शनिवार, 30 जनवरी 2016

सिर्फ मंदिर में प्रवेश नहीं "अपवित्रता" पर भी सोचिए

महिलाओं के मंदिर में या फिर मजार पर प्रवेश और पूजा को लेकर शुरू हुई बहस अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचना चाहिए। इसे टीवी डिबेट में खपाकर अधूरा छोड़ना ठीक नहीं होगा। हिंदू या मुस्लिम किसी भी धर्म के तमाम अगुवा को अपनी पुरानी परंपरा में परिवर्तन करने की हिम्मत दिखानी चाहिए। इसे धर्म पर कुठरघात या फिर चुनौती के तौर पर देखने की जरूरत नहीं है। क्योंकि वक्त के हिसाब से बदलना कमजोरी नहीं दूरदर्शिता होती है। 
 
एक तरफ बेटियों को पूजा जाता है। कोई भी धार्मिक कार्य महिला का बिना अधूरा समझा जाता है। अर्धांगनी का होना अनिवार्य माना जाता है। महिलाओं को शक्ति का उपासक कहते हैं। फिर अगर कोई महिला मंदिर में जाकर पूजा करना चाहती हैं, तो इसमें हर्ज क्यों ?

मंदिर में पूजा-पाठ को लेकर शुरू हुई इस बहस को थोड़ा और विस्तार देने की जरूरत है। और इसकी शुरुआत घर से करनी होगी। हिंदू धर्म में मासिक धर्म से गुजर रही महिलाओं को तकरीबन एक हफ्ते तक घर के किसी धार्मिक कार्य में शरीक होने की इजाजत नहीं होती है।  चाहे कितना भी जरूरी काम क्यों न हो, मासिक धर्म से गुजर रही महिलाएं इसमें हाथ नहीं लगाएंगी। कहा जाता है कि इस एक हफ्ते के दौरान वो अपवित्र हो जाती है। अब सोचिए, जो चीज निश्चित है। जो जरूरी है। जिसे भगवान ने खुद तय किया है। उससे परहेज क्यों ? उसे अपवित्रता का मापदंड क्यों बना दिया गया है ? इसी मासिक धर्म की वजह से कोई महिला मां बनती है। जाहिर है ये किसी महिला के लिए बड़ी बात होती है, फिर मासिक धर्म के नाम पर भेदभाव क्यों ? यानी इस पर भी मंथन करने की घोर जरूरत है।

इसमें किसी को कोई संदेह करने की जरूरत नहीं कि परंपरा के मुताबिक ही ये सब कुछ हो रहा है। लेकिन जो परंपरा धर्म को, भरोसे को नुकसान पहुंचाए। उसे बदलने में हिचकिचाहट करना बेवकूफी माना जाएगा। सदियों तक तो ये भी परंपरा थी कि दलितों का मंदिर में प्रवेश न हो, ब्राह्मण ही मंदिर में पूजा करेंगे। लेकिन समय के साथ-साथ इसमें बदलाव हुआ या नहीं।

वक्त बदल रहा है। महिलाओं की सोच बदल रही है। ऐसे में अब भी अगर मंदिरों में महिलाओं की एंट्री पर बैन लगाकर रखते हैं, मासिक धर्म के नाम पर उसे अपवित्र घोषित कर देते हैं तो जाहिर है ऐसे मंदिर से, ऐसे भगवान से, ऐसे धर्म से महिलाओं की आस्था कम होती चली जाएगी। कोई दूसरा-तीसरा धर्म अपनाएंगी या फिर नास्तिकता की ओर चली जाएंगी। किसी भी सूरत में आपके धर्म के लिए वो ठीक नहीं होगा।

यकीन मानिए इस छोटे से बदलाव होने पर कोई भी धर्म कमजोर नहीं होगा, बल्कि और ज्यादा सशक्त होगा। लिबरल धर्म या सिद्धांत अपेक्षाकृत ज्यादा मान्य होता है।   

बुधवार, 6 जनवरी 2016

मालदा हिंसा पर चुप्पी क्यों ?

पश्चिम बंगाल के मालदा में जो हुआ वो डरावना है। देश के लिए बेहद खतरनाक है। लेकिन उससे ज्यादा खतरनाक है उस घटना पर लोगों की चुप्पी। किसी को फिक्र नहीं है। न सरकार को। न मीडिया को और नहीं देश के बुद्धिजीवियों को। हर किसी ने चुप्पी साध ली है। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। हुआ भी तो मामूली सा हादसा, जिसको लेकर चर्चा करना बहुत ज्यादा जरूरी नहीं। यही चुप्पी अखर रही है। 

3 महीने पहले मुट्ठीभर भीड़ ने धर्म के नाम पर एक शख्स को पीट-पीटकर मार दिया तो हंगामा खड़ा हो गया था। चिंताओं का सैलाब उमर पड़ा था। पूरे देश की सहिष्णुता को कठघरे में खड़ा कर दिया गया था। लेकिन 3 महीने बाद जब हजारों लोगों की भीड़ ने धर्म के नाम पर थाने को जला दिया। पुलिसवालों के साथ मारपीट की। गाड़ियों में आग लगा दी। हथियार बंद लोगों ने फायरिंग की। बीच सड़क पर घंटों तक तांडव मचाया तो आप चुप हैं। आपकी सोच में यही फर्क अखर रहा है।

उन्मादी भीड़ हिंदुओं का हो या फिर मुसलमानों का। दोनों देश के लिए खतरनाक हैं। दोनों से देश की अखंडता पर खतरा है। दोनों समाज को बांटता है। चाहे कोई भगवान श्रीराम को गाली देता है। या फिर कोई मोम्मद पैगम्बर को। या फिर कोई हिंदू देवी देवताओं की नंगी तस्वीर बनाता है, हर कोई खतरनाक है इस धर्मनिरपेक्ष देश के लिए। लेकिन आप एक के बारे में बोलते हैं। नसीहत देते हैं। लेकिन दूसरे को लेकर कुछ नहीं बोलते। आपके विचारों में ये मिलावट अखर रहा है।

घुसपैठिए आतंकवादियों से ज्यादा ख़तरनाक है बौद्धिक आतंकवाद। मालदा घटना पर ये चुप्पी कहीं न कहीं बौद्धिक आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है। हर किसी मुद्दे पर बेबाक टिप्पणी करनेवाले ये बुद्धिजीवी वर्ग एक मोड़ पर आकर क्यों रूक जाता है। देश हित में फेसबुक, ट्विटर पर मुहिम चलानेवाले इन लोगों की अंगुली में लकवा तब क्यों मार देता है जब मालदा जैसी घटनाएं होती है। आपके विचारों में यही अंतर अखर रहा है।

मोहम्मद पैगम्बर के बारे में अपशब्द कहने वाले दो टके के आदमी कमलेश तिवारी को आप उसी तरह सजा दिला सकते थे, जैसे भगवान श्रीराम को गाली देने पर जूनियर ओवैसी को मिली थी। लेकिन धर्म के नाम पर हिंसा करनेवालों को मौन सहमित क्यों? आपकी ये एकतरफ मौन अखर रहा है।
आजादी के बाद से अब तक सिर्फ धर्म, जाति, क्षेत्र के आधार पर वोट मांगनेवाले नेताओं से बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं है। लेकिन आप तो तटस्थ होकर बोल सकते हैं। लिख सकते हैं। सच को सच कहने की हिम्मत कर सकते हैं। लेकिन आप भी तटस्थ नहीं हो पाते हैं। ऐसा क्यों। सोशल साइट्स पर तो खुलकर विचार रख सकते हैं। लेकिन यहां भी आपके विचार धर्म-जाति के आधार पर बदल जाते हैं। यही बदलाव अखर रहा है। 
किसी व्यक्ति, किसी पार्टी से मतभेद हो सकता है। लेकिन उसके लिए कम से कम आपलोग तो समाज को सूली पर मत टांगिए। अगर मुसलमान गलत कर रहे हैं तो आप उसी तरह बोलिए जैसे हिंदुओं के झुंड के गलत करने पर बोलते हैं। या फिर हिंदुओं की मनमानी पर भी आप उसी तरह बोलने की हिम्मत करिए जैसे मुस्लिमों को लेकर बोलते हैं। तभी ये देश बचेगा। नहीं तो यकीन मानिए बुद्धिजीवी होने का ढोंग करने से, तटस्थ होने का नाटक करने से कुछ नहीं बचेगा।