रविवार, 26 अप्रैल 2015

डरना जरूरी है!

लगातार धरती हिल रही है। एक के बाद एक भूकंप के झटके आ रहे हैं। लोग डरे हुए हैं। मैं भी डरा हुआ हूं। डरना भी चाहिए। सबको। भूकंप प्राकृतिक आपदा है। भूकंप बाकी आपदाओं से ज्यादा खतरनाक है। और जानलेवा भी। ये ऐसी आपदा जो आपको बर्बाद करने के लिए कुछ सेकेंड लेती है। जिसका कोई मुकम्मल अनुमान नहीं होता है। कब आएगा। कहां आएगा। कोई नहीं जानता है। जब तक लोगों को समझ में आता है तब तक सबकुछ खत्म हो गया रहता है।

देश के अलग-अलग हिस्सों में अनेकों बार ये त्रासदी आ चुकी है। बहुत कुछ बर्बाद हो गया। नेपाल इसी त्रासदी को झेल रहा है। आंशिक रूप से हिंदुस्तान भी। सबकुछ सामान्य चल रहा था। अचानक भूकंप आया। सड़कों पर चीख पुकार मच गई।

पलभर में सबकुछ बर्बाद हो गया। बड़ी-बड़ी इमारतें जमींदोज हो गई। हजारों मकान कब्रिस्तान बन गए। सैकड़ों जान गई। हजारों जख्मी हुए। हादसे के बाद काठमांडू के अस्पतालों में  भीड़ लग गई। लोगों की जिंदगी दस्तावेज में सिमट गई। 

जानकार कहते हैं कि कई दशकों से उत्तर भारत में बड़ा भूकंप नहीं आया है। लिहाजा एक बड़ी तबाही कभी भी दस्तक दे सकती है। लेकिन कब ये तो कोई नहीं जानता।

डरना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम इससे निपटने के लिए तैयार नहीं। वैसे तो देशभर के हर जिले में आपदा प्रबंधन कमेटी है। लेकिन ये रस्म अदायगी भर है। मोतिहारी से नैनीताल तक और लातूर से गाजीपुर तक। आपातकालीन परिचालन केंद्र आजायब घर की तरह है। कहीं अधिकारी नहीं है। कहीं कर्मचारी नहीं है। कहीं टॉर्च नहीं है। कहीं रस्सी नहीं है। कहीं कुछ और नहीं। मतलब अगर आफत गई तो इसके कर्मचारी खुद मदद मांगते दिखेंगे।

जितना खर्च हम विपदा आने के बाद करते हैं। जितनी तत्पड़ता हम त्रासदी के बाद दिखाते हैं उसकी एक चौथाई भी अगर पहले दिखाएं तो जान-माल के बड़े नुकसान से बचेंगे। लेकिन हमारी तो आदत है बर्बाद हो जाने के बाद छाती पीटने की।

डरना जरूरी है। इसका मतलब ये नहीं कि हम घर में रहना छोड़ दें। खान-पीना छोड़ दें। लोगों से मिलना छोड़ दें। दफ्तर जाना छोड़ दें। सड़क पर रहें। या पार्कों में रात बिताएं। ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। हां, बस हमें सतर्क रहने की जरूरत है।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

किसान नहीं इंसानियत मर गई

वहां हजारों की भीड़ थी। कुछ नेता थे। कुछ कार्यकर्ता थे। कुछ टीचर थे। कुछ पुलिसवाले थे। कुछ पत्रकार थे। कुछ ठेले और खोमचेवाले भी थे। लेकिन उस भीड़ में कोई इंसान नहीं था। जो एक मजबूर मरते हुए आदमी को बचा लेता।

वो पेड़ पर चढ़ा। फंदा बनाया। उसे गरदन में लगाया। और फिर झूल गया। इतना वक्त तो जरूर लगा होगा कि उसे बचाया जा सके। वो भी तब जब उस पेड़ के नीचे नौजवानों की भीड़ खड़ी थी। वही नौजवान जिसके बारे में प्रधानमंत्री कहते हैं कि ये हमारे देश की शक्ति है। वैसे लोग तो ये भी कह रहे हैं कि मरने से पहले कुछ देर तक गजेंद्र अपनी बातें भी कहता रहा । लेकिन किसी ने सुनी नहीं।

कुछ तस्वीरें आई हैं। जिसमें उसका हर एक्शन दिखता है। जाहिर है किसी कैमरामैन ने ये तस्वीर उतारी होगी। फोटो खींचनेवाले उस शख्स की इंसानियत पर उसकी नौकरी भारी पड़ गई।

सब तमाशा का हिस्सा बनकर रह गए। नेता सियासत का तमाशा कर रहे थे। कार्यकर्ता जयघोष कर रहे थे। पत्रकारों को यही तमाशा चाहिए था टीवी पर दिखाने के लिए। जब इतने लोग तमाशा देखते रहे तो पुलिस क्यों बचाने जाती। हजारों की भीड़ में गजेंद्र एक तमाशा था।

यह सबकुछ वहां हुआ जहां से संसद चंद कदमों की दूरी है। जो दिल्ली का सबसे पॉश इलाका है। उसके आसपास कई बड़े नेताओं का घर है। संयोग देखिए जहां गजेंद्र ने खुदकुशी की वहां सामने मुख्यमंत्री बैठे हुए थे। पूरे तामझाम के साथ। भारी तादाद में पुलिस भी। जिसे ऐसे हालात से निपटने के लिए बकायदा ट्रेनिंग भी दी जाती है। लेकिन कोई नहीं बचा पाया उसे।

हमे बच्चे से घर में सिखाया जाता है कि इंसानियत सबसे बड़ी चीज होती है। स्कूल की किताबों में भी पढ़ाया जाता है कि इंसानियत से ऊपर कुछ भी नहीं है। जाति, धर्म, मजहब, उम्र, हैसियत सबसे बढ़कर इंसानियत होती है। कोई भी अगर मुश्किल में है तो उसे बचाना हमारा फर्ज बनता है। 

जानवर और इंसानियत में यही महीन फर्क होता है। यही पढ़-पढ़कर हम बड़े होते हैं। लेकिन जितने बड़े होते जाते हैं हम सबकुछ भूल जाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गजेंद्र को कोई जरूर बचा लेता।

इतने संवेदनहीन क्यों हैं हम। एक इंसान की मौत हमारे लिए तमाशा क्यों बन जाता है।ऐसे मौकों पर हम इंसान क्यों नहीं बन पाते। 2 दिन पहले ही तो चंडीगढ़ में ऐसा ही वाक्या हुआ था। चाकू लगने के बाद एक लड़का सड़क पर तड़प रहा था। लोग आते-जाते रहे। एक नजर देखकर सब आगे बढ़े जा रहे थे। किसी ने उसे नहीं उठाया। जब तक उसका भाई आता तब तक वो मर चुका था। दिल्ली में तो ऐसा आमबात है।

पुलिस के रोजनामचे में एक केस दर्ज हो गया है। एक आदमी की मौत का केस। कोर्ट तक अगर ये मामला पहुंचा तो कोई गुनहगार साबित नहीं होगा। लेकिन अपने दिल पर हाथ राखकर पूछिएगा हम, आप, वो सब जो गजेंद्र की मौत का तमाशा देख रहे थे, सब गुनहगार हैं।

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

केजरीवाल के नाम चिट्ठी

अरविंद केजरीवाल जी
आप इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं? आपके सामने एक शख्स ने फांसी लगा ली और आप ताकते रह गए। वो गमछे का फंदा बनाकर फंदे में अपना गला डालकर झूल गया और आपको आह तक नहीं आई। क्या हो गया है आपको केजरीवाल जी? आपको तो खुद भीड़ के बीच से दौड़ जाना चाहिए था गजेंद्र को बचाने के लिए। आप अगर बिजली के खंभे पर चढ़ सकते हैं तो अपने कार्यकर्ताओं के बीच आप पेड़ पर क्यों नहीं चढ़ सकते हैं। वो भी तब जब एक शख्स गले से मौत को लगा रहा है। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। मुझे पूरी उम्मीद है कि अगर आप चाहते तो गजेंद्र जिंदा बच सकता था। लेकिन आप तो किसान के फंदे को देखते हुए किसान और किसानी पर सियासत कर रहे थे। आप तो मोदी के साथ सियसत का खेल खेल रहे थे। ऊपर से आप कह रहे हैं कि दिल्ली पुलिस को देखना चाहिए। कोई मर रहा है और आप  हैं कि आप नहीं आप कर रहे हैं। ये तो बेशर्मी की हद है केजरीवाल जी।

आप तो आप। आपके कुछ सहयोगी भी बेशर्मी के चादर ओढकर कैमरे के सामने कैसे-कैसे बोले जा रहे थे। यकीनन। आपके आदेश के बिना ऐसा मुमकिन नहीं हुआ होगा। आपने ऐसे कैसे बोलने का आदेश दिया था केजरीवाल जी। कोई कह रहा था कि अगलीबार कोई पेड़ पर चढ़कर खुदकुशी करेगा तो केजरीवाल बचाने आएंगे। तो दूसरा कह रहा था कि इसमें साजिश है। तो क्या आपलोग चाहते हैं कि आपकी हर रैली में, हर सभा में कोई फांसी पर चढ़े। गज़ब। पक्के तौर पर नेता बन गए हैं आप। आपकी पार्टी।

पता है आपको। संसद से चंद कदमों की दूरी पर नीम के पेड़ पर सफेद रंग के गमछे में सिर्फ गजेंद्र नहीं झूला। बहुत कुछ मरा आज। आम आदमी पार्टी का सिद्धांत, सोच, वो संकल्पना, वो धारणा जिसे आम लोग समझता था। सबकुछ झूल गया उस फांसी के फंदे में। खत्म हो गया सबकुछ। आपलोग वैचारिक रूप से नंगे हो गए। आप की पार्टी भी उसी परंपरागत राजनीतिक पार्टी में शुमार हो गई जिससे लोग निराश है। जिसके विकल्प के तौर पर आपको लोगों ने वोट दिया था। आप भी मजे हुए नेता बन गए। आपने लीक से हटकर रानजीति करने की कसमें खाई थी। आपने कहा था कि सियासत में नई लकीर खींचेंगे। कहां गई वो लकीर।यही सियासत करने के लिए आपने झूठों का जाल बनाया था।  

आपलोग तो समाज सेवा करने आए थे न केजरीवाल जी। आपकी टीम के हर सदस्य खुद को सबसे बड़ा त्यागी बताता है। सबसे बड़ा समाजसेवक। ऐसे ही सेवा करते हैं समाज की क्या। कोई मरता रहे और आप दूसरे के सिर ठीकरा फोड़ते रहिए। बजाय उसको बचाने की।

लोग चाहे जो कहे लेकिन मैं नहीं मानता कि कुर्सी मिलने के बाद आप बदल गए। हकीकत ये है कि आपकी असलियत यही है। आप पहले भी ऐसे ही थे। बस एक चमकदार नकाब था जो धीरे-धीरे सरकते-सरकते आज पूरी तरह गिर गया।

आज आपके और आपकी पार्टी का मकसद, उसकी सोच बेलिबास हो गई। सबकुछ नंगा हो गया। आप भी कुर्सी की खातिर कुछ भी कर सकते हैं। किसी को शूली पर चढ़ा सकते हैं। आपके लिए भी आम आदमी की जान मूली के बराबर है। आपलोगों ने माफी को हथियार बना लिया है। कुछ भी कर लो। बोल लो। कैमरे पर माफी मांग लो। इस गलती की माफी नहीं होती। इतिहास आपको माफ नहीं करेगा। 

हां एक बात और। मुझे पता है कि आपको आपकी तरह की बातें करनेवालों की चिट्ठी पसंद नहीं है। आजकल आपको मीडिया भी अच्छा नहीं लगता। मुझे विश्वास है कि अब आप सोशल साइट्स पर भी वे पोस्ट और कॉमेंट नहीं पढ़ते होंगे जो आपके मनमाफिक न हो। फिर भी सियासत के मकड़जाल में उलझे हुए एक शख्स का  बहुत बड़ा भ्रम टूटा है। सामने तो आप मिलेंगे नहीं। अगर मिले भी तो मेरी इतनी लंबी बातें सुनने के लिए आपके पास वक्त नहीं होगा। इसलिए ये चिट्ठी लिख रहा हूं। शायद उड़ते-उड़ते पहुंच जाए।

एक आम आदमी (टोपी रहित)

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

अलगाववादियों के नाम एक चिट्ठी

25 बरस पहले मार-काट कर भगा दिए। अब कहते हो कि उन्हें मेरे घर के पास ही बसाओ। यार तुम्हारे घर के आसपास ही तो रहते थे सब। एक साथ उठते-बैठते थे। खेलते-कूदते थे। तुम्हारे खुशी और गम में शरीक होते थे। अपनो से बढ़कर मानते थे। और तुमलोगों ने एक ही झटके में सबकुछ खत्म कर दिया था। मोटी सी दीवार खड़ी कर दी थी। आज जब उनके लिए तुमलोगों से दूर घर बनाने की बात हो रही है तो कह रहे हो कि दीवार खड़ी मत करो। गजब करते हो यार। यही तो चाहते थे तुमलोग। कि वो तुमलोगों से दूर चले जाएं।

तुम्हीं लोगों ने तो घर जलाये थे उनके। किसी ने बच्चे को मारा था। किसी ने बुजुर्गों को। किसी ने गर्भवती महिलाओं को लूटा था। हिंदुस्तान की धरती पर किसने पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए थे । आइना हाथ में उठाओ तो सही। एक-एक कर बहुत कुछ दिख जाएगा यार। अगर तुम नहीं तो तुम्हारे पुर्वज। अगर तुम में से किसी ने उस वक्त हथियार नहीं उठाए थे तो क्या हुआ। उन्हीं की खींची लकीर पर आगे बढ़ रहे हो। फिर कैसे कोई यकीन करे यार।

आज भी उनके कानों में मस्जिदों से उड़ती वो आवाज गर्म शीशे की तरह गिरती है तो बेचैन हो उठते हैं। इस्लाम कबूलो नहीं तो हत्या की धमकी। पलायन की पीड़ा अंतहीन होती है। खैर, जो हो गया उसे मिटाया नहीं जा सकता। लेकिन नये सिरे से ऐसा माहौल तो जरूर बन सकता है कि वो गम कम हो। वे लोग अपनी जमीन। अपने आवोहवा में लौट जाएं। 25 बरस तक वनबास की तरह जीने का दर्द बहुत जल्दी तो ठीक नहीं होगा। लेकिन जो एक प्रयास हो रहा है उसे होने दो। उनलोगों को कश्मीर लौटने दो।

अगर तुमलोग वाकई भाईचारे में भरोसा करने लगे हो तो ठीक है। उन्हें अलग कॉलोनी में रहने दो ना । कॉलोनी अलग रहने से क्या फर्क पड़ता है। दूर से भी उन्हें अहसास दिला सकते हो कि तुमलोग अब भरोसे के काबिल हो। तमाम गलतफहमियां मिट चुकी है। जो गिला-शिकवा था वो खत्म हो चुका है। लेकिन ऐसा नहीं करना चाहते। क्योंकि तुम्हारा मकसद कुछ और है। तुम सियासत करते हो। खुदा के लिए सियासत करने के और भी कई मुद्दे हैं यार। समाज को बसाओ। इंसानियत दिखाओ। खुदा भी खुश होंगे।

हकीकत कड़वी होती है। लेकिन जो सच है वो है। बताओ यार जब-जब विपदा आती है, तो कहां लापता हो जाते हो। एक साल के भीतर जम्मू-कश्मीर में छोटी-बड़ी दो बड़ी विपदा आई। जिसे तुम आजाद कराने की नापाक सोच रखते हो। जिसका तुम खुद को खुदा कहते हो। वहां मुश्किल की घड़ी में कहां गुम हो गए थे। कहीं नहीं दिखाई पड़ रहे थे। एक लोगों की जान बचाई होती तो समझ में आता। लेकिन ये तुम्हारे बस की बात नहीं है। तुम तो नफरत फैलाना जानते हो। दूसरों के हाथों की कठपुतली बनकर रह चुके हो। असलियत को समझो। हिंदुस्तान ही तुम्हारा मुल्क है। तुम हिन्दुस्तान के हिस्सा हो। अपनी हिस्सेदारी के लिए लड़ो।


बहुत दिनों के बाद एक अच्छी पहल हो रही है। होने दो। लाखों लोगों को घरवापसी की उम्मीद जगी है। तुमलोग अगर वाकई उनके हिमयती हो तो बस इतना सा कर दो कि उन्हें आगे कोई तंग न करे। क्योंकि तुम वहां बहुसंख्यक हो। सब मिलकर आतंकियों के खिलाफ लड़ो। कश्मीरी पंडित अगर मुसीबत में हों तो तुम पनाह देना। वे अपने आप तुम्हारे करीब आते आजाएंगे। वे तुम्हारे हैं। तुम उनके हो। दूसरों को इससे क्या लेना देना। तुम सब मिलकर रहो। खुश रहो। मुल्क ऐसी ही तो आगे बढ़ेगा। बस, इस पर सियासत मत करो। प्लीज।  

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

तंबाकू उत्पादों पर बैन दिखावा है!

दिल्ली में खैनी, गुटखा, जर्दा सरीखे तंबाकू उत्पादों पर बैन लगा दिया गया। तंबाकू उत्पादों पर प्रतिबंध का एलान करते हुए दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि पुलिस और स्वास्थ्य विभाग इस पर कड़ी नजर रखेगी। ताकि चोरी- छिपे कोई इसे न तो बेच सके और न ही खरीद सके। कानून तोड़ने वालों को सात साल तक की जेल और
दो लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया। गुटखा, खैनी, जर्दा खरीदने और बेचने वालों की शिकायत के लिए हेल्पलाइन नंबर भी जारी किया गया।

लेकिन सरकार का फैसला रस्मभर होकर रह गया। क्योंकि दिल्ली के हर कोने में तंबाकू उत्पाद मिल रहे हैं। बेचने वालों को थोड़ी झिझक जरूर हो रही है, लेकिन बिक्री जारी है। खरीदने वालों को 5 रुपए के बदले 8 रुपए चुकाने पड़ रहे हैं, लेकिन आसानी से मिल रहा है। न तो कोई पकड़ने वाला है और न ही कोई रोकने वाला।

दिल्ली कोई पहला राज्य नहीं है, जहां तंबाकू उत्पादों की बिक्री पर रोक लगा हो, और वह सरकारी फरमान बनकर रह गया। दिल्ली से पहले बिहार, महाराष्ट्र, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और गोवा जैसे राज्यों में गुटखा, खैनी, जर्दा की खरीद-बिक्री पर रोक है। बावजूद हर राज्य में धड़ल्ले से तंबाकू उत्पाद बेचे जा रहे हैं। खरीदे जा रहे हैं। न कोई शिकायत करने वाला है, न टोकने वाला।

सवाल उठता है कि लोगों की जिंदगी से जुड़ा सरकार का ये फरमान रस्म अदायगी बनकर क्यों रह जाता है। क्या पुलिस और प्रशासन की सहमति के बिना तंबाकू उत्पादों की खरीद-बिक्री हो सकती है। बिल्कुल नहीं। क्योंकि इसे बेचने वाले बहुत ही छोटे-छोटे दुकानदार होते हैं। जाहिर है कि सरकारी ठेकेदारों को हफ्ता देने के बाद ही इन दुकानदारों की हिम्मत बढ़ती है और वो धड़ल्ले से गैरकानूनी काम करते हैं। सरकारी फरमान को सूली पर टांग देते हैं।  

सरकार को तंबाकू-उत्पाद खरीद-बिक्री करनेवालों पर दंड का प्रावधान करने के साथ-साथ उन पुलिस-प्रशासन के लिए भी त्वरित और ज्यादा सजा की व्यवस्था करनी चाहिए जिसके जिम्मे इसकी निगरानी होती है। जो गुटखा-खरीद बिक्री होते देखकर भी अंधे की तरह खड़े रहते हैं। जो वसूली में अपने ईमान का सौदा करते हैं। ताकि सवाल सरकार की मंशा पर न उठे। लोग इसे सियासी फायदे और सहानुभूति बटोरने वाला सरकारी फरमान से आगे समझ सके। 

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

'महिला सम्मान' पर सियासत

गिरिराज सिंह ने सोनिया गांधी को लेकर जिन शब्दों का इस्तेमाल किया वो बेहद निंदनीय है। घटिया है। अफसोसजनक है। ऐसी ओछी बातों की जितनी भर्त्सना की जाए, कम है। लेकिन उससे ज्यादा अफसोसजनक है, उस बेहूदे बयान पर हो रही स्तरहीन राजनीति। बयानबाजी। प्रदर्शन। आगजनी। घेराव। हंगामा। सवाल है कि महिलाओं का सम्मान क्या इसी बयानबाजी, प्रदर्शन, हंगामा और राजनीति से मिल जाएगी। या फिर इस तरह हंगामा और विरोध करने से बेजुबान नेताओ पर लगाम लगेगा। कतई नहीं।

ना तो गिरिराज सिंह कोई पहले नेता हैं जिन्होंने महिलाओं को लेकर अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया और ना ही वो आखिरी नेता हैं। महिना भर पहले बिहार में राज करने वाली पार्टी जेडीयू के अध्यक्ष ने दक्षिण भारतीय महिलाओं को लेकर बेहूदी टिप्पणी की थी। तब भारतीय जनता पार्टी ने इसकी कड़ी आलोचना की थी। कांग्रेस समेत कई पार्टियों ने शरद यादव के बयान को ओछा बताया था। बावजूद इसके तथाकथित समाजवादी नेता शरद यादव अपनी बात पर अड़े रहे। माफी मांगने की तो बात छोड़िए।

महिलाओं को लेकर अभद्र भाषा का इस्तेमाल करनेवालों की फेहरिस्त कांग्रेस में भी छोटी नहीं है। काफी लंबी है। केंद्रीय मंत्री रहते सुशील शिंदे या फिर केंद्रीय मंत्री रहते श्रीप्रकाश जायसवाल या फिर दिग्विजय सिंह हों। लेकिन न तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दिया और न ही पार्टी ने उन्हें बाहर निकाल दिया। और उस वक्त यही बीजेपी महिला सम्मान के नाम पर छाती पीट रही थी। और आज वही बीजेपी कह रही है कि गिरिराज सिंह ने माफी तो मांग ली, फिर हंगामा क्यों?

कांग्रेस-बीजेपी ही क्यों। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव से लेकर अदना तक विधायक तक। महिलाओं को लेकर हर किसी की गंदी सोच समय-समय पर बाहर निकलती रहती है। या फिर दीदी की पार्टी के विधायक हों या फिर डीएमके के कार्यकर्ता। महिलाओं के सम्मान को ताक रखने वाले कभी किसी नेता पर किसी पार्टी ने कोई कार्रवाई नहीं की। ज्यादा से ज्यादा माफी मांग ली। मतलब साफ है। सब ने दिखावा किया। 

हिन्दुस्तान की हर सियासी पार्टी में "गिरिराज" नाम का तत्व पाया जाता है। जो अपने घर में हर किसी को स्वीकार है, लेकिन दूसरा कोई है तो बर्दाश्त नहीं। ऐसे 'गिरिराजों' पर कानूनी कार्रवाई की जरूरत है ना कि सियासी प्रदर्शन की। ऐसे ऐसों को चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का कानून बना दीजिए। फिर देखिए। कोई महिलाओं को लेकर चूं तक नहीं करेगा। गोरी-काली-दक्षिण भारतीय-टंच माल-मजा-परकटी।हर शब्द भूल जाएंगे।

लेकिन यकीन मानिए। ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। कभी नहीं होने वाला है। क्योंकि "नारी सम्मान" के नाम पर खालिस सियासत हो रही है।  सियासत का सूत्र कहता है कि ऐसे मामलों को दबाने के बजाय उछालो। टीवी, अखबार, इंटरनेट पर सुर्खियां बने रहे। भावनाओं से जोड़ो। लिहाजा पार्टी के बरिष्ठ नेता तामझाम के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करने बैठ जाते हैं तो कर्मचारी टाइप कार्यकर्ता झंडा, बैनर, पेट्रोल और माचिस लिए सड़क पर उतर जाते हैं। इस बार भी वही हो रहा है। चूकि नारी सम्मान के केंद्र में इस बार हिंदुस्तान की सबसे पुरानी और समृद्ध पार्टी की अध्यक्ष हैं तो जाहिर है कि तपीश कुछ ज्यादा है। कुछ दिन बाद सब भूल जाएंगे।