बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

कहां गई मेरी मासूमियत

अब मैं मासूम नहीं रहा। पता नहीं कब था। लेकिन लोग कह रहे हैं कि अब मुझमें वो मासूमियत नहीं रही। कहते हैं कि पहले मेरी आंखों से, चेहरे से, आवाज से मासूमियत झलकती थी। बच्चों जैसी। लेकिन अब नहीं। पता नहीं लोग कहां- कहां से मासूमियत ढूंढ लेते हैं।

मैंने कभी मासूमियत पर रिसर्च नहीं किया। किसी किताब में इसकी परिभाषा भी नहीं पढ़ी। इसलिए इसके बारे में ज्यादा नहीं जानता। मैं तो बस ये समझता हूं कि मासूम सिर्फ बच्चे होते हैं। स्कूल जानेवाले बच्चे। जो अच्छा-भला नहीं सोचते। वो दहलीज तो मैं कई बरस पहले पार कर चुका था। बावजूद इसके कुछ महीने पहले तक लोगों को मुझमें मासूमियत दिखती थी।

मेरी आंखें वही है, लेकिन उसमें मासूमियत नहीं रही। मेरा चेहरा वही है। मेरी आवाज वैसी ही है। जज्बात भी वैसा ही है, लेकिन मैं मासूम नहीं रहा। हां मैं थोड़ा मोटा जरूर हो गया हूं। माथे से बाल कम हो गये हैं। लेकिन दोस्तों से वैसे ही बात करता हूं जैसे पहले करता था। आज भी उतना ही बोलता हूं, जितना पहले बक बक करता था। मजाक करने का तौर तरीका भी नहीं बदला। शाम होते ही आज भी मेरी आंखें थोड़ी चढ़ जाती है अपने-आप। पहले भी बीड़ी, सिगरेट, पान, गुटखा, शराब, चाय से परहेज था, अब भी कायम है। लेकिन लोग कहते हैं कि मुझमें वो मासूमियत नहीं रही।

फेसबुक पर मेरी एक तस्वीर के नीचे एक फ्रेंड ने कॉमेंट किया कि तुम में अब वो मासूमियत नहीं रही। उसके लहजे में फर्क था। शिकायत थी। बातों से लग रहा था कि उसके दोस्त का एक अमूल्य गहना खो गया है। मेरी मासूमियत के खोने से वो मायूस है। उसको मुझमें वो कुछ भी नहीं दिख रहा था, जो कुछ महीने या साल भर पहले दिखता था।

तब से मैं भी अपनी मासूमियत को ढूंढ रहा हूं। कई दिन बीत गए हैं। लेकिन अब तक मिली नहीं। कहां चली गई रूठकर। पता नहीं कब गायब हो गई। शायद कमबख्त वक्त ने उसको कभी नहीं लौटाने के लिए मुझसे चुरा लिया।   

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

मुहब्बत की सजा मौत !

उन्होंने ना तो कोई मजहबी फसाद किया था। ना ही बम धमाकों में मासूमों की जान ली थी। वे किसी आतंकी संगठन के सदस्य भी नहीं थे। ना ही उनके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा था। ना तो वे लाल मस्जिद पर कब्जा करने के फिराक में थे और ना ही वे राष्ट्रपति को अगवा करने का प्लान बना रहे थे। लेकिन उन्हें इन सभी गुनाहों से बढ़कर सजा मिली।

वे दोनों भी अगर इस्लामाबाद के बीच चौराहे पर बंदूक तान कर कत्ल-ए-आम किए होते तो बच जाते। लेकिन उनसे उससे भी बड़ी खता हो गई थी। वे दोनों एक-दूसरे से मुहब्बत कर बैठे थे। वे नासमझ हैवानों के बीच प्यार का पैगाम बांटने चले थे। उन्हें इस बात का इल्म नहीं था कि उनके समाज में खून माफ हो सकता है, लेकिन मुहब्बत नहीं।

वे दोनों एक-दूसरे से बेइंतहा मुहब्बत करते थे। इश्क सच्चा था। जिंदगी भर साथ जीने मरने की कसम को पूरा करने के लिए हद पार कर दी। घरवालों ने दोनों की अलग-अलग शादी कर दी। दोनों अलग हो गए लेकिन जेहनी तौर पर जुदा नहीं सके। समाज के सभी रस्मो रिवाज के तोड़कर फिर से एक हो गए। बस, यही गलती उनकी जान पर बन आई।

बुजदिलों की पंचायत बैठी। लंबी-लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए मौलवी ने फरमान सुनाया। हुक्म की तामील हुई। और दोनों को पत्थर से पीट पीटकर मार दिया गया।

वाकई दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है। मानव विकास ने अपने आयाम में कई कड़ियां जोड़ ली है। लोग सपनों से आगे सोचने लगे हैं। पाकिस्तान के लोरलई की ये घटना इसी का प्रमाण है।

1976 में एक फिल्म आई थी लैला मजनूं। उस फिल्म में भी कुछ ऐसा ही दिखाया गया था। जमाने की परवाह किए बगैर लैला-मजनूं दोनों एक दूसरे से इश्क करते हैं। समाज के ठेकेदार मजनूं को पत्थर से मार मार कर हत्या करने का फरमान सुनाता है। लेकिन एन वक्त पर लैला आकर मजनूं को इस शर्त पर बचा लेती है कि मजनूं शहर छोड़ देगा।

लेकिन हकीकत उससे ज्यादा खौफनाक निकला। पाकिस्तान की उस लड़की को इतना भी मौका नहीं दिया गया। कि वो अपने मजनूं के लिए रहम मांग सके। उसकी जान बचा सके। दोनों की हत्या कर दी गई। हजारों की भीड़ में कोई ऐसा नहीं निकला, जिसके सीने में 4 इंच का दिल हो। जो इस जुल्म का विरोध कर सके। जो उन दोनों के मासूम जज्बातों को समझ सके।   


शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

दिल्ली में 'वाद' का अवसाद

नीडो तानिया की मौत ने बेदर्द दिल्ली की घटिया सोच को नंगा किया है। आज पहली बार उस मसले पर सार्वजनिक रूप से चर्चा हो रही है जो सालों से नासूर बना हुआ है। जिसके शिकार हजारों लोग हर रोज होते हैं। दिल्ली के हर गली मुहल्ले में जलालत का जहर पीकर जो लोग घुट घुट कर जीने को मजबूर हैं, उन्हें एक उम्मीद दिख रही है। संसद से सड़क तक, मीडिया में और चाय की दुकान पर दिल्ली की नस्लवादी और क्षेत्रवादी सोच मुद्दा बना हुआ है।

नस्लवाद और क्षेत्रवाद के शिकार लोगों की सिसकियां पहली बार बुलंद आवाज बनी है। लोग एकजुट हैं। सड़क पर हैं। भूखे पेट प्रदर्शन कर रहे हैं। लाठियां खा रहे हैं। क्योंकि इंसाफ चाहिए। जिस घुटन की जिंदगी जीने को मजबूर हैं, उससे आजादी चाहिए। सालों से झेल रहे मानसिक प्रताड़ना से निजात चाहिए। एक हिंदुस्तानी होने का पूरा अधिकार चाहिए।

नॉर्थ इस्ट के लाखों लोग दिल्ली में हैं। कुछ पढ़ते हैं। कुछ नौकरी करते हैं। कुछ बिजनेस करते हैं। अपनी रोजी रोटी चला रहे हैं। अनजान शहर में अजनबियों के बीच हजारों लड़कियां अकेले रहती है। महज आत्मविश्वास के आसरे। जो लड़कियां हिम्मत की मिसाल हैं। उन्हें हिकारत भरी नज़रों से देखा जाता है।

ये कितनी शर्म की बात है कि एक लड़के की हत्या इस वजह से कर दी जाती है क्योंकि उसका शक्ल ओ सूरत आम दिल्लीवालों के जैसा नहीं है। उसका हेयर स्टाइल थोड़ा अलग है। वो शुद्ध हिंदी नहीं बोल सकता। उसके ऊपर अश्लील कॉमेंट किये जाते हैं। उसे जलील किया जाता है। विरोध करने पर पीट पीट कर मार दिया जाता है।

दरअसल दिल्लीवालों के रगों में क्षेत्रवाद और नस्लवाद का अवसाद कूट कूट कर भरा है। मौका मिलते ही इसकी नुमाइश करने से नहीं चूकते। हर दिन सैकड़ों लोग घटिया मानसिकता के शिकार होते हैं। जिस तरह ये नॉर्थ इस्ट के लोगों से गैर हिंदुस्तानी की तरह व्यवहार करते हैं वैसे ही बिहारियों के ऊपर भी ओछी टिप्पणी करने से गुरेज नहीं करते। दिल्लीवालों ने बिहारी शब्द तो गाली बना दिया है।  


अच्छी बात ये है कि ओछी मानसिकता से ग्रसित लोग यहां टुकड़ों में बंटे हुए हैं। अगर शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना सरीखे पार्टियां दिल्ली में होती तो यकीन जानिए यहां के हालात और ज्यादा खराब होते। हर दिन यहां एक नीडो बेमौत मारा जाता। 

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

सियासत का राष्ट्रीय महासपना

 फागुन शुरू हो चुका है। जाड़ा ढलान पर है। मौसम के साथ मूड भी चेंज हो रहा है। नया जोश। नई उम्मीद। नई कोशिश। एक सपना। नहीं महासपना कहिए। क्योंकि राज्यस्तरीय सपने को समेटकर राष्ट्रीय स्तर पर तैयार हुआ ये महासपना है।

कुछ लोगों का ये सपना पुराना है। बहुत पुराना। जिस पर लगी जंग को हटाने की जद्दोजहद हर पांच साल पर होती है। एक आध बार की आंशिक कामयाबी को अगर छोड़ दें तो ये सपना पूरा होने से बहुत पहले नींद खुल जाती है। सबकुछ धरा का धरा रह जाता है।

अंतिम बार 1996 में महासपना पूरा हुआ था। याद होगा कि ज्योति बाबू पीएम बनते-बनते रह गए थे। मॉडर्न पॉलिटिक्स के समाजवादी नेताजी के सपने को लालू जी ने लथाड़ मार दिया था। जेहन में लगी चोट से नेताजी आज तक कराह रहे हैं। लेकिन कोशिश में लगे हुए हैं। हर चुनावी साल में नए साथी की तलाश में भटकते रहे हैं।

नीतीश बाबू की बैचेनी आसानी से समझी जा सकती है। अति महत्वाकांक्षा में फंसकर ना घर के रहे ना घाट के। ना बीजेपी में रहे और ना ही कांग्रेस इन्हें अपनाया। जयललिता कब मोदी की तरफ मुड़ जाए कहना मुश्किल। रही बात वाम दल, बीजू जनता दल और जेडीएस की तो इनकी 
राजनीति में इनके पास थर्ड फ्रंट के अलावा कोई चारा नहीं है।

लिहाजा एक बार फिर से तकीए के नीचे दबा कर रखे गए इस महासपने को बाहर निकाला गया है। इस पर जमी धूल को सबने मिलकर झाड़ा है। उसे चमचमाने की कोशिश शुरू हो चुकी है। इसके लिए थर्ड फ्रंट नाम के वासिंग पाउडर में कुछ पुराने और कुछ नए केमिकल मिलाए गए हैं। ताकि इस बार झकास सफेदी दिखे।

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

भैंस पर मॉडर्न लेख

भैंस एक जानवर का नाम है। जो काली होती है। भैंस दूध देती है। पहले खाली बिहार की भैंस फेमस हुआ करती थी। अब यूपी की भैंस भी फेमस हो गई है। पहले लालू यादव का इस पर एकाधिकार था। अब आजम खान ने सेंघमारी कर दी है। अब यूपी वाली भैंस ज्यादे फेमस हो गई है। खबर बनती है। टीवी पर दिखती है।

यूपी सरकार भैंस को लेकर काफी फिक्रमंद हैं। मंत्री आजम साहब तो भैंस को बच्चों की तरह पालते हैं। दिन रात ख्याल रखते हैं। रहते लखनऊ में हैं, लेकिन हमेशा ध्यान रामपुर वाली भैंसों पर लगी रहती है।

एक बार आजम साहब की सात भैंस चोरी हो गई। रातों रात तबेले से भैंस गायब। भोरे भोर मंत्रीजी को खबर मिली। मंत्रीजी टेंशन में आ गए। इतना टेंशन तो समाजवादी पार्टी से हटा दिए जाने के बाद भी नहीं हुआ था। इतनी मायूसी तो नेताजी से बिछड़ने के बाद भी नहीं था। किसी ने मुख्यमंत्री अखिलेश जी को इंफोर्म किया। आपके चचा जान की भैंसे चोरी हो गई है। बहुत टेंशन में हैं। खाना-पीना छोड़ दिया है। बोले हैं कि जब तक भैंसे नहीं मिलेगी, तब तक एक बूंद जल तक नहीं ग्रहण करेंगे।

ये खबर सुनकर सीएम साहब चकरा गए। डीजीपी को ऑर्डर दिया कि जहां से भी हो भैंस पकड़के लाओ नहीं तो सबको लाइन हाजिर कर दिया जाएगा। ऊपर से लेकर नीचे तक पूरा पुलिस महकमा एक्शन में आ गया। क्राइम ब्रांच की टीम। डॉग स्क्वॉयड की टीम। एसपी की अगुवाई में सैकड़ों पुलिसवाले भैंस को खोजने निकल पड़े। शहर में खोजा। गांव में खोजा। आसपास के जंगल झाड़ में पुलिसवाले भैंस खोजने निकल पड़े। दिन रात एक करके किसी तरह से भैंस को खोज निकाला।

भैंस मिलने के बाद मंत्री जी की जान में जान आई। भैंस घर पहुंची। मंत्री जी ने उसे दुलारा पुचकारा। चोरों के पास रहने की वजह से भैंस का मुंह सूख गया था। भैंस का सूखा हुआ मुंह देखकर मंत्रीजी को रोना आ गए। तबले से बाहर निकले और तीन पुलिसकर्मियों को लाइन हाजिर कर दिया गया। सुने हैं कि चोरी की इस वारदात की सीबीआई जांच की मांग होनेवाली है।

यूपी सरकार के इस भैंस प्रेम की देशभर में चर्चा है। टीवी पर खबरें दिखाई जा रही है। अखबारों में लेख लिखे जा रहे हैं। सोशल साइट्स पर भी यही छाए हुआ है। लोकसभा चुनाव नजदीक है। लिहाजा समाजवादी पार्टी के मेनिफेस्टों में भैंस को विशेष स्थान मिलने वाली है। मैनिफेस्टो के मुताबिक कुछ दिन में अखिलेश यादव भैंस को यूपी का राजकीय पशु घोषित करनेवाले हैं। और हां, अगर नेताजी प्रधानमंत्री बने तो भैंस को राष्ट्रीय पशु भी घोषित किया जाएगा। यूपी सरकार की इस पहल पर भैंस समाज में काफी खुशी है। भैंस समाज उन सातों भैंस को सम्मानित करनेवाली है, जो चोरी हो गई थी।

अत: हम कह सकते हैं कि हमारे देश में काफी महत्व है। खासकर उत्तर प्रदेश में। जहां इंसान के हत्यारे भले ही ना पकड़े जाएं। अगवा किए गए शख्स का पुलिस सुराग नहीं ढूंढ पाए,लेकिन भैंस को पुलिस खोज निकालती है।