शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

जल-प्रलय

जल ही जीवन है। लेकिन तब तक जब तक वो आंखों में रहे। तालाबों में रहे। कुएं में रहे। पाताल में रहे। समुद्र में रहे। जब पानी हद से बाहर निकल जाता है। जब पानी सड़क पर सैलाब बनकर दौड़ने लगता है। जब पानी नाली से निकलर गली में बहने लगता है। जब पानी बाथरूम से इतर बेडरूम तक पहुंच जाता है। ऐसे में प्रलय आ जाता है। जिसे जल-प्रलय कहते हैं। बहुत कुछ बर्बाद हो जाता है। बहुत कुछ खत्म हो जाता है। बहुत कुछ डूब जाता है। डूब जाती हैं ख्वाहिशें। डूब जाती हैं उम्मीदें। डूब जाते हैं सपने। बच जाती है तबाही। बर्बादी के निशान बच जाते हैं।

जल तांडव का शिकार हुआ है एक और शहर। त्रासदी को झेल रहा है एक और शहर। 
अथाह दर्द में डूबा हुआ है एक और शहर। दर्द से कराह है एक और शहर। छाती पीट रहा है एक और शहर। जिसके कोने-कोने में पानी घुसा हुआ है। गली-गली डूबी हुई है। कार पानी में बह रही है। बेडरूम में भी पानी है। किचन में भी पानी है और टॉयलेट में भी। छत को छूने के लिए बेताब है पानी। लोगों को लील लेने के लिए आतुर है ये पानी।लोग कहां जाए। कैसे जान बचाए। लोगों की आंखों की नींद गायब है। पानी का बुलबुला डरा रहा है। बादल की तड़तड़ाहट घबराहट बढ़ा देती है। पता नहीं कब आफत बरसने लगे।  

ये चेन्नई शहर है। चमकते हुए अतीत को सीने में समेटकर खड़ा एक शहर। लेकिन वर्तमान इसके अतीत से ज्यादा डरावना है। चेन्नई के चारों तरफ तबाही लिपटी हुई है। ऐसी तबाही जो लोगों को डरा रही है। वैसे तो कई जल तांडव देखे हैं इस शहर ने। 1969 से लेकर 1998 और 2005 तक की बारिश देखी है इस शहर ने। आसमान से ऐसी आफत कहां बरसी थी उस साल भी। तब ऐसी तबाही कहां आई थी। इस बार जो हो रहा है, वो इस शताब्दी में कभी नहीं हुआ। पिछले 100 सालों में पानी ने कभी ऐसा कहर नहीं बरपाया था। पूरी पीढ़ी ने कभी ऐसी बाढ़ नहीं देखी। ऐसी बर्बादी नहीं देखी थी। चमकता हुए एक शहर पानी में आकंठ डूब गया।

चारों तरफ पानी ही पानी है। घर में पानी। आंगन में पानी। सड़क पर पानी। बस स्टैंड में पानी । रेलवे ट्रैक पर पानी। हवाई अड्डे पर पानी। दफ्तर में पानी। स्कूल में पानी। कॉलेज में पानी। खेतों में पानी। पानी में डूब चुका है सबकुछ। जिंदगी बचाने वाला पानी जिंदगी के लिए सबसे बड़ी परेशानी बन चुका है। विनाशकारी बन चुका है पानी। त्राहि-त्राहि कर रहे हैं लोग। लोगों को कुछ सूझ नहीं रहा है। करें तो करें क्या। खुद बचें या अपनों को बचाएं या फिर दूसरों को सहारा दें। 

क्या बच्चे। क्या महिलाएं। क्या जवान। क्या बुजुर्ग। क्या जिंदगी। क्या सामान। क्या गाड़ी। क्या मकान। किस-किस का हिसाब चाहिए। किसी का नहीं है। कौन कहां है, कुछ पता नहीं। न मोबाइल में बैट्री बची है। न कंप्यूटर चल रहा है। न ही लैंडलाइन काम कर रहा है। किसी का हालचाल जानना भी मुश्किल है। अब सोशल साइट्स के जरिए लोग अपनों को बचाने की गुहार लगा रहे हैं। किसी का रिश्तेदार व्हाट्स पर मैसेज कर रहे है। तो किसी का रिश्तेदार फेसबुक पर लिखकर अपनों के फंसे होने की बात बता रहा है। कोई ट्वीट कर बता रहा है कि मेरा रिश्तेदार अमूक जगह पर फंसा है, प्लीज बचा लीजिए। बड़ी मेहरबानी होगी।

चारों तरफ बर्बादी बिखरी पड़ी है। आसमान की तरफ लोग निहारते रहते हैं। खाने के पैकेट लिए मुंह ताकते रहते हैं लोग। छतों पर लोग टकटकी लगाए खड़े रहते हैं मदद के लिए। पता नहीं कौन देवदूत बनकर आ जाए। पता नहीं कौन सहारा बनकर मुसीबत की बाढ़ से बाहर निकालने के लिए आ जाए।  

बच्चों को दूध नहीं मिल रहा है। बुजुर्गों को दवाइयां नहीं मिल रही है। हजारों लोग भूखे हैं। कई दिनों से खाना नहीं मिला। कपड़े नहीं हैं। एक-दूसरे को दिलासा देकर जिंदा हैं। एटीएम के अंदर पानी घुसा हुआ है। बंद पड़ी हुई है पैसा निकालने वाली मशीन। लोग क्या करें।  

मौत की कोई मुकम्मल तादाद नहीं है। सिर्फ अनुमान है। करीब 270 लोगों की जिंदगी दस्तावेज बन चुकी है। लगातार लोगों की मौत का आंकड़ा बढ़ रहा है। तबाही का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अब तक 20 हज़ार करोड़ से ज्यादा का नुकसान हो चुका है। जब असल तस्वीर सामने आएगी तो स्थिति और भी भयाहवह होगी। 

सड़क समंदर बन चुका है। सड़कों पर कारें खिलौने की तरह बह रही है। कागज की कश्ती की तरह लोगों  के सामान बह रहे हैं। जिस तरफ देखिए...सिर्फ बर्बाद ही नजर आएगी। जिंदगी बचाने की जद्दोजेहद जारी है।

चेन्नई के डूबते हुए लोगों के लिए सेना अब सहारा बनकर उतरी है। बॉर्डर पर लड़नेवाली सेना कुदरती दुश्मन से दो-दो हाथ कर रही है। लोगों की जिंदगी बचाने के लिए सेना के जवान दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। लोगों को महफूज जगहों पर पहुंचा रहे हैं। सेना के 434 जवान राहत कार्यों में लगे हुए हैं। NDRF की 30 टीमें लोगों की जिंदगी बचाने में जुटी है।  इंडियन एयरफोर्स के C-17 एयरक्राफ्ट से फंसे हुए लोगों को निकाला जा रहा है। नौसेना का जहाज़ INS एरावत भई राहत सामग्री पहुंचा रहा है।

बाढ़ से सरकार भी सन्न है। चेन्नई की बर्बादी की आहट दिल्ली तक पहुंच चुकी है। बैठकों का दौर जारी है। संसद में सवाल-जवाब हो रहे हैं। संवेदनाएं जताई जा रही है। प्रधानमंत्री खुद हालात देख आए हैं। हर संभव मदद का भरोसा दिया है। 

उम्मीद है धीरे-धीरे पानी सूख जाएगा। जिंदगी पटरी पर लौटने लगेगी। लोग फिर से अपनी जिंदगी का तानाबाना बुनने लगेंगे। लेकिन घाव सालों तक हरे रहेंगे। बाढ़ की ये बर्बादी सीने में सूल की तरह चुभता रहेगा। एक सवाल बार-बार कौंधता रहेगा कि एक चमकता हुआ शहर क्यों बर्बाद हो गया। चेन्नई में जल तांडव क्यों हुआ। चेन्नई में क्यों अचानक बाढ़ आई। क्यों बिन बुलाए मुसीबत ने लोगों को बचने का मौका नहीं दिया। आप भी इसके बारे में सोचिएगा जरूर। क्योंकि इस मुसबीत को बुलाने वाले हम और आप ही हैं। इसे देखकर संभल जाइए। नहीं तो अगला शहर आपका भी हो सकता है। न तो हम आपको डरा रहे हैं और न ही नसीहत दे रहे हैं बल्कि असलियत बता रहे हैं। 

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

खतरनाक है असहिष्णुता की सियासत

   असहिष्णुता आखिरकार संसद की चौखट तक पहुंच ही गई। यानी अब दोनों सदनों में असहिष्णुता को मथा जाएगा। सरकार और विपक्ष के बीच बहस होगी। भावनाओं की चाशनी मे लपेटकर आंकड़ों और तर्कों की सियासत होगी। निकलेगा क्या ये सबको बता है। 
    सवाल उठता है कि अचानक कैसे लोगों को लगने लगा कि देशभर में चारों तरफ खौफ ही है। हर घर के बाहर हाथ में खंजर लिए लोग मारने के लिए खड़े हैं। सांस लेने तक में तकलीफ हो रही है। इमरजेंसी से भी बदतर हालात हो गए हैं। उससे भी बड़ा सवाल ये है कि अखलाक को पीट-पीटकर मारने की घटना के बाद क्या देशभर का माहौल इतना बिगड़ गया कि आमिर खान सरीखे लोगों को भी डर लगने लगा। क्या फरीदाबाद में दलित परिवार को जिंदा जलाने की घटना से देशभर के लोग डर गए। या फिर कलबुर्गी की हत्या ने देश को हिंसक बना दिया। 
    याद कीजिए 1999 में उड़ीसा में इसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस को जिंदा जला दिया था दारा सिंह ने। दारा सिंह भी हिंदूवादी संगठन से ताल्लुक रखता था। ग्राहम स्टेंस के साथ मरनेवालों में उसके दो मासूम बच्चे भी थे। क्या उससे भी खौफनाक घटना थी अखलाक की हत्या। लेकिन उस वक्त असहिष्णुता की कहीं चर्चा नहीं हुई। याद कीजिए उस दौर को जब बिहार में दलितों का नरसंहार हुआ था। क्या तब देश सहिष्णु था। 
   2014 के आंकड़े बताते हैं कि यूपी में रेप की हर दिन औसतन 10 घटनाएं होती है। रेप की शिकार ज्यादातर लड़कियां दलित या फिर अल्पसंख्यक समुदाय से होती है। लेकिन इसको कभी सहिष्णुता से जोड़ा नहीं जाता। आंकड़ा टटोलिये तो आपको दिखेंगे कि कैसे देशभर में आरटीआई कार्यकर्ता मौत के घाट उतार दिए जाते हैं। कहीं चर्चा नहीं होती। फिर अचानक एक साल में कैसे बुद्धिजीवियों को फासीवाद दिखने लगा। देश असहिष्णु दिखने लगा। 
    दरअसल ये सोशल मीडिया का कमाल है। जहां बात तो आग और तेल से भी ज्यादा तेजी से पसरती चली जाती है। लोग अपने-अपने तरीके से बेरोक-टोक विश्लेषण करने लगते हैं। बात को शांत करने की बजाय उसे बतंगड़ बनाया जा रहा है। आमिर खान के घर के बाहर अगर हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रहे हैं तो इस बात को ऐसे बताया जा रहा है कि जैसे पहले कभी हुआ ही नहीं। सवाल उठता है कि क्या इससे पहले कभी शाहरुख, आमिर या फिर सलमान खान के पोस्टर नहीं फाड़े गए। या फिर इनके फिल्मों का विरोध नहीं हुआ? क्या इससे पहले कभी शाहरुख या आमिर खान को अतिवादियों ने पाकिस्तान जाने की बेशर्म नसीहत नहीं दी? शिवसेना सरीखे संगठन, प्राची, साक्षी, योगी जैसे लोग कई बार इस तरह की बेहूदी बातें कर चुके हैं। क्या तब लोगों को डर नहीं लग रहा था ? दरअसल ये कैमरा और फ्लैश के जरिए टीवी पर शब्दों और चेहरों के चमकने का दौर है। ये वो दौर है जहां समाज और देश से इतर राजनीति साधने की सियासत हो रही है। 
  इस सब के बीच सब से डरावनी बात ये है कि असहिष्णुता को लेकर जो लकीर खींच दी गई है, उसके संकेत भविष्य के लिए बहुत बेहतर नहीं है। इसपर सियासत थमने वाला नहीं है। क्योंकि जो सवाल उठाए जा रहे हैं, पुरस्कार वापसी से लेकर साहित्यकारों, कलाकारों और फिर नेताओं की जुबान से जो डर और खौफ की बातें हो रही है, उन बातों को सियासत अपनी तरीके से भुनाने में लगी है। बिहार चुनाव के बाद ठंडा पड़ चुके इस मुद्दे पर जब आमिर खान ने सवाल उठाया तो बात संसद तक पहुंच गई। विपक्ष ने असहिष्णुता पर चर्चा के लिए सरकार को नोटिस थमा दिया। 
  यकीन मानिए। संसद से लकेर टीवी चैनल के स्टूडियो में इसको लेकर कितनी भी चर्चा करवा लीजिए। ये मुद्दा थमने वाला नहीं है। क्योंकि कांग्रेस और विपक्ष को लगता है कि उसे असहिष्णुता नाम का एक ब्रह्मास्त्र मिल गया है। जिसके जरिए मोदी सरकार को डिगाया जा सकता है। बिहार में इसका उदारहण भी मिला। असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी को लेकर छिड़ी बहस के बीच हुए बिहार चुनाव में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी। याद होगा कि इससे पहले दिल्ली के चुनाव के वक्त भी चर्च पर हमला जैसा मुद्दा गरम था। 
  यानी सियासत अब ऐसे ही मुद्दों के आसरे आगे बढ़ेगी। मुमकिन है कि इससे भी इतर ऐसे मुद्दे उछाले जाएं तो सियासत को जरूर साधनेवाला हो, लेकिन देश की जड़ को नुकसान पहुंचाए। क्योंकि जो अभी विपक्ष में हैं, वो कभी सत्ता में होंगे, और जो सत्ता में हैं, वो विपक्ष में होंगे। उस वक्त भी बड़े-बड़े साहित्यकार और कलाकर किसी और मुद्दे पर बोलने के लिए हाथ में पुरस्कार लेकर खड़े होंगे। यानी सियासत का जो दौर चल पड़ा है वो सामाजिक असहिष्णुता से ज्यादा डरावना और असहिष्णु है।

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

अतुल्य भारत या असहिष्णु भारत?

डियर आमिर खान,
आपका प्रशंसक होने के नाते आपका यूं विवादों में आना मुझे अच्छा नहीं लगा। आपको पता है कि असहिष्णुता एक विवादित मुद्दा है तो फिर आपको इस पर बोलने से बचना चाहिए था। आपके रहते मुझे देश में असहिष्णुता का कोई दूसरा उदाहरण नहीं खोजना पड़ेगा।  पिछले साल आपकी फिल्म pk आई थी। फिल्म  में हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया गया था। बावजूद इसके  ये फिल्म रिलीज हुई। सबने देखी। खूब कमाई की। करोड़ों हिंदू-मुस्लिम की तरह मैंने भी आपकी फिल्म देखी थी। मनोरंजन के लिए। अच्छा लगा था। सच तो ये है कि आप जैसी शख्सियतों को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखना भी बेईमानी है। 

आप भी इस बात से इनकार नहीं करेंगे कि अगर ऐसा मजाक किसी दूसरे धर्म के देवी-देवताओं के बारे में होता तो फिल्म कतई रिलीज नहीं हो पाती। फिल्म के एक्टर-प्रॉड्यूसर का  सिर कलम करनेवालों पर करोड़ों का ईमान रखा जाता । कुछ भी हो सकता था। चार्ली एब्दो तो आपको याद ही होगा। लेकिन आपके देश में ऐसा कुछ नहीं हुआ। लोगों ने आपको सिर आंखों पर बिठाया। फिल्म ने रिकॉर्ड तोड़ कमाई की।
  
आप देश के ब्रांड  हैं। टीवी पर आपको हमेशा से भारत की खूबियों का वर्णन करते देखा है। आप ही के मुंह से पहली बार अतुल्य भारत शब्द सुना था। पता नहीं उसमें दिखनेवाले किरदर असल में होते हैं, या यू हीं बनाए जाते हैं। जो भी हो, अच्छा लगता है। फिर अचानक जब आपके मुंह से देश में असहिष्णुता वाली बात सुनी तो अजीब लगा। जो शख्स एक तरफ भारत की खूबियों का बखान करते फिरता है, वो अगर कह रहा है कि असहिष्णुता बढ़ी है तो इसका असर देश की छवि पर तो पड़ेगा ही न। ये आप भी जानते हैं। 

हम आपको सत्यमेव जयते में विश्वास रखने के लिए जानते हैं। आप हमेशा से देश की समस्याओं को लेकर सवाल उठाते रहे हैं। हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री का आवास आपकी पहुंच से दूर नहीं है। देर या सवेर आप जब चाहेंगे प्रधानमंत्री से मुलाकात कर सकते हैं। उनके प्रधानमंत्री बनते ही आपने उसने मुलाकात की थी। अगर वाकई में आपको ऐसा लग रहा है कि देश में असहिष्णुता बढ़ी है तो आप उनसे मिलकर अपनी चिंता बता सकते थे। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। मीडिया में जाकर बातें रखी। जबकि आप जानते हैं कि मीडिया में बोलने से सिर्फ बवंडर होगा। कोई हल नहीं। 

आपने बीवी का नाम लेकर देश में असहिष्णुता की बात कही है।  घर-परिवार में बहुत सारी बातें होती है। जब देश में सहिष्णुता को लेकर बहस चल रही है, आपका बॉलीवुड भी इससे अछूता नहीं है तो जाहिर है कि आपके घर में भी इसपर चर्चा जरूर हुई होगी। लेकिन इस बात को जब आप मीडिया के सामने कहते हैं तो बात बढ़ जाती है। लोग इसको अपाकी विचार से जोड़कर देखने लगते हैं।  

आपको देश से जुड़े तमाम मुद्दों पर बोलते देखा है। सुना है। याद है जब आप नर्मादा बचाओ आंदोलन में धरने पर बैठने पहुंच गए थे। और भी अच्छा तब लगा था जब आप अन्ना के मंच पर पहुंचे थे। इसी तरह अगर आप देश में बढ़ती महंगाई को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ मुहिम चलाते तो अच्छा लगता। 

खैर, अब आपके समर्थन में कुछ लोग बोलेंगे। कुछ आपके विरोध में। मीडिया को मसाला मिल गया है। टीवी पर बहस होंगी। अखबारों में एडिटोरियल छपेंगे। सोशल साइट्स पर भी बड़ी-बड़ी बाते होंगी। इससे किसे फायदा होगा ये कहने की जरूरत नहीं है, लेकिन देश को जरूर घाटा होगा। इस पर एक बार सोचिएगा जरूर। बाकी, आपकी अगली फिल्म का इंतजार है, हमेशा की तरह। 

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

कुत्तों के 'अच्छे दिन' आ गए !

भले ही कुत्ते को इंसान ने सबसे पहले पालतू बनाया हो। लेकिन इतना सम्मान आज तक कभी नहीं मिला। मनुष्यों के संपर्क में आने से लेकर अब तक कुत्ता सिर्फ कुकुर था। पालतू जानवर था। जो लोगों पर भौं-भौं करता था। जो अपने मालिक के आगे-पीछे दूम हिलाते फिरता था। लेकिन कुत्ता अब वो कुकुर नहीं रहा जो आप समझते रहे हैं। कुत्तों के अच्छे दिन आ गए हैं। कुत्ता प्रजाति अपने स्वर्णिम काल में प्रवेश कर चुकी है। 
कुत्ते की कितनी प्रजातियां हुई। जगंली से हाई ब्रिड हो गया कुत्ता। घर में पलंग पर सोने लगा कुत्ता। गाड़ी में घूमने लगा कुत्ता। कुत्तों को अंग्रेजी का नया-नया नाम मिला। लेकिन इस राज में जो सम्मान हासिल हुआ है, वो कभी नहीं हुआ। पहली बार इतने बड़े नेता, अभिनेता से कुत्ते की तुलना हो रही है। कुत्ते का कद बढ़ रहा है।

नाम तो धर्मेंद्र ने भी लिया था कुत्ते का। लेकिन वो नेगेटिव था। फिल्मी था। रमेश सिप्पी ने कुत्ते के नाम का सिर्फ इस्तेमाल किया। कुत्ते का नाम लेकर पैसा कमाया लेकिन सम्मान नहीं दिया। बसंती को नाचने तक से मना करवा दिया था रमेश सिप्पी ने। लेकिन 40 बरस बाद आज कुत्ता इतरा रहा है।

गुरूड़ हो भी क्यों ना। दुनिया की सबसे बड़ी सियासी पार्टी के बड़े नेता, उसके सांसद, अभिनेतामय नेता की तुलना कुत्ते से हो रही है। देश के बड़े-बड़े मंत्री, सत्ताधारी दल के नेता के मुंह से अपना नाम सुनकर कुत्ता अह्लादित हो रहा है। भाव विभोर होकर एक बुजुर्ग कुत्ते ने अपने बच्चों को एक किस्सा भी सुनाया कि कैसे एक मुख्यमंत्री ने आदर के साथ उसका नाम लिया जो प्रधानमंत्री बन गया। 

धन्य हिंदुस्तान। धन्य लोकतंत्र। और धन्य यहां के नेता। जिन्होंने कुत्ते को इतनी अदब बख्शी है। कुत्ता समाज इस सम्मान से अभिभूत है। जब तक सूरज चांद रहेगा। कुत्तों के देह में प्राण रहेगा। तब तक माननीयों के लिए कुत्तों के दिल में सम्मान रहेगा। अब कृतज्ञ कुत्ता समाज इन माननीयों को सम्मानित करेगा। कुत्तों का मान बढ़ानेवाले माननीयों को कुत्ता रत्न दिया जाएगा।

हालांकि कुछ पलटू नेताओं से कुत्ता समाज नाराज है। सरकार को ज्ञापन सौंपने वाला है। सियासत के इस कुत्ता काल में किसी कुत्ते को कुकुर समझने की भूल न करें। कुत्ता अब कुछ दिनों में कुत्ता जी होनेवाला है। इसलिए उसके स्वाभिमान पर चोट करना बंद हो। अगर एक बार किसी की तुलना कुत्ते से कर दी तो कर दी। फिर पलट नहीं सकते। कुत्ता समाज ने मांग की है कि इन पलटू नेताओं पर कड़ी कार्रवाई को लेकर कानून में संशोधन का प्रस्ताव संसद में पास हो।

रविवार, 8 नवंबर 2015

लालू हैं अब साथ में...नीतीश जी संभलना !

यूं तो पांचवीं बार लेकिन सीधे तौर पर देखें तो लगातार तीसरी बार नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। लोगों ने प्रचंड बहुमत दिया है। उम्मीद है कि वो कुछ बेहतर करेंगे। जाहिर है ताज के साथ-साथ नीतीश कुमार के सामने चुनौतियों का अंबार भी है। नीतीश कुमार को हर डेग संभालकर उठाना होगा।

पिछली बार जब एनडीए के साथ नीतीश कुमार थे तो इससे कहीं ज़्यादा सीटें मिली थी। अपेक्षाकृत लोग ज्यादा आश्वस्त भी थे। लेकिन इस बार चूकि वो लालू यादव के साथ हैं। लोगों के लिए लालू यादव के राज का अनुभव बहुत सुखद नहीं रहा है। लिहाजा लोग थोड़े बहुत आशंकित जरूर रहेंगे।

जिस तरह से जंगल राज की बात ज़ोर-ज़ोर से उछाली गई थी, इससे साफ है कि दिल्ली की मीडिया की नज़र भी नीतीश के इस शासनकाल पर पैनी रहेगी। खासकर सोशल मीडिया में नीतीश के कार्यकाल को हर दिन कसौटी पर कसा जाएगा। फिलहाल चाहे जो लगे, लेकिन इस कसौटी पर खरा उतरना नीतीश कुमार के लिए बड़ी चुनौती होगी।

नीतीश के इस सफर में पग-पग कांटें होंगे। क्योंकि अगले 5 साल तक अब लोगों का देखने का नज़रिया अब बहुत अलग होगा। अगर कहीं भी छोटी-मोटी घटनाएं होंगी। आपसी रंजिश में गोलियां चल जाएगी। मर्डर होगा। चोरी, डकैती, या लूट जैसी वारदात दो-चार एक साथ हो गई, तो इसे सीधे  जंगल राज से जोड़ा जाएगा।  लोग कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े करेंगे।

अगर अपहरण की एक-दो घटनाएं हो गई। तो कहा जाएगा कि बिहार में फिर अपहरण उद्योग खुल गया। अगर कोई बिना बताए कोई 5 घंटे तक घर नहीं पहुंचा तो लोगों को किडनैप कर लिए जाने की आशंका होगी। और ये तमाम बातें मेन स्ट्रीम मीडिया से अलग सोशल मीडिया पर किस तरह चंद सेकेंड के भीतर विश्लेषण के साथ पसरती चली जाती है ये नीतीश कुमार भी अच्छी तरह जानते हैं और अब लालू यादव भी जान गए होंगे।

क्योंकि मोदी सरकार को लेकर भी ऐसा ही कुछ माहौल है। देश में कहीं भी, कभी भी, किसी भी मुस्लिमों को चोट आती है तो उसे सीधे मोदी से जोड़ दिया जाता है। क्योंकि मोदी सरकार या उनकी पार्टी मुस्लिमों को लेकर हमेशा संदेह में रही है। आरएसएस से जुड़े कुछ संगठनों के कार्यकर्ता उद्दंडता के चरम पर हैं। यही माइनस प्वॉइंट लालू यादव के साथ भी है। वो चाहे कितना भी विकास की बात कर लें, उद्दंडता को लेकर वो, उनकी पार्टी के कार्यकर्ता हमेशा संदेश के घेरे में रहे हैं। छोटी-मोटी घटनाओं को लेकर भी उनके ऊपर सवाल खड़े होंगे। 


एक बात और तथाकथित मोदी भक्त से ज्यादा खतरनाक हैं तथाकथित लालू भक्तमोदी भक्त तो जुबानों से वार करते हैं। लेकिन लालू भक्तों का इतिहास रहा है कि वो मुंह के साथ-साथ हाथ और लात का भी इस्तेमाल करते हैं। जाहिर है, इन भक्तों को संभालना नीतीश कुमार के लिए बड़ा टास्क होगा। 
खुद को हिंदुओं का ठेकेदार कहनेवाले हिंदू सेना सरीखे बेलगाम संगठन जिस तरह से मोदी सरकार के लिए परेशानी की वजह है, उसी तरह लालू भक्तों का झुंड नीतीश कुमार को परेशान करेगा।

इसके अलावा, विकास को भी रफ्तार देना होगा। रोजगार के विकल्प को सतह पर लाना होगा। अस्पतालों की स्थिति सुधारनी होगी। 10 सालों के शासनकाल में जो नहीं कर पाए। उसे करना पड़ेगा। यानी काम बहुत है। हर लिहाज से। कांटों के बीच से नीतीश को रास्ता निकालकर आगे 5 साल तक मुस्कुराते हुए संभलकर चलना होगा। जो आसान नहीं है।

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

दाल के बारे में सोचने का नहीं!


मैं दाल के बारे में कभी नहीं सोचता। बढ़ गई कीमतें तो बढ़ गई। नहीं खाऊंगा। लेकिन इसके बारे में सोचूंगा नहीं। बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि अगर सोचा तो चिंता जाग जाएगी। और चिंता में फंसा तो चतुराई चली जाएगी। चतुराई गई तो दुख होगा। और दुख हुआ तो शरीर घटेगा। और शरीर अगर घटते-घटते माइनस में चला गया तो सबकुछ खत्म। जब खुद नहीं बचूंगा तो सस्ती दाल मिलकर भी क्या होगा। सो, मैं दाल की बढ़ती किमतों के बारे में नहीं सोचता।

जिनको दाल के बारे में ज्यादा सोचना है वो सोचते नहीं। वो सोचते तो दाल भी मुद्दा होता। लेकिन नहीं है। उनके लिए दाल से ज्यादा जरूरी बीफ है। गाय है। जाति है। धर्म है। आरक्षण है। वोट है। चुनाव है। चुनाव तो लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व है। पर्व है तो खुशी है। खुशी के वक्त में ग़म की बातें नहीं की जाती। इसलिए शायद वो भी चुनाव में बढ़ती दाल की बातें नहीं कर रहे हैं।

जब उनको दाल की चिंता नहीं है तो लोग क्यों करें। जब दाल के नाम पर वोट नहीं मांगे जा रहे हैं तो लोग भी दाल के नाम पर वोट क्यों दे। जिस पर नेता बोलें वही मुद्दा है। उसी मुद्दे पर मीडिया में चर्चा होती है। जिसकी चर्चा मीडिया में होती है वही लोग समझते हैं। उसी पर लोग मंथन करते हैं। उसी पर वोट देते हैं।

हां, दाल को लेकर वे लोग जरूर थोड़ी-बहुत चिंतित हैं, जिनके पास काम नहीं है। जो कुर्सी से दूर हैं। जिन्हें सत्ता चाहिए। जो बड़ा नेता बनना चाहते हैं। जो अब तक ये सोच रहे हैं कि जैसे दिल्ली में कभी शीला दीक्षित को आलू-प्याज के नाम पर कुर्सी मिल गई थी। वैसे ही शायद किस्मत चमक जाए। यही सोच-सोचकर मेहनत करते हैं। 10-20 को जमाकर प्रदर्शन करते हैं। कैमरा का फ्लैश चमका। फिर गायब हो जाते हैं। यानी सिरियसली वो भी नहीं लेते हैं।

कुल मिलाकर देश में दाल कोई मुद्दा नहीं है। किसी के लिए नहीं। कोई इसके बारे में सोचता नहीं है। आप भी मत सोचिए। विकल्प में जो मिलता है वो खाइए। आजकल कहीं न कहीं पार्टियां होती रहती है। कहीं बीफ पार्टी। कहीं दूध पार्टी। कहीं पॉर्क पार्टी। आप भी उसमें सरीक होइए। मुफ्त में खाइए। खुश रहिए। लेकिन सोचिएगा मत।


शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

मैं अखलाक़ बोल रहा हूं।

मैं अखलाक़ हूं। नाम तो सुना ही होगा आपने। आज कल हर जगह मेरी ही चर्चा है। हर जुबां पर मेरा नाम है। टीवी पर। अखबार में। सोशल मीडिया में। वहां भी, जिसके बारे में जिंदा रहते मैंने कभी सुना भी नहीं। सियासत के स्याह कमरे में मेरे ही नाम का च़राग जल रहा है आजकल। विचारों के दिवालियापन का शिकार हो चुके, अंधेरे में घिरे हर सियासतदां, मेरे ही नाम की रौशनी के आसरे आगे का सफर तय करने में जुटे हैं। इस रौशनी को बांटने के लिए भी लड़ रहे हैं हमारे रहनुमा। हर कोई अपने हिस्से में पूरा समेट लेना चाहता है मुझे। ग़जब़ हाल है।

कल तक किसी को मेरा ख्याल नहीं था। मैं कौन हूं। क्या हूं। क्या करता हूं। कैसे रहता हूं। किसी को कोई मतलब नहीं था। गुमनाम पते पर मुफलिसी के मकान में अपने परिवार के साथ जिंदगी बिता रहा था। अचानक मेरी मौत ने मुझे मेरे मजहब का मान बना दिया। आज मैं किसी का सगा हो गया। किसी का अपना हो गया। हर किसी को मेरे परिवार की फिक्र होने लगी।   

गरीबी में पूरी उमर गुजर गई मेरी। क्या बताऊं अपने बारे में। मीडिया वाले तो सबकुछ बता ही रहे हैं। बाकी तो मेरे घर की तस्वीर देखकर अंदाजा लग गया होगा। गुमनामी के अंधेरे में रोज लड़ते-लड़ते अपने परिवार का पेट भरता था। किसी को मेरी जरूरत से मतलब नहीं। आज मेरी मौत पर मातम मनानेवालों की कतार लगी है। मैं जानता हूं क्यों।

अगर मैं बीमारी से मर गया होता, तो भी क्या ये टोपी वाले हजारों किलोमीटर का सफर तय कर मेरे घर आते ? अगर मैं किसी हादसे का शिकार हो जाता तो भी क्या मुख्यमंत्री चेक और शोक संदेश भिजवाते ? अगर मेरा भाई, मेरा बेटा मेरी जमात का कोई कातिल मेरा कत्ल कर देता, तो भी क्या केंद्रीय मंत्री, बड़े-बड़े अफसर मेरे घर यूं आते? नहीं। बिल्कुल नहीं आते। ये सब सियासी हिसाब का जोड़-घटाव करने के बाद मेरे घर आएं हैं।

मैं कैसे समझाऊं इन्हें। कैसे बताऊं मैं सरकार को। जिनके मंत्री मेरे घर पर मातम में शरीक होने के लिए आते हैं। जिन्हें मेरी मौत अब भी हादसा लगता है। चारों तरफ से घेर लिया थे हमे। कातिलों ने रात के अंधेरे में। जब खिड़की और दरवाजा पीटना शुरू किया। सहम गया था। मेरा पूरा परिवार। रहम की भीख मांगते रहे हम। उन्होंने पीट-पीटकर मार डाला मुझे। मेरे परिवार पर लाठियां बरसाई। लाउडस्पीकर पर ऐलान करने के बाद वे मेरी हत्या करने आए थे। और आपको लगता है कि हादसा था।

मैं पूछना चाहता हूं उन्हें, जिन्होंने मेरा कत्ल कर दिया। पिछले 40 बरस में कभी मुझे गाय का मांस खाते नहीं देखा। उसदिन अचानक कैसे देख लिया। मेरे घर आते थे कपड़ा सिलवाने। कभी नहीं देखा। ईद और बकरीद में हर बरस मिलते थे। इस खुशी के दिन भी मेरे घर में कभी गाय का गोश्त नहीं देखा। आज कैसे नज़र पड़ गई। रात के अंधेरे में कैसे मैं नापाक हो गया। सियासी चश्मे ने मुझे काफिर बना दिया। कितने बड़े बुजदिल निकले यार तुम लोग भी। मुझे मारने के लिए मंदिर के लाउडस्पीकर से ऐलान करना पड़ा। सच बताऊं। तुम्हारे धर्म को तो तुम लोगों से ही सबसे बड़ा खतरा है।

और इन टोपी वालों को कैसे बताऊं। दाढ़ीवालों को कैसे समझाऊं कि मेरे परिवार को बचानेवाले भी वही हिंदू थे। उन वहशियों के सामने मैं और मेरा परिवार अकेला था। कुछ हिंदू भाइयों ने ही तो मेरे परिवार की इज्जत बचाई। उनकी जान बचाई। वरना, वे दरिंदे तो सबकुछ बर्बाद कर देते। मुझे पता है कि न तो आप उस वक्त बचाने आए थे। और न ही, आगे कभी बचाने आएंगे। गुश्ताखी माफ कीजिएगा। इतिहास बता रहा है कि आपका चरित्र कैसा है।

मेरे नाम का मतलब समझते हैं आप। अख़लाक़ का मतलब होता है अच्छा चरित्र। लेकिन उन हैवानों ने मुझे मेरे चरित्र के बारे में सफाई देने का भी वक्त नहीं दिया। सच कहूं तो मेरी मौत के बाद भी लोग मेरे चरित्र की परिभाषा अपने-अपने हिसाब से गढ़ेंगे। अपनी-अपनी सहूलियत के मुताबिक। खैर। कोई बात नहीं। मायावी दुनिया की यही हक़ीक़त है।

अंत में सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि मैं सिर्फ मोहरा था। बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा बना दिया गया था मैं। संभल जाइए आपलोग। यूपी में चुनाव होनेवाला है। आगे ऐसे कई मौके आएंगे। फिर कोई अखलाक होगा। या फिर कोई आकाश होगा। फिर कभी किसी मंदिर के लाउडस्पीकर से ऐलान होगा। किसी मस्जिद से आवाज आएगी। उस आवाज के पीछे हैवान बनकर मत दौड़िए। उन्हें हमारी मौत से कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे परिवार को फर्क पड़ता है। हमारी मौत के बाद। हमारे बिखरे हुए भरोसे का फायदा उठाकर वो टीवी पर, कैमरे के सामने यूं ही प्रवचन देते रहेंगे। वोट बटोरते रहेंगे। और हमारा परिवार दर-दर की ठोकरें खाता रहेगा। आंखें खोलिए। संभल जाइए।

मोहम्मद अखलाक़