महिलाओं के मंदिर में या फिर मजार पर प्रवेश और
पूजा को लेकर शुरू हुई बहस अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचना चाहिए। इसे टीवी डिबेट में
खपाकर अधूरा छोड़ना ठीक नहीं होगा। हिंदू या मुस्लिम किसी भी धर्म के तमाम अगुवा
को अपनी पुरानी परंपरा में परिवर्तन करने की हिम्मत दिखानी चाहिए। इसे धर्म पर
कुठरघात या फिर चुनौती के तौर पर देखने की जरूरत नहीं है। क्योंकि वक्त के हिसाब
से बदलना कमजोरी नहीं दूरदर्शिता होती है।
यकीन मानिए इस छोटे से बदलाव होने पर कोई भी धर्म कमजोर नहीं होगा, बल्कि और ज्यादा सशक्त होगा। लिबरल धर्म या सिद्धांत अपेक्षाकृत ज्यादा मान्य होता है।
एक तरफ बेटियों को पूजा जाता है। कोई भी धार्मिक
कार्य महिला का बिना अधूरा समझा जाता है। अर्धांगनी का होना अनिवार्य माना जाता
है। महिलाओं को शक्ति का उपासक कहते हैं। फिर अगर कोई महिला मंदिर में जाकर पूजा
करना चाहती हैं, तो इसमें हर्ज क्यों ?
मंदिर में पूजा-पाठ को लेकर शुरू हुई इस बहस को
थोड़ा और विस्तार देने की जरूरत है। और इसकी शुरुआत घर से करनी होगी। हिंदू धर्म
में “मासिक धर्म” से गुजर रही महिलाओं को
तकरीबन एक हफ्ते तक घर के किसी धार्मिक कार्य में शरीक होने की इजाजत नहीं होती
है। चाहे कितना भी जरूरी काम क्यों न हो, “मासिक धर्म” से गुजर रही महिलाएं इसमें
हाथ नहीं लगाएंगी। कहा जाता है कि इस एक हफ्ते के दौरान वो अपवित्र हो जाती है। अब
सोचिए, जो चीज निश्चित है। जो जरूरी है। जिसे भगवान ने खुद तय किया है। उससे परहेज
क्यों ? उसे अपवित्रता का मापदंड क्यों बना दिया गया है ? इसी “मासिक धर्म” की वजह से कोई महिला मां
बनती है। जाहिर है ये किसी महिला के लिए बड़ी बात होती है, फिर “मासिक धर्म” के नाम पर भेदभाव क्यों ? यानी इस पर भी मंथन करने की
घोर जरूरत है।
इसमें किसी को कोई संदेह करने की जरूरत नहीं कि
परंपरा के मुताबिक ही ये सब कुछ हो रहा है। लेकिन जो परंपरा धर्म को, भरोसे को
नुकसान पहुंचाए। उसे बदलने में हिचकिचाहट करना बेवकूफी माना जाएगा। सदियों तक तो
ये भी परंपरा थी कि दलितों का मंदिर में प्रवेश न हो, ब्राह्मण ही मंदिर में पूजा
करेंगे। लेकिन समय के साथ-साथ इसमें बदलाव हुआ या नहीं।
वक्त बदल रहा है। महिलाओं की सोच बदल रही है।
ऐसे में अब भी अगर मंदिरों में महिलाओं की एंट्री पर बैन लगाकर रखते हैं, “मासिक धर्म” के नाम पर उसे अपवित्र घोषित
कर देते हैं तो जाहिर है ऐसे मंदिर से, ऐसे भगवान से, ऐसे धर्म से महिलाओं की
आस्था कम होती चली जाएगी। कोई दूसरा-तीसरा धर्म अपनाएंगी या फिर नास्तिकता की ओर
चली जाएंगी। किसी भी सूरत में आपके धर्म के लिए वो ठीक नहीं होगा।
यकीन मानिए इस छोटे से बदलाव होने पर कोई भी धर्म कमजोर नहीं होगा, बल्कि और ज्यादा सशक्त होगा। लिबरल धर्म या सिद्धांत अपेक्षाकृत ज्यादा मान्य होता है।