मंगलवार, 31 जुलाई 2012

ब्लॉग माया

तथाकथित बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी बीमारी है छपास की। वो छपना चाहता है। दिखना चाहता है। खुद की तारीफ चाहता है। रचना कैसी भी हो। बस छपना चाहिए। बस इतनी तमन्ना होती है। एक बार किसी अखबार या पत्रिका में उसकी लिखी हुई कोई स्टोरी छप जाए। फाइल में सहेज कर रखता है। जैसे पुरखों का वसीयतनामा हो। कुछ तो उस कतरन में लेमिनेशन करवा कर रखता है। लोगों को दिखाने के लिए है। दिखाते वक्त, दिल में जो गुदगुदी होती है। वो वही महसूस कर सकता है।
   अखबारों के दफ्तर का चक्कर लगाते-लगाते चप्पल तोड़नेवालों के लिए गुगल, ब्लॉग के रूप में वैसा ही वरदान दिया, जैसे सालों तपस्या के बाद अचानक भगवान मिल जाए। लोगों ने धड़ाधड़ ब्लॉग बनाना शुरू कर दिया। भाड़ में जाए अखबार वाले। बहुत जी हुजूरी कर लिये। अब अपना ब्लॉग। अपना मालिकाना। जब मन हुआ तब छाप दिये। जो मन हुआ, वो बिना कांट छांट के छाप दिये। भले ही वो सड़ांध ही क्यों न हो। सीना अड़तालिस इंच चौड़ा हो जाता है, जब लिखे हुए ब्लॉग में कॉमेंट छपता है कि क्या जबर्दस्त लिखा है साहब आपने। पूरी हक़ीकत बयां कर दी। ऐसे ही लिखते रहिए। मैं आपका बहुत बड़ा फैन हूं। वगैरह। वगैरह।
    लोग अपनी लिखी हुई बातें (सड़ांध भी हो सकती है) लोगों को पढ़वाने के लिए क्या क्या नहीं करते। दूसरे को ई-मेल करते हैं। फेसबुक पर रिक्वेस्ट करते हैं। यहां तक कि मोबाइल से भी मैसेज करते हैं। ताकि कोई पढ़ ले। तारीफ में दो शब्द लिख दे। कुछ तो बकायदा फोन करके भी बताते हैं कि जरा पढ़ के बताइएगा। कैसा लिखा है। हां एक बात और। ब्लॉग में फॉलोअर की संख्या में बढोत्तरी देखकर भी अतिप्रशन्नता का भाव उमड़ता है।
नाम और छपास की बीमारी देखिए कि कुछ लोग तो ब्लॉग क्या होता है, ये सुनकर भी ब्लॉग बना लेते हैं। ब्लॉग का कुछ नाम डालकर रजिस्ट्री करवा लेते हैं, जैसे फ्री में कोई ज़मीन मिल रही हो। इस तरह के लोग या तो ब्लॉग पर कोई पोस्ट नहीं डालते या फिर एक आधबार डालकर वैसे भूल जाते हैं जैसे पांच साल बाद दोबारा पोस्ट करेंगे तो रेवेन्यू मिलेगा। मुश्किल होती है उन लोगों के लिए जो देर से ब्लॉग के बारे में जानते हैं। जब उन्हें कोई नाम नहीं सूझता है। जो नाम डालने की कोशिश कि वो पहले से कब्जा किया हुआ मिलता है।      
  छपास की ये बीमार सिर्फ तथाकथि पत्रकारों में ही नहीं होती। हर क्षेत्र के लोगों इस रोग से ग्रसित हैं। बडे-बड़े नेता। अभिनेता। खिलाड़ी। व्यापारी। जुकाम की तरह फैलती है ये बीमारी। एक ने छींका तो दूसरे में भी घुस गया। पता भी नहीं चलता। कब ब्लॉगर बन गये। दूसरों को मैसेज करने लगे। और ब्लॉग पोस्ट में जाकर कॉमेंट को खंगालने लगे। कि किसने क्या लिखा है। कॉमेंट में तारीफ कर दी तो सीना चौवालीस इंच चौड़ा हो जाता है। अगर कॉमेंट तारीफ में हो तो अड़तालीस इंच से भी ज्यादा। लेकिन कॉमेंट न आए तो चिंता बढ़ जाती है। कभी कभी तो ब्लॉग लिखनेवाले खुद दूसरा एकाउंट बनाकर या बेनामी नाम से भी कॉमेंट लिख देता है। ताकि दूसरों को लगे उसका ब्लॉग पढ़ा जा रहा है। खैर, ये तो चिरकुट टाइप ब्लॉगर का कारनामा होता है। लेकिन एक बात तो साफ है कि छपास की बीमारी से ग्रसित लोगों को ब्लॉग के रूप में ऐसी एंटबाइटिक मिली है, जो वैसा ही काम करता है जैसे सिर दर्द की बीमारी में सेरिडॉन। जिसे खाने के बाद लोगों को महसूस कराता है कि अब ठीक हो। कितना ये नहीं पता।
  

शनिवार, 28 जुलाई 2012

जवानी में भूल हो गई, मी लॉर्ड


मी लॉर्ड गुजारिश है कि मेरी उम्र...मेरी प्रतिष्ठा...मेरी मान,,,मेरी मर्यादा,,,समाज के लिए किये गये मेरे नेक काम को ध्यान में रखा जाए...इस केस को यहीं खत्म किया जाए...

हां हां मी लॉर्ड....जवानी में किये गये नेक काम का खुलासा बुढ़ापे में हो रहा है....इसी तरह और कितने नेक काम किये हैं....एक एक कर बताएंगे क्या.....

ऑब्जेक्शन योर ऑनर ऑबजेक्शन....ये सब झूठ है....बकवास है...मुझे पर गलत लांछन लगाने की कोशिश हो रही है....

ये लांछन नहीं...हकीकत है योर ऑनर..

क्या सबूत है इनके पास...

मैं खुद एक सबूत हूं योर ऑनर...और भी कई होंगे....

ऑर्डर....ऑर्डर...ऑर्डर...

मेरे साथ साजिश हो रही है,,,,,टोटली कांसीप्रेसी,,,,मी लॉर्ड, मुझे फंसाया जा रहा है....पूरी तरह से बदनाम करने की कोशिश हो रही है.....

नहीं मी लॉर्ड...डीएनए रिपोर्ट आपके सामने है....

ऑर्डर... ऑर्डर....दोनों का डीएनए मैच कर रहा है....आप दोनों जैविक रूप से बाप-बेटे हैं.

नहीं मी लॉर्ड....ये क्या कह रहे हैं आप...जवानी में गलती हो गई...लेकिन उसकी इतनी बड़ी सजा....वो भी बुढ़ापे में...

नहीं मी लॉर्ड...ये जवानी में की गई महज ग़लती भर नहीं है...ये किसी की ज़िंदगी का सवाल है मी लॉर्ड.....किसी के जज्बात के साथ धोखा....किसी के विश्वास के साथ फरेब है….किसी की जिंदगी के साथ खेल हुआ है मी लॉर्ड...

ऑब्जेक्शन यॉर ऑनर...ऑब्जेक्शन.....मैं धोखेबाज नहीं हूं...फरेबी नहीं हूं मी लॉर्ड....उस वक्त मुझे क्या पता था कि तीस साल बाद ऐसी टेक्नोलॉजी आएगी...जो बाप का पता लगायेगी...इतना पता रहता तो मैं कुछ और जुगाड़ करता...

आपने ने जो किया, ये उसी का परिणाम है...रोपा पेड़ बबुल का, आम कहां से पाए.....

ये सरासर अन्याय है मी लॉर्ड...क्या मैं पहला आदमी हूं,,,जिन्होंने ऐसा किया...मेरी बिरादरी में कौन ऐसा है....जिनका किसी दूसरी के साथ ताल्लुकात नहीं है...लेकिन जब मैं बूढ़ा हो गया हूं....किसी पोजिशन में नहीं हूं तो बदनाम किया जा रहा है...

ऑबजेक्शन योर ऑनर...बदनाम करने की कोई कोशिश नहीं है....मेरा दूसरों से क्या लेना देना...मेरी ही तरह दूसरा भी कोर्ट में पहुंचे...तब सब बिना परमीशन के बाप बेनकाब होंगे मी लॉर्ड...व्हाइट कॉलर के भीतर की गंदगी बाहर आएगी मी लॉर्ड.....

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

अन्ना से आगे निकल गये बाबा


  तो क्या भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जारी लड़ाई में अन्ना हजारे से आगे निकल चुके  हैं स्वामी रामदेव । ये सवाल बड़ा इसलिए है क्योंकि जंतर मंतर पर भीड़ जुटाने के लिए जब टीम अन्ना की सभी रणनीति फेल हो रही थी, तभी बाबा के पहुंचते ही अनशन स्थल खचाखच भड़ गया । रामदेव के मंच पर पहुंचते ही न सिर्फ भीड़ बढ़ी बल्कि भीड़ देखकर टीम अन्ना का भी जोश बढ़ गया । जिस रामदेव को देखकर टीम अन्ना के सदस्य कभी कतराते थे, उन्हें गले लगा लिया ।
    याद कीजिए ठीक एक बरस पहले जब देश अन्ना का दीवाना था । और रामदेव पिट गये थे । रामदेव पर कई तरह के आरोप लगने लगे । उस वक्त टीम अन्ना ने रामदेव से पूरी तरह किनारा कर लिया था । लेकिन दिसंबर के अनशन में भीड़ क्या कम हुई। टीम अन्ना के सदस्य रामदेव की ओर खींचते चले गये । और अब जब जंतर मंतर पर लोग नहीं पहुंचे तो  टीम अन्ना बाबा का सहारा खोजने लगी । मौका देखकर स्वामी भी संजीवनी लेकर पहुंच गये और अपनी ताक़त का अहसास करा दिया ।
      स्वामी रामदेव पहले ही राजनीतिक पार्टी बनाने के संकेत दे चुके थे। अब अन्ना और उनके टीम के सदस्यों को भी लगने लगा है कि बिना चुनाव लड़े व्यवस्था परिवर्तन संभव नहीं है ।  यानी टीम अन्ना इस मुद्दे पर भी रामदेव के पीछे चल पड़ी है ।
    इस सब के बीच जंतर मंतर पर जाने से पहले रामदेव ने जिस अंदाज में  सवा करोड़ लोगों के बिना आंदोलन के औचित्य पर सवाल खड़ा किया, उससे साफ  है कि बाबा को पता है कि भीड़ अब उनके साथ है । और ये अहसास टीम अन्ना को भी कराना चाहते थे । और जंतर मंतर पर समर्थकों के साथ पहुंचकर ये अहसास करा भी दिया । यानी जहां भीड़ के जरिए खिलाड़ी की सफलता आंकी जाती है तो स्वभाविक है फिलवक्त रामदेव ही चैंपियन माने जाएंगे । अब देखिए आगे आगे होता है क्या । 

सोमवार, 23 जुलाई 2012

नेताओं के प्रति लोगों का नज़रिया


पिछले कुछ बरसों में नेताओं को लेकर लोगों का नज़रिया काफी बदला है। आम लोगों के बीच नेताओं की जो छवि सामने आई है, वो लोगों को प्रभावित नहीं किया बल्कि उसमें नकारात्मक संदेश कहीं ज्यादा है। जिन्हें लोग एक पहचान के साथ खड़े करते हैं। जिन्हें सम्मान के साथ अपने प्रतिनिधि के तौर पर भेजते हैं, आज उन्हें ही गरियाने लगे हैं।
      सवाल है कि देश के एक जिम्मेदार और दिशा देनेवाले व्यक्ति को लेकर लोगों में नकारात्मक सोच क्यों है। दरअसल इसके लिए नेता खुद जिम्मेवार हैं। क्योंकि ऐसा एकाएक नहीं हुआ है। पिछले कुछ सालों में नेताओं के स्वभाव, हावभाव, विचार और काम करने के तरीके में नाटकीय ढंग से हुए परिवर्तन का ये दुष्परिणाम है। अपने काम करने के तौर तरीकों के ज़रिए उन्होंने नेता की परिभाषा को बदल दिया है। वे राजनीति को व्यवसाय मात्र समझने लगे हैं। और चुनाव को इंट्रेंस एक्जाम की तरह। परीक्षा पास करने के लिए कुछ भी करते हैं। लोगों से झूठा वादा करते हैं। उजूल-फिजूल बयान देते हैं। अपने सीनियर की चरणपूजा करते हैं। और जब चुनाव जीत जाते हैं, तो फिर उनका एक ही लक्ष्य रह जाता है, ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना। और जब बात पैसों के इर्द गिर्द घूमने लगती है। तो ये सारा खेल होता है। आम लोगों से उनका सरोकार खत्म होते चला जाता है। और नेता दिल्ली दरबार में सिमटकर रह जाते हैं।   
           ऐसे में अहम सवाल है कि आम लोग क्या करे। जिनके हाथ चुनाव के बाद पांच सालों के लिए बंध जाते हैं। जो सबकुछ देखने और सुनने के लिए मजबूर हैं। मौका मिला तो अन्ना आंदोलन के जरिए अपने गुस्से का इजहार किया। चाय दुकान पर बैठकर गरिया दिये। और फिर चुप। इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं। लोग बिबस हैं। क्योंकि विकल्पहीन हैं। संसदीय राजनीति में किसी न किसी को तो चुनना है। लोकतांत्रिक ढांचा ऐसा है, जिसमें नेता चाहिए। और नेता आम जनता ही चुनेगी। और हर नेता कमोबेश एक जैसे ही हैं। तो स्वभाविक है कि टकटकी पर लटके लोगों को जब दर्द होगा तो निशाने पर उसे लटकानेवाला ही होगा।

शनिवार, 21 जुलाई 2012

अतिथि क्यों आते हो ?


मेरे एक सहकर्मी के पिताजी की तबियत ख़राब थी। उनको पीएमसीएच में भर्ती कराया गया। जान पहचान ‎वाले सभी देख आये थे। मेरी भी जिम्मेवारी बनती थी उन्हें देखने की। सो एक दिन मैं भी उनका हालचाल ‎पूछने हॉस्पिटल पहुंच गया। वहां जब मैं अपने सहयोगी को देखा तो वो खुद अपने पिताजी से ज्यादा ‎बीमार दिख रहे थे। चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था। क्योंकि उनके पिताजी उम्र के उस दहलीज पर ‎थे, जहां बीमार होना किसी अनहोनी की अंदेशा को जन्म दे देती था। ‎
               मेरे मित्र ने बताया कि कई दिनों से ठीक से खाना नहीं खाया। ठीक से सो नहीं पाया। ‎बताया कि आज वो बहुत दिनों के बाद खुलकर बातें कर रहा है। लग भी रहा था। बातचीत के दौरान ‎उन्होंने एक क़ायदे की कहानी, जिसे उन्होंने पिछले सात दिनों में अनुभव किया था। ‎
                   बीमारी की ख़बर मित्र से लेकर नाते, रिश्तेदारों तक आग की तरह फैल चुकी थी। लगातार ‎फोन कॉल्स आ रहे थे। चारो तरफ से दिलासा। भरोसा। दुआ। फोन से उपर उठकर धीरे-धीरे नजदीकी लोग ‎हॉस्पिटल तक पहुंचने लगे थे। कुछ देर रूकते। किसी बीमार रिश्तेदार की पुरानी दास्तान सुनाते, सबकुछ ‎ठीक हो जाने का भरोसा दिलाते और चले जाते। कई स्वयंभू तो वकायदा बेहतर डॉक्टर से दिखाने, ‎देखभाल के अच्छे तौर तरीके के बहुमुल्य सुझाव मुफ्त में दे जाते। जैसे जैसे समय बीत रहा था, वैसे वैसे ‎लोगों के आने जाने का सिलसिला भी बढ़ता जा रहा था। सभी शुभचिंतकों की ओर से वही रटी रटायी ‎संवेदना। शुरू शुरू में तो ठीक ठाक लगता था। लेकिन बाद में लोगों की इन बातों से चिर चिराहट बढ़ती ‎जा रही थी। अब तो जैसे कोई हालचाल पूछता तो मानों चिढ़ा रहा हो। ‎
                बीमारी की ख़बर पटना से बाहर भी पहुंच चुकी थी। पटना के रिश्तेदार भी जुटने लगे थे। ‎कई लोग तो अपनत्व दिखाते हुए पूरे परिवार के साथ पहुंच गये। जिन्हें देखभाल करने की जिम्मेवारी भी ‎बढ़ गयी। इतना ही नहीं इन लोगों को पता नहीं था कि मेरे घर से पीएमसीएच का रास्ता कहां है। लेकिन ‎मुझसे प्यार इतना कि वो पापा को देखने के लिए आतुर थे। सो उन्हें घर से हॉस्पिटल तक लाने और ‎पहुंचाना मेरे दिनचर्या में बढ़ गया। इस सब के बीच अगर अचानक पापा की तबियत ज्यादा बिगड़ गयी ‎तो फिर डॉक्टर, दवा के लिए दौड़ना पड़ता था। हमारे देश में अतिथि देव माने जाते हैं। ऐसे में उन्हें आने ‎से मना भी नहीं किया जा सकता था। लेकिन.................‎
               ख़ैर समय बीतता गया। मेरे मित्र के पीताजी स्वस्थ हो गये। घर वापस लौट आये। ‎हलांकि अब जब मैं किसी बीमार व्यक्ति को देखने जाता हूं तो एक बार ये भी ख्याल जरूर में उठता है कि ‎कहीं मैं किसी और को तनाव देने तो नहीं जा रहा हूं । ‎

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

सवाल टिप्पणी भर का नहीं है....

पहले टाइम मैग्जिन और अब ब्रिटिश अख़बार ने भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर सवाल खड़ा किया है। टाइम मैग्जिन ने अंडर एचिवर कहा तो द इंडिपेंडेट ने उन्हें सोनिया गांधी के हाथों का गुड्डा करार दिया है । सवाल सिर्फ टाइम मैग्जिन और ब्रिटिश अखबार की टिप्पणी भर से नहीं है। सवाल है कि आखिर ऐसा कहा क्यों जा रहा है। जिस मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनते ही विदेशी मीडिया में चिंता की लकीर खींच गई थी,   आज अगर उसी मनमोहन सिंह को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो जाहिर है, कि ये सवाल सिर्फ मनमोहन सिंह की कार्य क्षमता या कांग्रेस को लेकर ही नहीं बल्कि देश के लिए भी है।  
            याद कीजिए, आठ बरस पहले जब मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे, तो उस दौर में अमेरिका, चीन और ब्रिटेन से लेकर हर विदेशी मीडिया में इस बात को लेकर चर्चा हुई कि भारत का सबसे सफल वित्त मंत्री अब प्रधानमंत्री बन गया है। तो आर्थिक नीति और संपन्नता में भारत कहीं आगे निकल जाएगा। दूसरे देश पीछे छूट जाएंगे। कहीं न कहीं पहली कतार में खड़े देशों के बीच एक डर बन गया था। मनमोहन सिंह से ये उम्मीद की जा रही थी कि बतौर वित्त मंत्री उन्होंने जो करके दिखाया, उसे वो प्रधानमंत्री बनने के बाद आगे बढ़ाएंगे। उनसे उस सपने को पूरा करने की उम्मीद थी, जिसने आर्थिक उदारीकरण के आसरे लोगों में जगाया था। देश की अर्थव्यवस्था और मज़बूत होगी। आर्थिक रूप से संपन्न भारत दुनिया पर भारी पड़ेगा।  
    लेकिन आठ साल बीत जाने के बाद जब ऐसा कुछ भी नहीं दिखा। न तो अर्थव्यवस्था को लेकर मनमोहन सिंह ने कोई नीति बनाई और न ही ऐसा कुछ किया, जो सोनिया गांधी के विचार से इतर हो। देश की आर्थिक व्यवस्था चौपट होती गई । और मनमहोन सिंह मौन बने रहे । महंगाई आसमान छूती गई । पाकिस्तान और बंग्लादेश से ज्यादा कीमतों पर भारत में पेट्रोलियम बिकने लगा। डॉलर के मुकाबले रूपया टूटता ही जा रहा है । लेकिन मनमोहन सिंह कोई ठोस फैसला नहीं ले सके। अगर रोजगार गांरटी योजना की बात हो या फिर इंदिरा आवास योजना, सब का श्रेय कांग्रेस और सरकार दोनों, सोनिया गांधी को देती है, न कि मनमोहन सिंह को। तो ऐसे में अब विदेशी मीडिया को टिप्पणी करने का मौका मिल रहा है। और इसमें वो पीछा भी नहीं हट रही। 

सोमवार, 16 जुलाई 2012

हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट क्या है...

हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट । गाड़ियों में लगाये जानेवाले नंबर प्लेट का सरकारी भर्सन । आम लोगों के लिए टेंशन । सरकारी बाबुओं के लिए लेनदेन का नया साधन । नौकरी करते हुए एक और पेंशन । परिवहन विभाग प्राधिकरण के केन्द्रों पर ठेलमठेल भीड़ । धक्का मुक्की । नंबर आते आते समय खत्म । वगैरह, वगैरह ।
 ये गाड़ी मालिक की बात है । लेकिन सरकार को लगता है कि इस नंबर प्लेट के जरिए गाड़ियों के गलत इस्तेमाल से रोका जा सकता है। आतंकी जितनी आसानी से आतंकी घटनाओं में गाड़ियों का इस्तेलाम करते हैं, उस पर लगाम लगेगा। इसलिए इसे बनाने में काफी मशक्कत की गई है।    
  हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट एल्युमिनियम की बनी होती है । इसे रिपिट के जरिए गाड़ियों  में लगाया जाता है। प्लेट को गाड़ियों में इस तरह लगाया जाता है कि वो टूट जाए, लेकिन उखड़ नहीं पाए । जब आप टूटा हुआ प्लेट लेकर जाएंगे, तभी दूसरा नंबर प्लेट मिलेगा । इतना ही नहीं, नंबर प्लेट पर सात अंकों का एक सिक्योरिटी कोड होगा, जिसकी मदद से वाहन की पूरा जानकारी पाई जा सकती है । इस नंबर प्लेट पर होलो ग्राम के साथ साथ रिफ्लेक्टर भी लगे हुए हैं, जो अंधेरे में लाइट पड़ने पर चमकेगा और नंबर को साफ साफ पढ़ा जा सकेगा । हर गाड़ी पर नंबर एक ही स्टाइल में होंगे। जिससे नंबर नोट करने में, आसानी होगी ।
    नई गाड़ियों में नंबर प्लेट के लिए परिवहन विभाग ऑनलाइन संबंधित कंपनी से बात करेगा । एमएलओ से मिली ऑथराइजेशन स्लिप के बाद छह दिनों के भीतर प्लेट लगानी होगी । आपको स्लिप कटवाना होगा । ये स्लिप लेकर जाएंगे, तभी नंबर प्लेट मिलेगा । नंबर प्लेट के साथ साथ गाड़ी के पीछे भी विशेष स्टीकर लगाया जाएगा, जिसमें गाड़ी का इंजन, चेसिस, लेजर और रजिस्ट्रेशन नंबर होगा। सफेद या पीली प्लेट पर मशीन से नंबर लगाया जाता है। इसके बाद प्लेट पर लेमिनेशन की जाती है। मार्क नंबर का रेकॉर्ड बनाया जाता है । गाड़ी नंबर के रेकॉर्ड का एक नन रिमुवल कार्ड गाड़ी के पीछे लगाया जाता है।

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

बोली का रूतबा


          भाषा विनम्र होती है । बोली उदंड ।  भाषा अनुशासित रहती है, अभिभावक की देखरेख में रहनेवाले बच्चों की तरह । और बोली बिना अभिभावक वाले बच्चों की तरह । पूरी तरह से बेलगाम । जो किया वही ठीक है । इयाकरण-व्याकरण से कोई मतलब नहीं ।  जैसा बोला, वैसा ही सही ।  किसी की परवाह नहीं । किसी के बाप के राज में नहीं रहते । क्यों सहेंगे किसी का डंडा । क्यों चलेंगे किसी के कहे मुताबिक । सब कुछ अपने मने से । सीना ठोंककर । पसंद करना है तो करो, वरना भाड़ में जाओ ।
         जिस भाषा से मन हुआ उसी से शब्द उठा लिये । रोक सको तो रोक लो । देख लेंगे । नहीं हुआ तो अपना ही शब्द बना लिये । बोली में  बड़ी खासियत होती है शब्द निर्माण की । ऐसे ऐसे शब्द बनते हैं कि भाषा सोच भी नहीं सकती । सुनकर दंग रह जाती है । बनावटी शब्दों पर बोली ऐसी तगड़ी पॉलिश करती  है कि कुछ दिनों बाद भाषा भी उसकी चमक में खो जाती है । जैसे पहले उद्दंड लड़के को देखकर अनुशासित और तथाकथित पढ़नेवाले बच्चे भी सिगरेट पीने लगते हैं ।
        बोली अपना अस्तित्व खुद बनाती है । इसलिए बेबाक होती है । ठेंठ । मुंहफट्ट । ज्यादा सोचती नहीं । किसी के पीछे भागती नहीं । बोली का इफेक्ट भी जबर्दस्त होता है ।   हर सार्वजनिक जगहों पर बोली का कब्जा है । रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, ऑटो स्टैंड, सरकारी दफ्तर या फिर डॉक्टर के क्लिनिक  पर । व्याकरण पर सवार होकर  भाषा  बोलने से काम नहीं होगा । घिघियाते रहेंगे, कोई नहीं सुनेगा ।  जो काम करवाने में भाषा के पसीने छूट जाते हैं, उसे बोली यूं करवा लेती है । रूतबे में रहती है बोली । और जो बोली का रूतबा रहता है, वहीं इसे बोलनेवालों का । यही कारण है कि इसकी लोकप्रियता भी जबर्दस्त  है ।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

दारा सिंह होने का मतलब


 दारा सिंह । कुश्ती का किंग । रूस्तम-ए- हिंद । शायद दुनिया का पहला पहलवान जिसने कभी मात नहीं खाई । जिसने दुनियाभर के पहलवानों को पटखनी दी । स्वामी विवेकानन्द का आध्यात्म और गांधी की अहिंसा को जाननेवाले फिरंगियों को पहली बार दारा सिंह ने ही भारत की शारीरिक ताक़त का अहसास कराया । उस दौर के हर पहलवानों को शिकस्त दी । कॉमनवेल्थ गेम्स हो या फिर विश्व चैंपियनशीप । हर किताब अपने नाम किया । कुश्ती के अखाड़े से निकलकर जब बॉलिवुड में कदम रखा तो लोगों ने विशाल सा सख्त दिखनेवाले इंसान का रोमांटिक चेहरा देखा । रूपहले पर्दे पर हिरोइनों के साथ रोमांस करते करते दारा सिंह हनुमान बनकर लोगों के दिलों में उतरते चले गये । दारा सिंह ने खेल से लेकर सिल्वर स्क्रीन और फिर संसद तक में लोकप्रियता की नई पहचान बनाई । 
       दारा सिंह अब नहीं रहे । कुश्ती किंग ज़िंदगी का आखिरी दांव हार गया । लेकिन कहते हैं कि दारा सिंह कभी मरते नहीं ।  क्योंकि आम लोगों की जिंदगी में दारा सिंह होने का मतलब सिर्फ कॉमवेल्थ गोल्ड मेडलिस्ट या सिल्वर स्क्रीन पर शर्टलेस होने या फिर रामायण में लक्ष्मण के लिए संजीवनी लानेवाले हनुमान भर से नहीं है । बल्कि दारा सिंह होने का मतलब इससे कहीं आगे तक है । आम लोगों के बीच दारा सिंह उपनाम बन चुका है । दारा सिंह होने का मतलब शक्तिशाली, हट्ठा कट्ठा होना है । मां कहती है, खाओगे तभी तो दारा सिंह बनोगे । दोस्त कहता है, लगात है बहुत खाते हो, दारा सिंह टाइप लग रहे हो । और सामनेवाला कहता है कि खुद को दारा सिंह समझ रहे हो क्या । तो इसका सीधा सीधा मतलब बलशाली होने से होता है ।   साफ है कि दारा सिंह आम की बोली से जुड़े हुए हैं । 
        यानी जिस दौर में दिलीप सिंह राणा विदेशी में खली के नाम से बली होने की परिभाषा गढ़ रहे हैं । जमाना सिक्स और एट पैक का है । बतौर बॉडी बिल्डर सलमान खान और जॉन अब्राहम सरीखे अभिनेता का बोलाबाला है । इस दौर में भी अगर उपमान के तौर पर आम आदमी दारा सिंह का नाम लेता है, तो आसानी से समझा जा सकता है कि बेहद आम लोगों के बीच दारा सिंह क्या हैं । 

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

क्या यूपी में जंगल राज नहीं है ?


उत्तर प्रदेश में अपराधी बेलगाम हो चुके हैं । अखिलेश राज के सौ दिनों के दरम्यान राज्यभर में 1149 लोगों की हत्याएं हो चुकी है । यानी औसतन ग्यारह से बारह लोग हर रोज मारे जा रहे हैं । ये नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ें हैं । जमीनी सच्चाई इससे भी ज्यादा डरावनी है । यूपी में कानून व्यवस्था की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देशभर में जितने भी अपराध होते हैं, उसके 33 फीसदी यानी एक तीहाई अपराध सिर्फ यूपी में होता है । जब से अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने हैं, तब से अपराध का ग्राफ और बढ़ा है । हत्या, लूट और बलात्कार की घटनाओं में बेहताशा बढोत्तरी हुई है । ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यूपी में जंगल राज नहीं है ? 
         याद कीजिए उस दौर को जब बिहार में लालू - राबड़ी का राज था । विपक्षी पार्टियां, मीडिया यहां तक कि बड़े बड़े विद्वानों  ने लालू - राबड़ी राज की तुलना, जंगल राज से की थी । उस वक्त पटना, गोपालगंज, सीवान या फिर मुज़फ्फरपुर में दो रूपये के एक अंडे की खातिर पचपन रूपये की गोली मार दी जाती थी । दिन दहाड़े बच्चों को उठा लिया जाता था । लेकिन उत्तर प्रदेश में तो अपराधी इससे भी आगे निकल चुके हैं । यहां तो बहू- बेटियों को सरेराह उठा लिया जाता है । लगभग हर दिन बलात्कार की घटनाएं समाने आ रही है । बलात्कार के बाद लड़कियों को ज़िंदा जला दिया जाता है । लखनऊ, कानपुर, नोएडा और गाजियाबाद से लेकर बहराइच और बाराबंकी तक । हर जगह एक जैसी स्थिति है ।   
         कमोबेश यही स्थिति मायावती राज में थी । अखिलेश ने बेहतर कानून व्यवस्था का वादा किया । बिगड़ी व्यवस्था से आजिज लोगों ने अखिलेश के सच से दिखनेवाले वादों पर भरोसा किया । एक तेज तर्रार पढ़े लिखे युवा के हाथ में सत्ता सौंपी । जिस तरह से प्रशानिक अमलों में फेरबदल हुए, उससे लोगों में बेहतर कानून व्यवस्था की उम्मीद जगी । लेकिन अखिलेश राज में तो मानो अपराधी और बेलगाम होते चले गये । अपराधियों पर सरकार का कोई अंकुश नहीं रहा । आखिर अखिलेश यादव कानून व्यवस्था को दुरूस्त करने में नाकाम क्यों हैं ?  
        दरअसल छात्रों को टैबलेट और लैपटोप देने की योजना बनाने में व्यस्थ अखिलेश सरकार ने अब तक ऐसी कोई नीति नहीं बना पाई है, जिससे अपराधियों को डर लगे । उन्हें कानून का भय हो । जिसमें अपराधियों को गिरफ्तार कर उसे सजा देने का प्रावधान हो ।
          इसकी दूसरी बड़ी वजह सपा के कार्यकर्ता हैं । अखिलेश यादव वो लकीर नहीं खींच पा रहे हैं, जिससे सपा कार्यकर्ता और अपराधी में फर्क हो सके । समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता न तो अखिलेश की बात मानते हैं और ना ही नेताजी यानी मुलायम की । कई बार हिदायत के बावजूद समाजवादी कार्यकर्ताओं की गुंडई थमने का नाम नहीं ले रही है । यहा तक कि कोतवाली के भीतर ही गुंडई शुरू कर देते हैं । उनके सामने पुलिस तक की घिग्घी बंध जाती है । पुलिस का मनोबल गिरता है । और इसी आड़ में दूसरे अपराधियों का डर भी कम होता जा रहा है । 
      यही स्थिति बिहार में लालू यादव के साथ हुई थी । लालू के कार्यकर्ता भी इसी तरह बेलगाम हो चुके थे । जिसका नतीजा लालू और उनके पार्टी को अभी तक भुगतना पड़ रहा है । अगर समय रहते अखिलेश यादव नहीं चेते, तो इनका भी वही हाल होगा, जो लालू का हुआ । 

रविवार, 8 जुलाई 2012

कॉर्पोरेट गरीब


कॉर्पोरेट गरीब। यानी बड़ी कंपनी में कम सैलरी पर काम करने वाला कर्मचारी। ऊंची मत्वाकांक्षा। कुछ पाने की हसरत। मेहनत से सपने को हक़ीकत में बदलने का जज़्बा। आइरन किया हुआ शर्ट-पैंट। चमचमाते जूते। आंखों पर चश्मा। जो हर सुबह समय पर ऑफिस पहुंचता है। दिनभर कम्प्यूटर के साथ हाई प्रोफाइल माथापच्ची करता है। बॉस की गालियां सुनता है। दिल में दर्द लिए मुस्कुराते रहता है। महीने के सात तारीख को टाइट होता है। और आठ तारीख को कंगाल हो जाता है।
महीने के एक तारीख के बाद जेब में सिर्फ आईकार्ड और आने-जाने का भाड़ा रहता है। लेकिन रूतबा वैसा ही। ऑफिस के बाहर गार्ड जब सैल्यूट मारता है तो सीना अड़तालीस इंच चौड़ा हो जाता है। लोगों को पता है बड़ी कंपनी में काम करता है। बड़ा आदमी है। अदब से बात करो। बड़ी मुश्किल होती है। जब दुकानों में पर्सनैल्टी देखकर ऊंचा रेंज वाला सर्ट पैंट दिखता है। मन मसोस कर कहना पड़ता है कि पसंद नहीं है। गर्लफ्रेंड से झूठ बोलते-बोलते परेशान है। हर दिन नया बहाना। किसी तरह सात तारीख आ जाए। अभी तक घर का नालायक बेटा बना हुआ है। पापा को क्या बताएगा कि उनका बेटा कॉर्पोरेट गरीब है।
ऑफिस के कैंटीन में तीन सितारा होटल का मजा। खाते वक़्त नहीं। पैसा देते वक़्त महसूस होता है। जितना पैसा कर्च कर बाहर में दोपहर का लंच कर लूं उतने में नास्ता नहीं होता। बड़ी कंपनी का कैंटीन है भाई। प्राइस भी ऊंची है। दोस्तों के साथ बैठकर मुस्कुराते हुए खा लेता है। दोस्तों को कोई फर्क नहीं पड़ता। ऊंचा पोस्ट। ऊंची सैलरी। खाने के लिए बाहर जाना पर्सनैलटी पर पड़ता है। लेकिन गेहूं के साथ घुन भी पिस रहा है। जेब का दर्द रात में सोते समय यादों के जरिए बाहर आता है। दिल को बहलाता है। समझाता है। बेटा, सब ठीक हो जाएगा। लेकिन कब। कब तक कॉर्पोरेट गरीब बना रहूंगा। पता नहीं।

शनिवार, 7 जुलाई 2012

मैं बेटी हूं...

मैं बेटी हूं
प्यारी सी
नन्हीं सी
छोटी सी
सब मुझे
दुलारते हैं
पुचकारते हैं
गोद में बिठाते हैं
मेरे साथ खेलना चाहते हैं
मेरी मुस्कान पर, हंसते हैं
मेरी आह पर, तड़पते हैं
फिर क्यों मेरी ही जैसी
मेरी बहनों से
भेदभाव करते हैं
क्यों उन्हें
जन्म से पहले मार देते हैं ........ ?

धर्मनिरपेक्षता तो बहाना है...



पिछले कुछ दिनों में  बीजेपी को लेकर जदयू के  तेवर इतने तल्ख हो चुके हैं कि दोनों के रिश्ते पर बन आई है....सोलह साल का साथ कभी भी खत्म हो सकता है...गठबंधन में धर्मनिरपेक्षता की गांठ पड़ चुकी है...
           आखिर नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता की वो कौन सी घेरा बना रहे हैं जिसमें लालकृष्ण आडवाणी, डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती सरीखे नेता तो आते हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी नहीं...बाबरी मस्जिद ढांचा गिराने के आरोपी आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने में कोई आपत्ति नहीं है,,,लेकिन नरेन्द्र मोदी बर्दाश्त नहीं....और सबसे अहम बात कि कट्टरवाद के कोख से जनमे बीजेपी के साथ रहने में भी नीतीश कुमार को कोई गुरेज नहीं है.....
          दरअसल नीतीश कुमार जो धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गढ़ रहे हैं, उसे रानीतिक तौर पर समझना होगा...  1996 से लेकर 2005 तक नीतीश के लिए बीजेपी मजबूरी थी...क्योंकि नीतीश कुमार उस हैसियत में नहीं थे कि वो बीजेपी से इतर अपनी पहचान बना सके.....नीतीश उस वक्त पटना का सपना देख रहे थे...बिहार में कांग्रेस की स्थिति बढ़िया थी नहीं....और लालू के  खिलाफ बीजेपी ताल ठोक रही थी...ऐसे में नीतीश कुमार का बीजेपी के साथ गलबहियां करना मजबूरी थी...ऐसे में अगर 2002 में गुजरात दंगे के वक्त रेल मंत्री रहते नीतीश का मोदी के खिलाफ कुछ न बोलना चौंकाता नहीं है....2010 तक मोदी को लेकर नीतीश कुमार के मन में कोई आपत्ति नहीं थी....लेकिन 2010  चुनाव में 242 सीट वाले विधानसभा में 115 सीट हासिल करने के बाद नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी खटने लगे....गौर करनेवाली बात है कि  2010 में बिहार में ऐतिहासिक जीत के बाद नीतीश कुमार को लेकर प्रधानमंत्री की बात होने लगी,....उन्हें लगने लगा है कि अगर गुजरात के रास्ते मोदी दिल्ली का सपना देख सकते हैं तो फिर बिहार के जरिये मैं क्यों नहीं....और दिल्ली पहुंचने में सबसे बड़ा रोड़ा मोदी बन सकते हैं....राजनीति के शातिर खिलाड़ी नीतीश कुमार गुजरात दंगों का दाग दिखाकर मोदी को रास्ते से अलग करने में लग गये.... 
           जब जब दो मुख्यमंत्रियों की तुलना होती है तो आमने-सामने नीतीश और मोदी होते हैं.....और जानकार दोनों में मोदी को ही बेहतर आंकते हैं...कहीं न कहीं नीतीश को ये बातें  खटकती है....बिहार को बदलने का दावा करनेवाले नीतीश कुमार पिछले सात सालों में कागजी आंकड़ों से इतर वो कुछ नहीं कर पाये जो जिससे गुजरात की जनता से बेहतर बिहार की जनता महसूस कर सके....ऐसे में नीतीश कुमार को लगता है कि  जो छवि बनाना चाहते हैं वो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के बाद ही हो सकता है....और इसके लिए कांग्रेस से मिलना ही फायदेमंद रहेगा... 
          एक और अहम बात....नीतीश कुमार ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि अगर बिहार में बने रहना है कि मुस्लिमों को नाराज नहीं कर सकते....क्योंकि सामने लालू खड़े हैं...मुस्लिमों के लिए मोदी का विरोध करना भी नीतीश के लिए मजबूरी है......यही कारण है कि धर्मनिरपेक्षा की वो परिभाषा गढ़ रहे हैं,,,,जिसमें दूर दूर तक नरेन्द्र मोदी फिट ना बैठ सके......