गुरुवार, 26 नवंबर 2015

खतरनाक है असहिष्णुता की सियासत

   असहिष्णुता आखिरकार संसद की चौखट तक पहुंच ही गई। यानी अब दोनों सदनों में असहिष्णुता को मथा जाएगा। सरकार और विपक्ष के बीच बहस होगी। भावनाओं की चाशनी मे लपेटकर आंकड़ों और तर्कों की सियासत होगी। निकलेगा क्या ये सबको बता है। 
    सवाल उठता है कि अचानक कैसे लोगों को लगने लगा कि देशभर में चारों तरफ खौफ ही है। हर घर के बाहर हाथ में खंजर लिए लोग मारने के लिए खड़े हैं। सांस लेने तक में तकलीफ हो रही है। इमरजेंसी से भी बदतर हालात हो गए हैं। उससे भी बड़ा सवाल ये है कि अखलाक को पीट-पीटकर मारने की घटना के बाद क्या देशभर का माहौल इतना बिगड़ गया कि आमिर खान सरीखे लोगों को भी डर लगने लगा। क्या फरीदाबाद में दलित परिवार को जिंदा जलाने की घटना से देशभर के लोग डर गए। या फिर कलबुर्गी की हत्या ने देश को हिंसक बना दिया। 
    याद कीजिए 1999 में उड़ीसा में इसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस को जिंदा जला दिया था दारा सिंह ने। दारा सिंह भी हिंदूवादी संगठन से ताल्लुक रखता था। ग्राहम स्टेंस के साथ मरनेवालों में उसके दो मासूम बच्चे भी थे। क्या उससे भी खौफनाक घटना थी अखलाक की हत्या। लेकिन उस वक्त असहिष्णुता की कहीं चर्चा नहीं हुई। याद कीजिए उस दौर को जब बिहार में दलितों का नरसंहार हुआ था। क्या तब देश सहिष्णु था। 
   2014 के आंकड़े बताते हैं कि यूपी में रेप की हर दिन औसतन 10 घटनाएं होती है। रेप की शिकार ज्यादातर लड़कियां दलित या फिर अल्पसंख्यक समुदाय से होती है। लेकिन इसको कभी सहिष्णुता से जोड़ा नहीं जाता। आंकड़ा टटोलिये तो आपको दिखेंगे कि कैसे देशभर में आरटीआई कार्यकर्ता मौत के घाट उतार दिए जाते हैं। कहीं चर्चा नहीं होती। फिर अचानक एक साल में कैसे बुद्धिजीवियों को फासीवाद दिखने लगा। देश असहिष्णु दिखने लगा। 
    दरअसल ये सोशल मीडिया का कमाल है। जहां बात तो आग और तेल से भी ज्यादा तेजी से पसरती चली जाती है। लोग अपने-अपने तरीके से बेरोक-टोक विश्लेषण करने लगते हैं। बात को शांत करने की बजाय उसे बतंगड़ बनाया जा रहा है। आमिर खान के घर के बाहर अगर हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रहे हैं तो इस बात को ऐसे बताया जा रहा है कि जैसे पहले कभी हुआ ही नहीं। सवाल उठता है कि क्या इससे पहले कभी शाहरुख, आमिर या फिर सलमान खान के पोस्टर नहीं फाड़े गए। या फिर इनके फिल्मों का विरोध नहीं हुआ? क्या इससे पहले कभी शाहरुख या आमिर खान को अतिवादियों ने पाकिस्तान जाने की बेशर्म नसीहत नहीं दी? शिवसेना सरीखे संगठन, प्राची, साक्षी, योगी जैसे लोग कई बार इस तरह की बेहूदी बातें कर चुके हैं। क्या तब लोगों को डर नहीं लग रहा था ? दरअसल ये कैमरा और फ्लैश के जरिए टीवी पर शब्दों और चेहरों के चमकने का दौर है। ये वो दौर है जहां समाज और देश से इतर राजनीति साधने की सियासत हो रही है। 
  इस सब के बीच सब से डरावनी बात ये है कि असहिष्णुता को लेकर जो लकीर खींच दी गई है, उसके संकेत भविष्य के लिए बहुत बेहतर नहीं है। इसपर सियासत थमने वाला नहीं है। क्योंकि जो सवाल उठाए जा रहे हैं, पुरस्कार वापसी से लेकर साहित्यकारों, कलाकारों और फिर नेताओं की जुबान से जो डर और खौफ की बातें हो रही है, उन बातों को सियासत अपनी तरीके से भुनाने में लगी है। बिहार चुनाव के बाद ठंडा पड़ चुके इस मुद्दे पर जब आमिर खान ने सवाल उठाया तो बात संसद तक पहुंच गई। विपक्ष ने असहिष्णुता पर चर्चा के लिए सरकार को नोटिस थमा दिया। 
  यकीन मानिए। संसद से लकेर टीवी चैनल के स्टूडियो में इसको लेकर कितनी भी चर्चा करवा लीजिए। ये मुद्दा थमने वाला नहीं है। क्योंकि कांग्रेस और विपक्ष को लगता है कि उसे असहिष्णुता नाम का एक ब्रह्मास्त्र मिल गया है। जिसके जरिए मोदी सरकार को डिगाया जा सकता है। बिहार में इसका उदारहण भी मिला। असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी को लेकर छिड़ी बहस के बीच हुए बिहार चुनाव में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी। याद होगा कि इससे पहले दिल्ली के चुनाव के वक्त भी चर्च पर हमला जैसा मुद्दा गरम था। 
  यानी सियासत अब ऐसे ही मुद्दों के आसरे आगे बढ़ेगी। मुमकिन है कि इससे भी इतर ऐसे मुद्दे उछाले जाएं तो सियासत को जरूर साधनेवाला हो, लेकिन देश की जड़ को नुकसान पहुंचाए। क्योंकि जो अभी विपक्ष में हैं, वो कभी सत्ता में होंगे, और जो सत्ता में हैं, वो विपक्ष में होंगे। उस वक्त भी बड़े-बड़े साहित्यकार और कलाकर किसी और मुद्दे पर बोलने के लिए हाथ में पुरस्कार लेकर खड़े होंगे। यानी सियासत का जो दौर चल पड़ा है वो सामाजिक असहिष्णुता से ज्यादा डरावना और असहिष्णु है।

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

अतुल्य भारत या असहिष्णु भारत?

डियर आमिर खान,
आपका प्रशंसक होने के नाते आपका यूं विवादों में आना मुझे अच्छा नहीं लगा। आपको पता है कि असहिष्णुता एक विवादित मुद्दा है तो फिर आपको इस पर बोलने से बचना चाहिए था। आपके रहते मुझे देश में असहिष्णुता का कोई दूसरा उदाहरण नहीं खोजना पड़ेगा।  पिछले साल आपकी फिल्म pk आई थी। फिल्म  में हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया गया था। बावजूद इसके  ये फिल्म रिलीज हुई। सबने देखी। खूब कमाई की। करोड़ों हिंदू-मुस्लिम की तरह मैंने भी आपकी फिल्म देखी थी। मनोरंजन के लिए। अच्छा लगा था। सच तो ये है कि आप जैसी शख्सियतों को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखना भी बेईमानी है। 

आप भी इस बात से इनकार नहीं करेंगे कि अगर ऐसा मजाक किसी दूसरे धर्म के देवी-देवताओं के बारे में होता तो फिल्म कतई रिलीज नहीं हो पाती। फिल्म के एक्टर-प्रॉड्यूसर का  सिर कलम करनेवालों पर करोड़ों का ईमान रखा जाता । कुछ भी हो सकता था। चार्ली एब्दो तो आपको याद ही होगा। लेकिन आपके देश में ऐसा कुछ नहीं हुआ। लोगों ने आपको सिर आंखों पर बिठाया। फिल्म ने रिकॉर्ड तोड़ कमाई की।
  
आप देश के ब्रांड  हैं। टीवी पर आपको हमेशा से भारत की खूबियों का वर्णन करते देखा है। आप ही के मुंह से पहली बार अतुल्य भारत शब्द सुना था। पता नहीं उसमें दिखनेवाले किरदर असल में होते हैं, या यू हीं बनाए जाते हैं। जो भी हो, अच्छा लगता है। फिर अचानक जब आपके मुंह से देश में असहिष्णुता वाली बात सुनी तो अजीब लगा। जो शख्स एक तरफ भारत की खूबियों का बखान करते फिरता है, वो अगर कह रहा है कि असहिष्णुता बढ़ी है तो इसका असर देश की छवि पर तो पड़ेगा ही न। ये आप भी जानते हैं। 

हम आपको सत्यमेव जयते में विश्वास रखने के लिए जानते हैं। आप हमेशा से देश की समस्याओं को लेकर सवाल उठाते रहे हैं। हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री का आवास आपकी पहुंच से दूर नहीं है। देर या सवेर आप जब चाहेंगे प्रधानमंत्री से मुलाकात कर सकते हैं। उनके प्रधानमंत्री बनते ही आपने उसने मुलाकात की थी। अगर वाकई में आपको ऐसा लग रहा है कि देश में असहिष्णुता बढ़ी है तो आप उनसे मिलकर अपनी चिंता बता सकते थे। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। मीडिया में जाकर बातें रखी। जबकि आप जानते हैं कि मीडिया में बोलने से सिर्फ बवंडर होगा। कोई हल नहीं। 

आपने बीवी का नाम लेकर देश में असहिष्णुता की बात कही है।  घर-परिवार में बहुत सारी बातें होती है। जब देश में सहिष्णुता को लेकर बहस चल रही है, आपका बॉलीवुड भी इससे अछूता नहीं है तो जाहिर है कि आपके घर में भी इसपर चर्चा जरूर हुई होगी। लेकिन इस बात को जब आप मीडिया के सामने कहते हैं तो बात बढ़ जाती है। लोग इसको अपाकी विचार से जोड़कर देखने लगते हैं।  

आपको देश से जुड़े तमाम मुद्दों पर बोलते देखा है। सुना है। याद है जब आप नर्मादा बचाओ आंदोलन में धरने पर बैठने पहुंच गए थे। और भी अच्छा तब लगा था जब आप अन्ना के मंच पर पहुंचे थे। इसी तरह अगर आप देश में बढ़ती महंगाई को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ मुहिम चलाते तो अच्छा लगता। 

खैर, अब आपके समर्थन में कुछ लोग बोलेंगे। कुछ आपके विरोध में। मीडिया को मसाला मिल गया है। टीवी पर बहस होंगी। अखबारों में एडिटोरियल छपेंगे। सोशल साइट्स पर भी बड़ी-बड़ी बाते होंगी। इससे किसे फायदा होगा ये कहने की जरूरत नहीं है, लेकिन देश को जरूर घाटा होगा। इस पर एक बार सोचिएगा जरूर। बाकी, आपकी अगली फिल्म का इंतजार है, हमेशा की तरह। 

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

कुत्तों के 'अच्छे दिन' आ गए !

भले ही कुत्ते को इंसान ने सबसे पहले पालतू बनाया हो। लेकिन इतना सम्मान आज तक कभी नहीं मिला। मनुष्यों के संपर्क में आने से लेकर अब तक कुत्ता सिर्फ कुकुर था। पालतू जानवर था। जो लोगों पर भौं-भौं करता था। जो अपने मालिक के आगे-पीछे दूम हिलाते फिरता था। लेकिन कुत्ता अब वो कुकुर नहीं रहा जो आप समझते रहे हैं। कुत्तों के अच्छे दिन आ गए हैं। कुत्ता प्रजाति अपने स्वर्णिम काल में प्रवेश कर चुकी है। 
कुत्ते की कितनी प्रजातियां हुई। जगंली से हाई ब्रिड हो गया कुत्ता। घर में पलंग पर सोने लगा कुत्ता। गाड़ी में घूमने लगा कुत्ता। कुत्तों को अंग्रेजी का नया-नया नाम मिला। लेकिन इस राज में जो सम्मान हासिल हुआ है, वो कभी नहीं हुआ। पहली बार इतने बड़े नेता, अभिनेता से कुत्ते की तुलना हो रही है। कुत्ते का कद बढ़ रहा है।

नाम तो धर्मेंद्र ने भी लिया था कुत्ते का। लेकिन वो नेगेटिव था। फिल्मी था। रमेश सिप्पी ने कुत्ते के नाम का सिर्फ इस्तेमाल किया। कुत्ते का नाम लेकर पैसा कमाया लेकिन सम्मान नहीं दिया। बसंती को नाचने तक से मना करवा दिया था रमेश सिप्पी ने। लेकिन 40 बरस बाद आज कुत्ता इतरा रहा है।

गुरूड़ हो भी क्यों ना। दुनिया की सबसे बड़ी सियासी पार्टी के बड़े नेता, उसके सांसद, अभिनेतामय नेता की तुलना कुत्ते से हो रही है। देश के बड़े-बड़े मंत्री, सत्ताधारी दल के नेता के मुंह से अपना नाम सुनकर कुत्ता अह्लादित हो रहा है। भाव विभोर होकर एक बुजुर्ग कुत्ते ने अपने बच्चों को एक किस्सा भी सुनाया कि कैसे एक मुख्यमंत्री ने आदर के साथ उसका नाम लिया जो प्रधानमंत्री बन गया। 

धन्य हिंदुस्तान। धन्य लोकतंत्र। और धन्य यहां के नेता। जिन्होंने कुत्ते को इतनी अदब बख्शी है। कुत्ता समाज इस सम्मान से अभिभूत है। जब तक सूरज चांद रहेगा। कुत्तों के देह में प्राण रहेगा। तब तक माननीयों के लिए कुत्तों के दिल में सम्मान रहेगा। अब कृतज्ञ कुत्ता समाज इन माननीयों को सम्मानित करेगा। कुत्तों का मान बढ़ानेवाले माननीयों को कुत्ता रत्न दिया जाएगा।

हालांकि कुछ पलटू नेताओं से कुत्ता समाज नाराज है। सरकार को ज्ञापन सौंपने वाला है। सियासत के इस कुत्ता काल में किसी कुत्ते को कुकुर समझने की भूल न करें। कुत्ता अब कुछ दिनों में कुत्ता जी होनेवाला है। इसलिए उसके स्वाभिमान पर चोट करना बंद हो। अगर एक बार किसी की तुलना कुत्ते से कर दी तो कर दी। फिर पलट नहीं सकते। कुत्ता समाज ने मांग की है कि इन पलटू नेताओं पर कड़ी कार्रवाई को लेकर कानून में संशोधन का प्रस्ताव संसद में पास हो।

रविवार, 8 नवंबर 2015

लालू हैं अब साथ में...नीतीश जी संभलना !

यूं तो पांचवीं बार लेकिन सीधे तौर पर देखें तो लगातार तीसरी बार नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। लोगों ने प्रचंड बहुमत दिया है। उम्मीद है कि वो कुछ बेहतर करेंगे। जाहिर है ताज के साथ-साथ नीतीश कुमार के सामने चुनौतियों का अंबार भी है। नीतीश कुमार को हर डेग संभालकर उठाना होगा।

पिछली बार जब एनडीए के साथ नीतीश कुमार थे तो इससे कहीं ज़्यादा सीटें मिली थी। अपेक्षाकृत लोग ज्यादा आश्वस्त भी थे। लेकिन इस बार चूकि वो लालू यादव के साथ हैं। लोगों के लिए लालू यादव के राज का अनुभव बहुत सुखद नहीं रहा है। लिहाजा लोग थोड़े बहुत आशंकित जरूर रहेंगे।

जिस तरह से जंगल राज की बात ज़ोर-ज़ोर से उछाली गई थी, इससे साफ है कि दिल्ली की मीडिया की नज़र भी नीतीश के इस शासनकाल पर पैनी रहेगी। खासकर सोशल मीडिया में नीतीश के कार्यकाल को हर दिन कसौटी पर कसा जाएगा। फिलहाल चाहे जो लगे, लेकिन इस कसौटी पर खरा उतरना नीतीश कुमार के लिए बड़ी चुनौती होगी।

नीतीश के इस सफर में पग-पग कांटें होंगे। क्योंकि अगले 5 साल तक अब लोगों का देखने का नज़रिया अब बहुत अलग होगा। अगर कहीं भी छोटी-मोटी घटनाएं होंगी। आपसी रंजिश में गोलियां चल जाएगी। मर्डर होगा। चोरी, डकैती, या लूट जैसी वारदात दो-चार एक साथ हो गई, तो इसे सीधे  जंगल राज से जोड़ा जाएगा।  लोग कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े करेंगे।

अगर अपहरण की एक-दो घटनाएं हो गई। तो कहा जाएगा कि बिहार में फिर अपहरण उद्योग खुल गया। अगर कोई बिना बताए कोई 5 घंटे तक घर नहीं पहुंचा तो लोगों को किडनैप कर लिए जाने की आशंका होगी। और ये तमाम बातें मेन स्ट्रीम मीडिया से अलग सोशल मीडिया पर किस तरह चंद सेकेंड के भीतर विश्लेषण के साथ पसरती चली जाती है ये नीतीश कुमार भी अच्छी तरह जानते हैं और अब लालू यादव भी जान गए होंगे।

क्योंकि मोदी सरकार को लेकर भी ऐसा ही कुछ माहौल है। देश में कहीं भी, कभी भी, किसी भी मुस्लिमों को चोट आती है तो उसे सीधे मोदी से जोड़ दिया जाता है। क्योंकि मोदी सरकार या उनकी पार्टी मुस्लिमों को लेकर हमेशा संदेह में रही है। आरएसएस से जुड़े कुछ संगठनों के कार्यकर्ता उद्दंडता के चरम पर हैं। यही माइनस प्वॉइंट लालू यादव के साथ भी है। वो चाहे कितना भी विकास की बात कर लें, उद्दंडता को लेकर वो, उनकी पार्टी के कार्यकर्ता हमेशा संदेश के घेरे में रहे हैं। छोटी-मोटी घटनाओं को लेकर भी उनके ऊपर सवाल खड़े होंगे। 


एक बात और तथाकथित मोदी भक्त से ज्यादा खतरनाक हैं तथाकथित लालू भक्तमोदी भक्त तो जुबानों से वार करते हैं। लेकिन लालू भक्तों का इतिहास रहा है कि वो मुंह के साथ-साथ हाथ और लात का भी इस्तेमाल करते हैं। जाहिर है, इन भक्तों को संभालना नीतीश कुमार के लिए बड़ा टास्क होगा। 
खुद को हिंदुओं का ठेकेदार कहनेवाले हिंदू सेना सरीखे बेलगाम संगठन जिस तरह से मोदी सरकार के लिए परेशानी की वजह है, उसी तरह लालू भक्तों का झुंड नीतीश कुमार को परेशान करेगा।

इसके अलावा, विकास को भी रफ्तार देना होगा। रोजगार के विकल्प को सतह पर लाना होगा। अस्पतालों की स्थिति सुधारनी होगी। 10 सालों के शासनकाल में जो नहीं कर पाए। उसे करना पड़ेगा। यानी काम बहुत है। हर लिहाज से। कांटों के बीच से नीतीश को रास्ता निकालकर आगे 5 साल तक मुस्कुराते हुए संभलकर चलना होगा। जो आसान नहीं है।