ और सिर्फ यही खबर होनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री को अभी असम में होना चाहिए था। राहुल गांधी को चाहिए था कि वो तरुण गोगोई से लोगों की सुरक्षा का हिसाब मांगते। संसद में बात-बात पर प्रधानमंत्री से जवाब मांगनेवाले सीताराम येचुरी साहब, शरद यादव साहब को चाहिए था कि वो पीड़ितों से जाकर मिलते। उनकी आवाज उठाते। दिल्ली में एक कत्ल पर इंडिया गेट को कैंडल से भर देनेवालों को चाहिए था कि उन 78 लोगों के लिए कुछ कैंडल जला लेते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। 

देश की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मवारी संभालनेवाले गृहमंत्री राजनाथ सिंह को असम जाते-जाते दो दिन लग गए। प्रधानमंत्री ने एक ट्विट कर दिया और भूल गए। 25 दिसंबर को काशी में जाकर झाड़ू लगा आए। लेकिन असम जाने की जेहमत नहीं उठाई। क्या 78 मौत से ज्यादा जरूरी है, काशी की सफाई? क्यों 78 मौत के गम से ज्यादा अहम हो गया वाजपेयी और मालवीय को भारत रत्न देने की खुशी ? क्या वाजपेयी जी का स्वास्थ्य अगर ठीक रहता तो  वो नरसंहारों के दुख के बीच भारत रत्न मिलने की खुशी मना पाते। कतई नहीं। 

लोगों को अच्छे दिनों का सपना दिखाकर सत्ता में पहुंची बीजेपी असम के नरसंहार के गम से दूर झारखंड और जम्मू में जीत का जश्न मना रही है। कश्मीर में सत्ता का समीकरण सुलझा रही है। झारखंड में नया मुख्यमंत्री खोज रही है।

कांग्रेस को भी परवाह नहीं है। असम में उसी की सरकार है। लेकिन राहुल गांधी मौन है। मुख्यमंत्री तरूर गगोई से सवाल करने के बजाय पार्टी के नेताओं से जम्मू-कश्मीर और झारखंड में हार का हिसाब मांग रहे हैं।

चार दिन पहले जंतर-मंतर पर महाधरना देनेवाली महागठबंधन पार्टी के नेताओं का भी कोई अता-पात नहीं है। खुद को शोषितों का झंडाबरदार कहनेवाले वाम दल के नेता भी कहीं नहीं दिख रहे हैं। इन्हें अभी सड़क पर होना चाहि था। सरकार से 78 मौत का हिसाब मांगना चाहिए था । लेकिन ऐसा कुछ नहीं है।  पाकिस्तान में बच्चों की मौत पर शोक मनानेवाले माननीय अपने देश के बच्चों की मौत पर मौन हैं। हद है ये सियासत।

पाकिस्तान में बच्चों की मौत पर छाती पीटनेवाली हिंदुस्तानी मीडिया के लिए भी असम का नरसंहार बड़ी खबर नहीं है। क्यों नहीं हो रहा महाकवरेज। क्यों नहीं चल रही एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग न्यूज। क्यों नहीं बैठता बड़ा-बड़ा पैनल। क्यों नहीं होती बहस। अखबारों में क्यों नहीं छपता विद्वानों का लेख इस पर।

हकीकत ये है कि नेता-मीडिया-कैंडल जलानेवाली स्वयंसेवी संस्था, सभी एक दूसरे के पूरक हैं। ये तीनों एक-दूसरे के लिए काम करते हैं। शायद ही किसी राष्ट्रीय चैनल का कोई रिपोर्टर असम में तैनात है। गैरहिंदी क्षेत्र होना भी एक वजह है। टीवी चैनलों को नरसंहार पर मातम से ज्यादा वाजपेयी की कविता और भाषण में टीआरपी दिखती है। सस्ता और आसान। नेता वही काम करते हैं, जिससे वो टीवी पर दिखें। वाजपेयी पर बाइट देकर, उनके बारे में कुछ खास बात बताकर वो टीवी पर दिख सकते हैं। अखबारों में छप जाते हैं। लिहाजा असम का नरसंहार उनके लिए मायने नहीं रखता। वाजपेयी को भारत रत्न की खुशी और चुनाव के कवरेज में डूबी मीडिया को स्वयंसेवी संस्थाओं का कैंडल मार्च भी दिखाने की फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में वो भी कैंडल मार्च प्रोग्राम कैंसल कर देते हैं। शर्म है!

इसी देश का एक टुकड़ा है असम। हम जैसे लोग वहां भी रहते हैं। उनकी जिंदगी की कीमत उतनी ही है, जितनी हम दिल्ली में बैठे लोगों की। फिर ऐसा दोहरा रवैया क्यों ? सोचना होगा हमें। जरूर और जल्द। क्योंकि नरसंहार पर ये चुप्पी खल रही है। किसी बड़ी त्रासदी को नोत रही है।

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

धर्म-परिवर्तन पर 'धर्मयुद्ध'

 धर्म परिवर्तन पर धर्मयुद्ध छिड़ा हुआ है। धर्म-परिवर्तन की नई-नई परिभाषा गढ़ी जा रही है। अपनी सहुलियत के अनुसार। आार्यावर्त के तमाम विद्वान धर्म और परिवर्तन की विवेचना कर रहे हैं। अर्थ समझा रहे हैं। मायने बता रहे हैं। संविधान का हवाला दे रहे हैं। अनुच्छेदों को छान-छान कर समझा रहे हैं।  टीवी पर चिल्लमपेल है। अखबार पर लंबे-लंबे लेख लिखे जा रहे हैं। मैंने अपनी जिंदगी में पहलीबार पर धर्मपरिवर्तन पर इतनी बड़ी बहस देखी है। पहली बार इतने बड़े-बड़े ज्ञानियों को उगते हुए देख कर अद्भुद लग रहा है। टीकाधारी, दाढ़ीधारी, गमछाधारी, मालाधारियों का मेला लगा है।

संसद में लंबे-लंबे भाषण हो रहे हैं। तर्क और कुतर्कों के मिश्रण से संसद ठप हो रही है। खादी धारियों के तेवर तल्ख हैं। मानों देश में इससे बड़ा मुद्दा कोई है ही नहीं। पहले इसका हल निकालो, फिर आगे किसी बिल पर बहस होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश में आग लग जाएगी।  

इतने सालों में तो कभी आग नहीं लगी। लेकिन इस बार लग जाएगी। सबकुछ खाक हो जाएगा। बहुत चिंतित हैं माननीय। देश के बुद्धिजीवी।  

पता नहीं अब तक ये तमाम धर्म-परिवर्तन मामलों के जानकार कहां छिपे हुए थे। इससे पहले इन्हें धर्म परिवर्तन पर शिक्षा देने की जरूरत महसूस क्यों नहीं हुई। अचानक क्या हो गया कि इन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हो गई। जिसे संसार में छिटने के लिए प्रगट होना पड़ा। लेकिन मन में खोट लिए हुए। आधा-अधूरा। पूर्ण करने की हिम्मत नहीं हो रही। पता नहीं ऐसा क्यों ?

ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तान में पहलीबार किसी शख्स, परिवार का या समूह का धर्म परिवर्तन हुआ है। इससे पहले भी थोक भाव में लोगों ने अपना धर्म बदला है। अगर मुगल काल की बात छोड़ भी दें तो आजाद हिंदुस्तान में लोगों ने अपना धर्म बदला है। एक-दो नहीं बल्कि सैकड़ों, हजारों लाखों की तादाद में। लालच देकर धर्म बदलवाया गया। और हां, जिस वक्त अभी संसद में माननीय हंगामा कर रहे हैं, टीवी पर बैठकर ज्ञानी प्रवचन दे रहे हैं, अखबार में लेख लिखे जा रहे हैं उस वक्त भी देश के अलग-अलग हिस्सों में धर्म बदले जा रहे हैं। लेकिन उससे किसी को मतलब नहीं।

जो मनानीय सीताराम येचुरी साहब धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर संसद को अपने सिर पर उठाए हुए हैं, उनके पश्चिम बंगाल से महज कुछ ही दूरी पर झारखंड के आदिवासियों को ईसाई बनाया जा रहा है। लालच देकर बनाया जा रहा है। प्रलोभन देकर आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है। क्या ये बात येचुरी साहब को नहीं पता है। अगर नहीं पता है कि शर्म की बात है। अगर पता है तो अब तब क्यों चुप थे। शरद यादव प्रधानमंत्री से जवाब चाहते हैं। लेकिन वो बता पाएंगे कि उनके संसदीय क्षेत्र मधेपुरा से सटे भागलपुर में जो हिंदू को इसाई बनाया गया उस पर वो क्यों नहीं बोल रहे हैं। सिर्फ बिहार और झारखंड ही क्यों, उड़ीसा, केरल, यूपी, देश के तमाम हिस्सों में धर्म-परिवर्तन हो रहे हैं। दशकों से होते आ रहे हैं। लेकिन किसी ने इस मुद्दे को न तो संसद में उठाने की जेहमत उठाई और न ही किसी ने टीवी पर इसको लेकर बहस करने की जरूरत समझी।

ये हंगामा हर वक्त क्यों नहीं होता। ये चर्चा हर समय क्यों नहीं होती है। या फिर कभी भी क्यों होती है। जाहिर है, इसमें हंगामा, चर्चा करनेवालों की मंशा छिपी हुई है। अपने फायदे की।

कुछ लोग तर्क देते हैं कि आदिवासियों को इसाई बनाकर उनके भविष्य को संवारा जा रहा है। क्या, बेहतर जिंदगी देने का वादा करना ,प्रलोभन नहीं है क्या ? अगर नहीं है तो हर किसी के लिए नहीं है। इसमें आप फर्क कैसे कर सकते हैं कि अगर बेहतर जिंदगी की बात कहकर हिंदू से ईसाई या हिंदू से मुस्लिम बना दिया गया तो ठीक है। लेकिन मुस्लिम से हिंदू या ईसाई से हिंदू बना दिया गया तो जबर्दस्ती है। लालच है। ढोंग है। और हां, ये बात भी कई जगह सामने आई है कि पैसे देकर एक धर्म से दूसरे धर्म की लड़कियां खरीदी जा रही है। 

हालांकि ये तमाम बातें वो नेता भी जानते हैं जो हंगामा कर रहे हैं। वो बुद्धिजीवी भी समझते है तो जो अपनी विद्वता की विवेचना करते फिर रहे हैं। लेकिन हकीकत ये है कि सब सियासत है। एक पार्टी का दूसरी पार्टी को घेरने का च्रकव्यूह है। आम लोगों को बरगलाकर सत्ता का सुख पाने की चेष्टा है। धर्म और जाति के नाम पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयत्न है।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

ऑटोग्राफ

वो बच्ची छह-सात साल की होगी। मेरे बॉस की बेटी है। शाहरूख खान जब मेरे दफ्तर में आए थे, तो वो देखने आई थी। रात के तकरीबन 12 बजे। एक घंटे से ज्यादा तक कार्यक्रम चला। दीपिका भी थी। फरहा खान भी थी। वो टकटकी लगाए बैठी रही। पूरा कार्यक्रम देखा। मस्ती की। इतनी खुश थी, मानों वो अपनी सपनों की परीलोक में उतर आई हो। प्रोग्राम खत्म होने को हुआ। वो बच्ची शाहरुख के पास पहुंच गई। शाहरुख ने उसके साथ डांस किया। फिर एक-एक कर कई बच्चे शाहरूख की ओर दौड़ पड़े। ऑटोग्राफ लेने के लिए। उस बच्ची को भी ऑटोग्राफ चाहिए था। जो नहीं मिला। दो-चार बच्चे इसमें जरूर कामयाब हो गए। लेकिन वो बच्ची निराश रह गई। शाहरुख चले गए। लेकिन वो रूठ गई। रोने लगी। उसको ऑटोग्राफ चाहिए था। शाहरुख का ही ऑटोग्राफ चाहिए था। और उसकी अपनी डायरी पर ही ऑटोग्राफ चाहिए था। ऑटोग्राफ नहीं मिलने के गम के आगे उसका शाहरूख के साथ डांस की खुशी का कोई मायने नहीं था।

वो रोती रही। उसके पापा उसे समझाते रहे। दूसरे लोग उसे समझाते रहे। लेकिन उसकी आंखें धारप्रवाह बहती जा रही थी। क्योंकि उसे ऑटोग्राफ चाहिए था। उसको इस बात से कोई फर्क नहीं था कि शाहरुख ने उसके साथ, सिर्फ उसके साथ डांस किया। डांस का वीडियो उसके पास है। लेकिन उसे तो सिर्फ और सिर्फ ऑटोग्राफ चाहिए था। जो नहीं मिला। उसे मनाने को तमाम कोशिश उस वक्त नाकामयाब हो गई। पता नहीं बाद में उसके पापा/ मम्मी ने कैसे समझाया होगा।

खैर, फिर मेरे दिमाग में ये सवाल आया कि कोई किसी का ऑटोग्राफ क्यों लेता है? किसी का ऑटोग्राफ मिलने या न मिलने से क्या फर्क पड़ जाता है? किसी का ऑटोग्राफ किसी के लिए क्यों महत्वपूर्ण हो जाता है? छोटी सी बच्ची को तो जरूर किसी ने बताया ही होगा कि किसी सेलिब्रिटीज का ऑटोग्राफ मिल जाना बहुत बड़ी बात होती है। चांद पर पहुंच जाने के बराबर। वरना छह साली की बच्ची के लिए लिए डांस से ज्यादा ऑटोग्राफ अहम नहीं होता।

ऑटोग्राफ के लिए रोते बिलखते सिर्फ वो बच्ची ही नहीं थी, हम में से कई के मन में ये कसक रह गई थी उसे शाहरुख या दीपिका का ऑटोग्राफ नहीं मिला। बड़े-बड़े ऑटोग्राफ को लेकर एक्साइटेड हो जाते है। भीड़ में धक्कम धक्का के बीच ऑटोग्राफ लेने के लिए पिल पड़ते हैं। मेरे कई मित्र अक्सर सीना चौड़ा कर बोलते हैं कि मैंने फलां का ऑटोग्राफ ले लिया। ऐसे बात करते हैं मानों एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर आए हों।

ऐसा क्यों होता है कि कागज के टुकड़े पर किसी के द्वारा आंख मूंदकर हस्ताक्षर कर दिया जाना, इतना मायने रखने लगता है। अक्सर देखते है कि भीड़  में जब कोई किसी को ऑटोग्राफ देता है तो वो लिखता कहीं और है, देखता कहीं और है। खुद को कहीं और महसूस करता है।

पता नहीं लोग उस आंख मूंदकर दिए गए ऑटोग्राफ को कितना सहेज कर रखते हैं। कब तक रखते हैं। और उससे क्या हासिल हो जाता है।

क्या आपको लगता है कि पांच बरस बाद जब आप उसी सेलिब्रिटी से मिलेंगे। उसे वो ऑटोग्राफ दिखाएंगे तो आपको तवज्जो मिलेगा? क्या किसी को ऐसा मिला है ? या ये सबकुछ सुनी सुनाई है?

मुझे नहीं पता। मेरे पास किसी का ऑटोग्राफ नहीं है। किसी का ऑटोग्राफ लेना कभी मैंने जरूरी समझा भी नहीं। शायद कभी होगा भी नहीं। आपको पता हो तो बताइएगा जरूर। इस ऑटोग्राफ के बारे में ज्ञानवर्धन होगा। तर्कसंगत बात अच्छी लगेगी।

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

कौवा और मीडिया

शहर का हर कौवा परेशान था। खलबली मची हुई थी। हर कौवा रडार पर था। भाग-भागा फिर रहा थ। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था । अचानक क्या हो गया ? जो कौवा दिनभर कानफाड़ कांव-कांव करने में सबसे शातिर था, वो भी सहमा हुआ था। टीवी ऑन किया तो हक़ीक़त पता चला। दरअसल शहर का हर कौवा मोस्ट वांटेड घोषित किया जा चुका था। मीडिया के द्वारा।


इन कौवों को खुद अब तक अपने जुर्म की जानकारी नहीं थी। हर कौवा शक की निगाहों में था। खबरनवीस इन्हें खोज रहे थे। चैनलों पर एक मुहिम चल रही थी। सभी चैनल वाले, सबसे पहले । लगातार। सबसे तेज। सबसे सटीक। तमाम कैप्शन के साथ बड़ी खबर, ब्रेकिंग, एक्सक्लूसिव चलाए जा रहे थे।

रिपोर्टर मुजरिम तक पहुंचने के लिए अपने सुराग तलाश रहे थे। टीवी चैनलों पर सूत्रों के हवाले से बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे। कोई अपने सूत्रों के हवाले से बता रहा था कि आरोपी कौवा काला है। कोई बता रहा था आरोपी कौवे की  गर्दन के नीचे सफेद है। कोई कुछ तो कोई कुछ बता रहा था। कोई बता रहा था कि आरोपी कौवे को नीम के पेड़ पर देखा गया है। कोई बता रहा था कि वो गुप्त रास्तों के जरिए विदेश भागने की तैयारी कर रहा है।

मीडिया के प्रेशर में पुलिस चुन-चुन कर कौवों को हिरासत में ले रही थी। कुछ सांसदों ने संसद में मामला उठा दिया था। सदन बार-बार स्थगित हो रही थी।  तभी अचानक कमिश्नर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। बताया गया कि पुलिस ने आरोपी को पकड़ लिया है। कोर्ट में पेशी है। पीड़ित को भी कोर्ट में बुलाया गया। कोर्ट के बाहर मीडिया वालों की भीड़ जमा थी। हर कोई 'दोषी' कौवे से एक्सक्लूसिव टीकटैक करना चाह रहा था।

जज साहब ने पीड़ित से पूछा कि आपका आरोप क्या है। पीड़ित ने बताया कि एक कौवा उसका कान लेकर भाग गया है। ये बात उसे उसको पड़ोसी ने बताई। थाने गया तो  बात सुने बिना पुलिस ने थाने से भगा दिया। गालियां दी। और धमकी भी दी। जान पहचान के एक पत्रकार साहेब से मिले। उनको बताया। उन्होंने बोला कि फेसबुक पर इसे डाल तो, देखो तुम्हारा काम हो जाएगा। फिर कुछ देर बाद देखा कि सभी चैनलों पर ये खबर चल रही थी। सर, कई न्यूज चैनलवालों को तो मैने फोनों भी दिया है।

जज ने पूछा कि आपने अपना कान चेक किया कि नहीं। पीड़त ने ना में सिर हिलाया। जज के कहने पर उसके सिर से बंदर टोपी हटाकर  दोनों कान चेक किया तो पता चला कि किसी कौवे ने उसका कोई कान लेकर नहीं भागा है।

ये खबर कोर्ट से बाहर आई। ज्यादातर मीडिया वाले अपना-तार और माइक समेटकर चुपचाप खिसक लिये। हालांकि वहां खड़े एक दो रिपोर्ट जरूर अपने टीवी पर लाइव चैट दे रहा था कि हमने तो पहले ही बताया था कि खबर झूठी है।