गुरुवार, 25 जुलाई 2013

लौज का रोमांस

लोगों ने प्राइवेट हॉस्टल के नाम को ओवरहॉलिंग करते-करते लॉज बना दिया। जो छोटे बड़े हर शहर के गली मुहल्ले में मिल जाएंगे। जहां रेगिस्तान की छाती पर हराभरा सुनहरा जंगल बसाने की ख्वाहिस लिए लाखों बच्चे रहते हैं।  

शुरू-शुरू में ये किसी सज़ा से कम नहीं होता। लेकिन मजबूरी इसे मजा में बदल देती है। शुरू होता है ज़िंदगी का एक नया ड्रामा। उस ड्रामे में सबकुछ है। इमोशन है। प्यार है। एक्शन भी और सबसे ज्यादा भविष्य के गर्भ में छुपा ज़िंदगी का सस्पेंस भी। जहां कई कठोर निर्णय खुद लेने पड़ते हैं। जहां हर कदम फिसलनदार ज़मीन पर रखना पड़ता है। खुद को खुद से संभालना पड़ता है।

धीरे-धीरे बच्चे इस लॉज को अपना सबकुछ बना लेते हैं। 12 बाइ 10 के रूम की तुलना मुकेश अंबानी की एंटिलिया से होने लगती हैं। एक ही कमरे में पूरा फ्लैट। एक तरफ मां सरस्वती का फोटो तो दूसरी ओर बलखातीइतरातीमुस्कुराती अर्धनग्नावस्था में किसी हिरोइन का पोस्टर। जो आशिकिया मिज़ाज को पुख्ता करता है। रूम पार्टनर पारिवारिक सदस्य हो जाता है। जिससे कभी रोटी की दोस्ती तो कभी भात का बैर। जो भी होबीमार पड़ने पर दवा तो वही लाकर देता है।

इस सब के बावजूद एक बात ख़ास होती है। वो ये कि यहां हर कोई एक दूसरे को निकृष्ट जीव समझता है। हर कोई एक दूसरे से आगे बढ़ना चाहता है। एक ऐसी सोच जनती है जहां खुद को क्रेजी साबित करने की होड़ लगी रहती है। फ्लर्ट करने की हसरत लिए सच्ची झूठी कहानी गढ़ी जाती है।

यहां के रहन-सहन में कोई बंधे बंधाये नियम नहीं होते। कोई कसाव नहीं होता। हर काम में स्वच्छंदता रहती है। एक बिखरी हुई सी अनियमितता रहती है। जहां हर दिन एक रूटीन चार्ट बनता है। शाम होते-होते उसमें परिवर्तन होना शुरू हो जाता हैअगले दिन रुटीन खत्म और अगले सप्ताह फिर से नया चार्ट बनकर तैयार हो जाता है।

मीडिल क्लास फैमिली के बच्चे यहां आकर मनी मैनेजमेंट में पक्के हो जाते हैं। दो हज़ार रुपये में पूरा महीना मैनेज करने की कला कोई इनसे सीखें। मेस चलाना है। ट्यूशन फी देनी है। कॉपी और किताब भी खरीदनी है। और फिल्म का खर्चा भी निकालना है। पैसा जोड़-जोड़ इकट्टा करके फिल्म देखने का उत्साहइंसा अल्लाह। रिलिजिंग डेट पर फिल्म देखने का मजा यहां के बच्चों से ज्यादा भला कौन जान सकता है। जेब में पैसा रहे ना रहेरूतबा तो मुमताज के शाहजहां वाला चाहिए ही। तभी लड़की भी पटेगी।

लॉज में दिन की शुरुआत बड़े ही मजेदार तरीके से होती है। आंख मलते हुए ट्वायलेट जाना। नंबर लगाना पड़ता है। क़िस्मत अच्छी रही तो जल्दीवरना कभी-कभी फिर से एक नींद सोकर उठ जाइयेतब नंबर आयेगा। तभी तो स्वयंभू स्मार्ट लड़के आठ बजे के बाद ही सोकर उठने की चालाकी करते हैं। लेकिन स्नान करने के समय तो यहां पूरा समाजवाद दिखता है। सिक्स पैक बॉडी की तमन्ना रखने वाले तमान बच्चे जब एक साथ नहाने के लिए जमा होते हैं तो देखते ही बनाता है।

गैस ने हॉस्टल में नई क्रांति ला दी। स्टोव की सनसनाहट बंद हो गयी। हांकुकर की सिटी जरूर आवाज लगाती है। एक ही साथ कई कमरे से आवाज निकलती है। एक ही बार में बीडीसी बनकर तैयार। बीडीसीयानी भातदालचोखा की छात्रप्रियता में आज भी कोई कमी नहीं आई है। ये आज भी छात्रों का फेवरेट है। फटाफट एक ही साथ बनकर तैयार। मन किया तो छौंका लगा दियानहीं तो थाली भरकर भातउसके उपर आलू का चोखा और बाटी में दाल। खाते समय किसी फाइव स्टार होटल से कम स्वादिष्ट नहीं लगता। यहां के खाने में एक और ख़ासियत होता है कि यहां कुछ भी ज्यादा नहीं बनता। जो भी बनता हैसबका उदरभाजन हो जाता है।



खैरजो भी हो इस सब के बावजूद यहीं बुना जाता है जिंदगी का तानाबानासपनों में लगते हैं पंख। कोई इंजीनियरिंग की परीक्षा पास करता है। कोई मेडिकल की परीक्षा पास करता है। यहीं कोई मैनेजमेंट की तैयारी का फैसला करता है, कोई सीए का तो कोई जेनरल कंपिटिशन में क़िस्मत आजमाने के लिए घुस जाते हैं।