सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

आरक्षण...एक खोज !


जाति उद्धारक को सुखस्वप्न आया। स्वप्नदेव ने बताया कि तुमलोगों के अच्छे दिन आरक्षण के रूप में सड़क पर घूम रहा है। सरकार की निगरानी में है। जागो, उठो और अपना हक़ छीन लाओ। फिर देखना, अगली इक्कीस पीढियों तक तुम्हारे आंगन में अच्छे दिन अठखेलियां करेंगे। पुश्त-पुश्त तक का कल्याण हो जाएगा। भारत वर्ष में अनंतकाल तक तुम्हारी जाति खुशियों से खेला करेंगी। दुख, दर्द सब खत्म हो जाएंगे।

जाति उद्धारक वो दिग्पुरूष सुबह उठा और कुछ ऐसे लड़कों को इकट्ठा किया जो घरों में मुफ्त की रोटियां तोड़ रहे थे। बाजार में, सड़कों पर लफंगगीरी को मुकाम पर पहुंचा कर खुद को साबित कर चुके थे। जाति उद्धारक ने उन लड़कों को समझाया कि वक्त आ गया है कि अब समाज के लिए कुछ करना है। जाति उद्धारक ने ये भी समझाया कि आरक्षण को खोजते वक्त डरना मत। जेल जाओगे या फिर मारे जाओगे तो युगपुरूष कहलाओगे। लड़कों को भी उसकी बात समझ में आ गई। नया काम मिल गया। जिसमें कहानी भी थी। एक्शन भी था। और इमोशन भी। यानी नया एसाइनमेंट।  
         रातभर रणनीति बनी। और सुबह से सभी अपने काम पर लग गए। आरक्षण को खोजने लगे। सबसे पहले सड़कों पर खोजा। नहीं मिला। बस, ट्रक, ऑटो, जीप वालों को रोक रोकर उसमें ढूंढ़ा तो भी नहीं मिला। तभी किसी ने बताया कि उसने आरक्षण को रेलवे स्टेशन की तरफ जाते देखा है। सो, दौड़ पड़े स्टेशन की तरफ। वहां भी ट्रेनें रोककर तलाशी ली गई। लेकिन हाथ खाली। फिर जाति उद्धारक टोली में से किसी ने कहा कि हो सकता है कि आरक्षण पटरियों के नीचे छिप गया हो। आरक्षण खोजी दस्ते की एक टीम ने पटियां उखाड़ दी। लेकिन होता तब न मिलता।



           जाति उद्धारक टोली के एक चालाक, बुद्धिजीवी ने बताया कि एक टीम अभी से पटरी पर बैठ जाओ ताकि आरक्षण चोरी छिपे ट्रेन से भाग न जाए। वही हुआ। कुछ लोगों ने वहीं डेरा जमा लिया। वैसे अच्छा हुआ कि उस बुद्धिजीवी के दिमाग में हेलिकॉप्टर से आरक्षण के भागने का ख्याल नहीं आया।
          खैर, आरक्षण खोजी दस्ते की अब कई टीमें बन चुकी थी। वे लोग फिर शहर की तरफ लौटे। जहां कहीं उन्हें लगा कि आरक्षण छिपा हो सकता है, वहां तोड़-फोड़ कर उसे गिरा दिया। कई दुकानें टूट गई। घर तोड़ दिए गये। गाड़ियां तोड़ दी गई।


         तब तक शाम ढलने लगी थी। लड़कों को लगा कि कहीं अंधेरे में छिप तो नहीं गया आरक्षण। सो उन्होंने तुंरत जेब से माचिस निकाली और सामने खड़ी बाइक में आग लगी दी। किसी ने कहा कि अगर रोशनी की चाहिए तो बड़ गाड़ी में आग लगाओ। एक लड़के ने बस को फूंक दिया। तो इस बीच कुछ टैलेंटेड लड़कों ने मॉल को ही आग के हवाले कर दिया ताकि रोशनी चारों तरफ फैल जाए। तभी एक बुजुर्ग को ख्याल आया कि स्कूल में तो पहले से ज्ञान की ज्योति जलती है। इसमें आग लगा दें तो सोचिए और कितना प्रकाश होगा। सो उन्होंने स्कूल को ही फूंक दिया। लेकिन मासूम उम्मीदों को कहीं मंजिल नहीं मिली।
             आरक्षण की आकांक्षा में आकंठ डूबे लड़कों और उसके अगुवा को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। सरकार आंख-मिचौली खेल रही थी। बेगारी का ताना सुन सुनकर परेशान कुछ लड़कों के लिए ये सुनहरा मौका था। अपनी ज़िंदगी को साबित करने के लिए। लेकिन वो भी हाथ से जाता दिख रहा था। टीवी पर फोटो जरूर आ रहे थे। लेकिन वो तो समाज के युगपुरुष में शुमार होने को आतुर थे। इसके लिए कुछ करने को तैयार।


           इस बीच राज्य के अलग-अलग हिस्सों से मौत की ख़बरें आने लगी। हालांकि बांके छोड़े पीछे हटने को तैयार नहीं थे। लेकिन सरकार ने इस बीच राष्ट्रीय साजिश कर दी। सेना को बुला लिया। आरक्षण पर सेना का पहरा पड़ गया। जातिउद्धारक दिगपुरुष ने लड़कों को समझाया। कहा कुछ दिन लिए ठहर जाओ। फिर शुरू करेंगे आरक्षण की खोज। जब तक मिलेगा तक नहीं तब तक लड़ते रहेंगे, उसे खोजते रहेंगे।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

रवीश के बहाने सोचिएगा जरूर !

आप जितना चाहें गरिया लीजिए रवीश कुमार को। फेसबुक, ट्विटर पर कोई भले ही आपको टोकने वाला नहीं हो। या फिर आपको टोकनेवाले से ज्याद आपके हां में हां मिलानेवालों की तादाद हो। लेकिन जब एकांत में बैठिएगा या फिर सुतते समय एक बार जरूर सोचिएगा कि कौन-कौन सी सच्ची बातें वो कह गया आपके बारे में। वो भी बेहद शालीन शब्दों में। जाहिर है कि उनकी कही सारी बातें सच नहीं होगी। लेकिन उस काली स्क्रीन पर चमकते सफेद और अंडर लाइन किए गए लाल-लाल शब्दों के पीछे से आती आवाज़ में कुछ तो बातें थी, जो आपके दर्द को बढ़ा गई। टीवी पर दिखने वाले वीडियो के पीछे से आती उग्र और भड़कानेवाले शब्दों को गढ़नेवाले स्क्रिप्ट राइटर हों या फिर टीवी पर छोटी-छोटी कुछ खिड़कियों के बीच एक बड़ी से खिड़की से झांककर सवाल पूछनेवाले। आप भी अपने आप से पूछिएगा, जब आप किसी जूनियर को कहते हैं कि किसी मुद्दे पर हाहकारी पैकेज लिखो। ठंड और गर्मी में ऐसा पैकेज लिखो कि देख-सुनकर लोग डर जाएं। काली स्क्रिन के पीछे से आती वो आवाज़ आपके लिए भी है। जो आप नई पौध को नफरती और भारी भरकम डरवाने शब्दों से सींचकर बड़ा करते हैं। अच्छा होगा अगर आप इसे वामपंथी या दक्षिणपंथी चश्मे को उतार कर देखेंगे। क्योंकि बड़े-बड़े गमछाधारी वामी पत्रकार भी हैं जो अपने धारदार शब्दों से लोगों को डराने के लिए मशहूर हैं। काली स्क्रिन के पीछे से गूंजते वो शब्द उनके मुंह पर भी करारा तमाचा है। रवीश के ये शब्द उन पत्रकारों के लिए भी है, जो लंबी-चौड़ी कहानी को काट छांटकर एक शब्द के ऊपर आधे घंटे का प्रोग्राम बुन लेते हैं। रवीश खुद क्या हैं मुझे पता नहीं। उनका क्या एजेंडा है, इससे भी मतलब नहीं। लेकिन उस टिमटिमाती स्क्रिन पर कुछ तो था। फिर एक बार कहता हूं कि गुस्साइएगा मत। सोचिएगा। सही लगे तो चुप रहिएगा। या फिर सवाल पूछिएगा तो और उम्दा। क्योंकि पत्रकार हैं तो सवाल पूछना लाजिमी है। लेकिन ध्यान रहे, पहला सवाल खुद से पूछिएगा कि जो आप लिख रहे हैं, कह रहे हैं, उसमें जो विशेषण लगा रहे हैं वो कितना उचित है। और लास्ट में ये कि वे वरिष्ठ पत्रकार/ पूर्व संपादक खुद से जरूर आज माफी मांग लीजिएगा, जिन्हें आज रवीश की बातें तो बड़ी अच्छी लग रही है, लेकिन जब खुद फैसला लेने वाले होते हैं तो सबकुछ ताक पर रख देते हैं। बाकी, गलती-सलती माफ कीजिएगा।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

बाय-बाय बस्सी सर !

डियर बस्सी सर,
आपकी विदाई का वक्त तय हो चुका है। आप जल्द ही अपने पद से रुखसत हो जाएंगे। जैसा कि ख़बरों में आ रहा है कि रिटायरमेंट के बाद आप किसी दूसरे दफ्तर की शोभा बढ़ानेवाले हैं। अच्छी बात है। भगवान आप की जैसी किस्मत हर किसी को दे। नौकरी के साथ भी, नौकरी के बाद भी। वैसे अच्छा तो यही रहता है कि उम्र के इस पड़ाव में आप अपने परिवार के साथ समय बिताते, लेकिन काम का ईनाम किसे अच्छा नहीं लगता। आपको भी अच्छा लग रहा है, आगे भी लगेगा।

आप ने जिनकी विरासत संभाली थी, उनके अंतिम वक्त में लोग उनसे लोग बेहद निराश थे। उन्होंने कुछ ऐसा काम किया, जो कहीं से भी जायज नहीं था। कई बार ऐसा लगा कि नीरज कुमार को हटा दिया जाएगा, लेकिन उनके ऊपर किसकी मेरहबानी थी पता नहीं, (चर्चा तो कई नामों की थी) लेकिन उन्होंने अपना टर्म पूरा किया और आपको अपनी विरासत सौंप दी।

मुझे याद है जब कुर्सी संभालते ही तमाम टीवी चैनलों पर आपका रौबदार इंटरव्यू चला था। आपके कड़क कामों की चर्चा चारों तरफ हो रही थी। ऐसा लग रहा था कि मानों अब सबकुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन बाद में अहसास हुआ कि दिल्ली पुलिस कमिश्नर की कुर्सी में ही कुछ गड़बड़ है। धीरे-धीरे दिल्लीवालों को ऐसा लगने लगा कि आपका ध्यान दिल्ली की सुरक्षा में कम और पोस्ट रिटायर्मेंट प्लान पर ज्यादा है। दिल्ली में न रेप कम हुआ। न हत्याएं, लूट कम हुई। न सड़क पर झंडे लेकर दौड़ते लोगों के ऊपर पुलिसवालों के डंडे कम हुए। आप कहीं से भी जनता के नहीं हो सके। ऐसा क्यों।

आप क्यों कमजोर हो गए थे। हिंदुस्तान में अब भी पुलिस कमिश्नर का ओहदा बहुत बड़ा होता है। आप चाहते तो एक लकीर खींच सकते थे। लेकिन अंतिम वक्त आते-आते आपको लेकर जो धुंधली सी गलतफहमी थी वो भी खत्म सी होती गई। ऐसा लग रहा है कि जैसे दिल्ली पुलिस का कमिश्नर एक कठपुतली होता है, जो गृहमंत्रालय के इशारों पर खुद भी नाचता है और दूसरों को भी नचवाता है।

कितने सबूत मिलने के बाद और किसके कहने पर आपने जेएनयू से छात्र नेता कन्हैया कुमार को पकड़ लाये मुझे पता नहीं। लेकिन दिल्ली की बीच सड़क पर एक लड़के को दौड़ा-दौड़ा कर पटक-पटकर मारने वाले विधायक को आपने छूने तक की हिम्मत क्यों नहीं की। पीटते हुए वीडियो है। वो विधायक सरेआम कह रहा है कि मैंने उस लड़के को पीटा है। ये भी धमकी दे रहा है कि आगे भी पीटेंगे और आपने उसे पूछताछ के लिए हिरासत में लेने तक की हिम्मत नहीं की। आपने उन वकीलों को पकड़ने की हिम्मत क्यों नहीं कि, जिन्होंने पत्रकारों को पीटा। आपकी पुलिस तो सबकुछ देख रही थी।

आप किसको धोखा दे रहे हैं। लोगों को। वर्दी को या फिर खुद को। मुझे ये समझ नहीं आता कि आप जैसे लोगों के मन में ये सवाल क्यों नहीं आते। अगर आते हैं तो बार-बार क्यों नहीं आते। अगर बार-बार आते हैं तो खुदको खुदसे इसका जवाब क्या और कैसे देते हैं।

अब तो आप जा ही रहे हैं। दिल्ली आपकी इस स्तरहीन अदा को कभी नहीं भूलेगी। दिल्ली याद रखेगी कि नीरज कुमार के बाद भीम सिंह बस्सी नाम का एक दंतहीन, विषहीन व्यक्ति पुलिस कमिश्नर बना था। जाते-जाते आप अगर ये बता जाते कि सरकार आप पर क्यों मेहरबान हुई है तो अच्छा लगता। लेकिन इतने कठिन प्रश्नों का जवाब नहीं दिया जात। खैर, अबकी बार जहां जाइएगा, वहां कुछ ऐसा जरूर कीजिएगा कि लोग आपसे इस तरह के सवाल न पूछे। चलते-चलते आपके अगले एसाइनमेंट के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।
धन्यवाद

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

मोदी जी क्यों मौन हैं?

रोहित वेमुला ने खुदकुशी कर ली। एक नौजवान मर गया। जिम्मेदार कौन है। पता नहीं। साथी कह रहे हैं कि हत्या हुई है। जिम्मेदारी तय करो। लेकिन सरकार के मंत्री उसकी जाति तय करने में अपनी पूरी एनर्जी खर्च कर रहे हैं। मोदी जी मौन हैं।

रोहित के साथी हैदराबाद यूनिवर्सिटी में अनशन पर बैठे हैं। उन्हें इंसाफ चाहिए। जिद पर अड़े रोहित के दोस्तों की हालात खराब होती जा रही है। लेकिन सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें कोई पूछनेवाला नहीं है। मोदी जी मौन हैं।

दिल्ली में कुछ लडके-लड़कियों को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस वाले वहशी बन गए। कुछ ख्याल नहीं रहा। लड़कों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। लड़कियों पर टूट पड़े। जैसे वे कॉलेज के बच्चे नहीं, आतंकी हों। पुलिस रक्षक नहीं, मवाली हो। देश की राजधानी में, प्रधानमंत्री के ऑफिस से कुछ किलोमीटर की दूरी पर, आरएसएस दफ्तर के बाहर नौजवानों को बेहिसाब मारा गया, लेकिन मोदी जी मौन हैं।

इसी दिल्ली में एक बड़े प्राइवेट स्कूल में एक मासूम मर गया। एक परिवार अपने बेटे की मौत का हिसाब मांग रहा है और लापरवाह स्कूल की प्रिंसिपल कह रही है कि बच्चा मेंटली डिस्टर्ब था। गज़ब की बेशर्मी है। हाहाकार मच जाना चाहिए था। धरती फट जानी चाहिए थी। लेकिन बीच बाज़ार में खड़े स्कूल की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। नई पौध पर आफत है और मोदी जी मौन हैं।

लखनऊ में मेडिकल की पढ़ाई कर रही एक बेटी ने खुदकुशी कर ली। क्योंकि एक लड़का उसे छेड़ता था। सारिका ने हर किसी से मदद की गुहार लगाई थी। लेकिन न तो सरकार ने सुनी और न ही पुलिस अफसरों ने। सारिका ने खुदकुशी कर ली। न बेटी पढ़ पाई, न बेटी बच पाई। लेकिन मोदी जी मौन हैं।

ये तो उन कुछ लोगों की कहानी है, जिनकी चर्चा टीवी चैनलो पर हो रही है। जिनके किस्से अख़बारों में छप रहे हैं। लेकिन पिछले एक महीने के दौरान नौजवानों, बच्चों की हत्या की ये कोई दो-चार घटनाएं नहीं हुई है। यूपी के गांवों में हर रोज हैवानियत का शिकार होनेवाली बेटियां तो ख़बर भी नहीं बन पाती है। सरकार की नज़र कहां तक जाएगी उन पर।

हमारे एनर्जेटिक प्रधानमंत्री को नौजवानों में देश का भविष्य दिखता है। वो नौजवानों को देश की पूंजी बताते हैं। देश की शक्ति कहते हैं। तो फिर देश की ताकत को कौन खत्म कर रहा है। बच्चों, नौजवानों को कौन मार रहा है। देश का भविष्य बर्बाद करनेवाला कौन है ? मोदी जी क्यों मौन हैं ?