शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

नेताजी की परेशानी


नेताजी बहुत दुखी हैं। माथा पकड़ कर बैठे हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें। पता नहीं, किस राशि और लग्न में गृहमंत्री पद की शपथ ली थी। वो कौन सा काल था, जब मैडम के मन में उन्हें गृहमंत्री बनाने का ख्याल आया था। सोच-सोचकर परेशान हो जाते हैं नेताजी। रात-रातभर 
नींद नहीं आ रही है। आजकल अक्सर बीपी और शूगर बढ़ा रहता है।

जब से गृहमंत्री बने हैं, तब से एक से छुटकारा मिलता नहीं कि दूसरी परेशानी मुंह बाये खड़ी हो जाती है। कभी जुबान धोखा दे जाती है। तो कभी देश के शैतान। किस-किस को संभालें। कहां-कहां ध्यान दें। उमर हो चुकी है। बोलते-बोलते कभी जुबान लड़खड़ा जाती है। तो कभी फिसल जाती है। याद नहीं रहता है कि हमले की सूचना मिलने पर सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद करने के लिए कहा कि नहीं।  

पिछले शीतकालीन सत्र में संसद में बयान देते वक्त मोस्ट वांटेड आतंकी को श्री हाफिज सईद कह दिया था। भूल सुधार हुई। गलती मानी। लेकिन कुछ ही दिन बीता था कि दिल्ली के दरिंदों ने सत्यानाश कर दिया। देश की राजधानी में सुरक्षा को लेकर थू-थू हुई। शैतानों ने जवाब देने लायाक नहीं छोड़ा। यहां तक कि अपनी ही पार्टी की सीएम ने भी नेताजी पर ठीकरा फोड़ दिया।

काफी हो हंगामे के बाद किसी तरह मामला दबा। तो जुबान दगा दे गई। ऐसी बात मुंह से निकल गई कि अपनों ने भी साथ नहीं दिया। एक-एक कर सब छोड़ गए। बीजेपी-आरएसएस वालों ने मोर्चा खोल दिया। अंत में लिखित माफी मांगी तब जाकर कहीं छुटकारा मिला।

नेताजी चैन की सांस लेते, उससे पहले ही आतंकियों ने सब गुड़ गोबर कर दिया। दो-दो ब्लास्ट कर दिये। देश की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल दी। नेताजी क्या जवाब देंगे। संसद में जवाब दिया तो उस पर भी सवाल होने लगे। क्या करें नेताजी। ऐसे वक्त में तो मैडम भी साथ नहीं दे रहीं।

अच्छा काम भी करते हैं तो कोई सराहना नहीं मिलती। बल्कि उस पर भी सवाल होने लगते हैं। अपनी धाक जमाने के लिए नेताजी ने वो कर दिखाया, जिसके बारे में उनसे बड़े दिग्गज सिर्फ बातें हीं करते थे। दो-दो आतंकियों को फांसी पर लटका दिया। इतना महान काम करने के बाद भी वाह-वाही होने के बदले उसपर भी सवाल हो रहे हैं। अफजल के घरवालों को पहले ही सूचना क्यों नहीं दी। स्पीड पोस्ट के बजाय मोबाइल से क्यों नहीं बताया। वगैरह-वगैरह। 

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

रेलवे स्टेशन पर भगदड़ की वजह

इलाहबाद रेलवे स्टेशन पर मौत की भगदड़ से रेल मंत्रालय अपना पल्ला झाड़ रहा है। रेल मंत्री का कहना है कि रेलवे से कोई चूक नहीं हुई। स्टेशन पर मुकम्मल व्यवस्था की गई थी। तो ऐसे में सवाल उठता है कि मौत की इस भगदड़ की वजह क्या है। क्या वाकई रेलवे प्रशासन इसको लेकर जिम्मेवार नहीं है।

ऐसा बिल्कुल नहीं है। इलाहबाद रेलवे स्टेशन पर जो कुछ भी हुआ, उसकी वजहों पर अगर गौर करें तो साफ तौर पर पता चलता है कि जो कुछ भी हुआ, वो स्टेशन प्रबंधन की वजह से हुआ। एन वक्त पर ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदल दिया गया। यात्री दूसरे प्लेटफॉर्म की ओर दौड़ पड़े। हर किसी को घर पहुंचने की जल्दबाजी थी। हर कोई ट्रेन पकड़ना चाहता था। अचानक  ट्रेन बदलने की घोषणा के बाद अफरा-तफरी मची। भीड़ ज्यादा रहने की वजह से अफरातफरी के बीच अफवाह उड़ी और फिर भगदड़।

ट्रेन के स्टेशन पर पहुंचने से ठीक पहले प्लेटफॉर्म बदल दिए जाने की समस्या भारतीय रेलवे में आम है। सिर्फ इलाहाबाद ही नहीं, देश के किसी भी रेलवे स्टेशन पर अंतिम समय में ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदल दिया जाता है।  गाड़ी जब स्टेशन पर पहुंचने वाली होती है, तो स्टेशन प्रबंधन की ओर से घोषणा की जाती है कि अब ट्रेन इस प्लेटफॉर्म के बजाय दूसरे प्लेटफॉर्म पर आएगी। अपने भारी भरकम सामान के साथ ट्रेन का इंतजार कर रहे यात्री ओवरब्रिज पार कर दूसरे प्लेटफॉर्म पर पहुंचते हैं। कई बार ऐसा होता है जब इसी अफरातफरी में लोगों की ट्रेन छूट जाती है।  

लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि रेलवे प्रशासन का इस ओर ध्यान नहीं है। ऐसा लगता है मानो अंतिम वक्त में ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदलना रेलवे की आम प्रक्रिया हो। जब तक अचानक से प्लेटफॉर्म बदलने की आम हो चुकी बड़ी समस्या पर रेलवे गंभीर नहीं होगा, तब तक यूं ही स्टेशनों पर भगदड़ मचते रहेंगे और लोग अपने घर पहुंचने के बजाय स्टेशन पर ही मरते रहेंगे।  

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

प्याज पर एक लेख

प्याज एक सामाजिक सब्जी है। प्याज लोगों की जिंदगी में ऐसे घुसपैठ कर चुका है, जिस तरह वो किसी भी सब्जी में आसानी से घुलमिल जाता है। प्याज का हर सब्जी के साथ भाईचारा है। वेज हो या ननवेज। प्याज के बिना स्वाद अधूरा रह जाता है। प्याज ना हो तो मछली, मटन, चिकन ना बने। प्याज ना हो तो दाल में तड़का नहीं लगता। प्याज ना हो तो पनीर में वो लजीजपन कहां। सिर्फ अमीरी ही नहीं गरीबी में भी प्याज ही साथ देता है। नमक और रोटी के साथ।

प्याज के जन्म की तारीख का पता नहीं। लेकिन जब से देखा है, तब से सत्य की तरह देखा है। जो काम कभी आलू नहीं कर सका। वो प्याज कर दिखाया। प्याज की पहुंच सत्ता के गलियारों तक है। राजनीतिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखता है। मुख्यमंत्री बदलने की औकात है उसकी। दिल्ली गवाह है इसका।  

मुख्यमंत्री से लेकर देश के कृषिमंत्री तक प्याज का ख्याल रखते हैं। प्याज की कीमत का पता रखते हैं। शुभ लग्न और काल देखकर बोलनेवाले प्रधानमंत्री तक को इस पर जवाब देना पड़ता है। जैसे ही प्याज के दाम में उछाल आया, तो माननियों के माथे पर पसीना छलकने लगता है। फोन की घंटियां घन घनाने लगती है। सत्ता की सूखी हुई आंखों में पानी ला देता है प्याज।  

मीडियावाले माइक लेकर मंडी टू मंडी प्याज का भाव पता लगाने लगते हैं। किचन के बजट से खरीदार तक का हिसाब जोड़ने लगते हैं। अर्थशास्त्र के मांग और पूर्ति के समूचे सिद्धांत का विश्लेषण टीवी चैनल के स्टूडियो में शुरू हो जाता है। प्याज के छिलकों की तरह बढ़े हुए दाम की वजहों को एक-एक कर छीला जाता है।   

जब प्याज अपनी औकात दिखाने लगता है, तब जाकर सरकार को प्याज उपजानेवालों का भी ख्याल आता है। अपनी फसल की उचित कीमत तक नहीं वसूल नहीं कर पानेवालों के लिए सरकार की चिंताएं बढ़ जाती है। हां, ये अलग बात है कि जब तक प्याज की कड़वाहट सत्ताधीशों की आंखों में लगी रहती है, तब तक ही गांव के वो किसान उन्हें याद रहते हैं।  

प्याज तो प्याज है। ये कब किसको हंसा दे, कब किसको रूला दे, किसको मशहूर कर दे और किसको मलीन कर दे, कहना बेहद मुश्किल है। इसमें राष्ट्रीय सब्जी बनने के सभी गुण मौजूद हैं। ये बात संसद में मौजूद हर पार्टी जानती है। खासकर कांग्रेस और बीजेपी। बजट सेशन में नहीं तो विंटर सेशन में ही सही, लेकिन संसद  एक बहस तो इसको लेकर बनती ही है, क्योंकि ये सभी पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण है।  

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

अफजल को फांसी और बीजेपी के सवाल


देश की सबसे बड़ी पंचायत पर आतंकी हमले के साजिशकर्ता को आखिरकार सजा दे दी गई। आतंकी अफजल गुरू को फांसी पर लटका दिया गया। जिस तरह अफजल ने गोपनीय तरीके से संसद पर हमले की साजिश रची थी, वैसे ही गुपचुप तरीके से उसे तिहाड़ में फांसी पर लटकाकर वहीं गाड़ दिया गया।  

12 साल लंबा इंतजार खत्म हुआ। शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि मिली। जो लोग कांग्रेस पर आतंकवाद को लेकर राजनीति करने का आरोप लगा रहे थे, उन्हें जवाब देने के लिए सरकार ने रास्ता निकाला। लेकिन इसी रास्ते से निकलकर एक रास्ता राजनीति की ओर चल पड़ी। जिसका निशाना सीधे-सीधे कांग्रेस की ओर है।

राजनीति में आरोप कभी खत्म नहीं होते। सवाल दर सवाल की फेहरिस्त कम नहीं पड़ती। किसी भी सवाल का जवाब कभी मुकम्मल नहीं होता। यही कारण है कि कांग्रेस विरोधी पहले तो सरकार पर अफजल की फांसी टालने का आरोप लगा रहे थे। लेकिन जब आतंकी गुरू को फांसी दे दी गई, तो अब उसके वक्त को लेकर सवाल उठा रहे हैं।

दरअसल 20 जनवरी को जयपुर में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर बेवजह मुश्किल में फंस गए थे। बीजेपी ने कड़ा एतराज जताया। सड़क पर उतरी और संसद में हल्ला बोलने का एलान कर दिया। गृह मंत्री की जुबान से परेशान कांग्रेस ने भी उनसे पल्ला झाड़ लिया। और ठीक उसके एक दिन बाद 21 जनवरी को आतंकी अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने की अंतिम प्रक्रिया शुरू हो गई। और 19 दिनों के भीतर 9 फरवरी को पौ फटने से पहले ही वो सारी प्रक्रिया खत्म कर ली गई। 

22 फरवरी से संसद का बजट सत्र शुरू होनेवाला है। बीजेपी पहले ही सुशील कुमार शिंदे का बायकॉट करने का ऐलान कर चुकी है। ऐसे में सरकार ने अफजल गुरू को फांसी पर लटकाकर मास्टर स्ट्रॉक खेला है। लेकिन बीजेपी यहां भी कांग्रेस पर सवाल उठा रही है।

चुनावी साल है। कांग्रेस को लेकर आमलोगों के बीच जो छवि है, वो अच्छी नही है। महंगाई, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था से लेकर हर एक मोर्चे पर कांग्रेस बैकफुट पर है। सरकार की दलील लोगों के गले नहीं उतरती है। और ये बात कांग्रेस भी अच्छी तरह जानती है। यही कारण है कि सरकार अब उस मुद्दे को पकड़ने की कोशिश कर रही है, जो सीधे तौर पर लोगों के दिल से जुड़े हुए हैं।

कांग्रेस अपनी रजनीति साधने में जुटी हुई है। तो बीजेपी कांग्रेस पर फांसी के वक्त के जरिए निशाना साध रही है। क्योंकि जिस अफजल की फांसी के मुद्दे पर बीजेपी कांग्रेस को लगातार घेर रही थी, वो मुद्दा अब उसके हाथ से निकल चुका है।