बुधवार, 26 दिसंबर 2012

राहुल गांधी कहां हैं ?

23 बरस की लड़की वेंटिलेटर पर है। मौत की जंग लड़ रही है। उसे इंसाफ दिलाने के लिए देश के युवा सड़क लड़ रहे हैं। कई दिनों तक राजपथ पर ठिठुरन भरी ठंड में पानी की बौछारों से नहाते रहे। लाठियां खाते रहे। लेकिन देश के सबसे बड़े युवा नेता का दंभ भरनेवाले गायब हैं। उनका कोई अता पता नहीं है।
      आखिर कहां हैं राहुल गांधी ? प्रदर्शन कर रहे, इंसाफ के बदले लाठी खा रहे युवाओं के सामने अभी तक वो क्यों नहीं आए ?  पांच प्रदर्शनकारियों से सोनिया गांधी की मुलाकात के वक्त वो जरूर 10 जनपथ में मौजूद थे। लेकिन बाहर निकलकर जिस तरह से सोनिया गांधी ने प्रदर्शनकारियों से मुलाकात की, वैसी हिम्मत राहुल गांधी क्यों नहीं दिखा पाए ?
       ये सवाल इस लिए अहम है क्योंकि राहुल गांधी युवाओं के ज़रिए ही अपनी राजनीति को मुकाम तक पहुंचाना चाहते हैं। अपने हर संबोधन में, हर भाषण में, हर बयान में युवा की बात करते हैं। कॉलेज दर कॉलेज घूमकर लड़के-लड़कियों से मिलते हैं। उन्हें राजनीति में आने के लिए कहते हैं। युवाओं को एकजुट होने की अपील करते हैं। आज जब युवा एकजुट है। उनकी तरफ देख राह है, तो वो कहां हैं ? जब एक कॉलेज की लड़की से देश की राजधानी में उनके घर से चंद कदम की दूरी पर चलती बस में गैंग रेप हुआ, तो वो मौन हैं। ना तो अफसोस जाहिए किया। ना ही सड़क पर उतरकर कोई कार्रवाई का आश्वासन दिया। ना ही संसद में आवाज उठाई। और ना ही सफदरजंग अस्पताल जाकर उस लड़की का हालचाल जाना।
       वैसे तो राहुल गांधी पर सीधे-सीधे ये आरोप लगते रहे हैं कि राष्ट्रीय मुद्दों पर, या यूं कहें कि उलझे हुए मुद्दों पर वो कुछ नहीं बोलते। मौन साध लेते हैं। इस बार भी सरकार के लिए कम बड़ा संकट नहीं है। पीएम से लेकर गृहमंत्री तक को कोई जवाब नहीं सूझा तो तीन-तीन बेटियों के पिता होने की दुहाई देने लगे। खुद सोनिया को बाहर निकलना पड़ा। वित्त मंत्री रहते हुए अगर पी. चिदंबरम कैबिनेट की बात करने के लिए मीडिया के सामने आते हैं और गैंगरेप मामले पर सफाई देकर चले जाते हैं तो जाहिर है कि सरकार अंदर से घबराई हुई है। और ऐसे मौके पर भी राहुल गांधी, चुप्पी साधे हुए हैं।
      स्वभाविक है राहुल गांधी की इस बार की चुप्पी बड़े सवाल खड़े कर रही है। क्योंकि इस बार बात युवाओं की है। मौत से जूझ रही लड़की के इंसाफ के लिए अगर पूरे देश के युवा साथ है। और खुद को युवाओं का नेता बताना वाला कुछ भी नहीं बोल रहा है तो सवाल उठता है कि आखिर राहुल गांधी किस युवाओं की बात करते हैं। कैसी बात करते हैं। क्या वो अपने भाषण में युवाओं की बात करके सिर्फ उन्हें बरगलाते हैं। सिर्फ वोट बटोरने के लिए युवा-युवा रटते हैं। 

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

बड़े परिवर्तन की ओर देश...


देश सुलग रहा है। माथे में दुपट्टा बांधकर लड़कियां राजपथ और रायसीना हिल्स को नाप रही हैं। महिलाएं चूड़ी और सिंदूर से आगे की सोच रही हैं। विजय चौक पर इज्जत की जीत का झंडा फहराने को बेकरार हैं। कोई एक दो या सौ की संख्या में नहीं। बल्कि हजारों की संख्या में। लाख के करीब।
       अगर इतनी बड़ी संख्या में लड़कियां सड़क पर डटी हुई हैं। सर्द मौसम में भी पानी की बौछार सह रही हैं। लाठियां खा रही हैं। आंसू गैस के धुएं को चीरती हुई आगे बढ़ रही हैं। बुजुर्ग महिलाएं उनका साथ दे रही हैं। संघर्ष में लड़के उनके पीछे खड़े हैं। तो इसका मतलब है कि देश रूढिवादी विचारधारा को तोड़ बड़े परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है।  
        देश के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हो रहा है। जब इतनी बड़ी संख्या में लड़कियां और महिलाएं सड़क पर हैं। बिना किसी नेतृत्व के। बस, अपनी आवाज हुक्मरान तक पहुंचाना चाहती हैं। अपनी इज्जत की खातिर सोई हुई सरकार को जगाना चाहती है। अपने अधिकार की बात कर रही है। वो सख्त कानून चाहती हैं। इसके लिए कुछ भी करने को तैयार है। पुलिस से दो-दो हाथ कर रही हैं। सरकारी जुल्म सह रही हैं।
          देश में या फिर दिल्ली में कोई पहली बार किसी लड़की से गैंगरेप नहीं हुआ। लेकिन प्रतिकार में जो इसबार हो रहा है, वैसा कभी नहीं हुआ। इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं अपनी आवाज उठाएंगी, सरकार को इसका अंदाजा कतई नहीं था। और शायद यही वजह है कि सरकार ये फैसला नहीं ले पा रही है कि वो करे तो क्या करे।
         किसी भी देश में या समाज में परिवर्तन एकाएक नहीं आता। ऐसे ही आता है। सुलगते-सुलगते,आग शोले बन जाते हैं। यही हो रहा है देशभर में। सालों से सुलगती कुंठा अब फूट पड़ी है। हर रोज, सड़क पर,बाजार में, बस में, ट्रेन में, स्कूल कॉलेज, ऑफिस जाते वक्त। घर के छत पर खड़ी हों तो। ना जाने कहां कहां पीड़ा से गुजरना पड़ता है। यही वजह है कि सड़क पर उतरी हर लड़की, रानी लक्ष्मी बाई बनने को तैयार है। कश्मीर से कन्या कुमारी तक, दिल्ली, मुंबई से पटना तक। हर शहर में महिलाएं सड़क पर हैं।   
         महिलाएं अब जान चुकी हैं कि अगर हक़ चाहिए, तो खुद सड़क उतरना होगा। गूंगी बहरी सरकार घर में चुल्हे के पास बैठी औरतों की आवाज नहीं सुनती। कॉल सेंटर में या बड़ी-बड़ी मल्टी ब्रांडेड कंपनियों में काम करने से भी सरकार उनकी आवाज नहीं सुनेगी। बस उनके नाम पर राजनीति करेगी। अगर पचास बरस में एक महिला आरक्षण बिल संसद में पास नहीं करा सकीं, तो भला उनकी इज्जात बचाने की खातिर क्या कर सकती हैं। यही वजह है कि बाबा रामदेव और अरविंद केजरीवाल सरीखे लोग जब प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचे तो लोगों ने उनका तव्वजों नहीं दिया। 

रविवार, 23 दिसंबर 2012

गुड बाय मास्टर...

जीवट क्रिकेटर। बेहतरीन बल्लेबाज। क्रिकेटर बनने का प्रेरणास्रोत। सफल दिग्दर्शक। और मृदुभाषी। 22 गज के पिच पर 38 इंच का बल्ला लेकर क्रिकेट को नई पहचान देनेवाले। क्रिकेट के भगवान। मास्टर ब्लास्टर। शतकों के शहंशाह। रिकॉर्ड के बादशाह। रन बनाने की मशीन। यानी सचिन तेंदुलकर। अब नीली जर्सी में मैदान पर नहीं दिखेंगे। सचिन अब वनडे क्रिकेट नहीं खेलेंगे।
23 सालों तक बतौर बल्लेबाज विरोधियों पर भारी पड़ते रहे। गेंदबाजों के सपनों में आते रहे। मैदान पर फिल्डरों का पसीना निकालते रहे। सचिन ने वो किया, जो पहले किसी ने नहीं किया। वन डे क्रिकेट में सबसे ज्यादा शतक। वनडे क्रिकेट में सबसे ज्यादा रन। वनडे क्रिकेट में सबसे ज्यादा मैन ऑफ द मैच। वनडे क्रिकेट में पहला दोहरा शतक।  
कभी किसी विवाद से नाम नहीं जुड़ा। ड्रेसिंग रूम से मैदान तक। साथी खिलाड़ियों को सिखाते रहे। लोगों को क्रिकेट देखना सिखाया। टीम की हार हो या जीत। हम सचिन को खेलते हुए देखना चाहते थे। वो फॉर्म में रहे या ना रहे। सचिन को टीम में देखना चाहते थे। विरोधियों को हमेशा बल्ले से जवाब दिया। हर आलोचना का उन्होंने सही वक्त पर सटीक जवाब दिया।
किसी का भी हर दिन एक जैसा नहीं होता। सचिन भी अछूता नहीं रहे। उतार-चढ़ाव लगा रहा। कभी चोट की वजह से। तो कभी बुरे फॉर्म की वजह से। उन्होंने भी बुरे दिन देखे। क्रिकेट के भगवान की आलोचना भी हुई। जिन्होंने उनका खेल देखकर क्रिकेट खेलना सीखा। उसने भी सचिन को संन्यास की सलाह देने लगे। कोई उम्र का हवाला देता। तो कोई कुछ और कहता।   
आखिरकार सचिन ने वही किया। वन क्रिकेट को अलविदा कह दिया। सचिन की तुलना हम किसी से नहीं कर सकते। क्योंकि पूरी शदी में एक ही सचिन पैदा होता है। इसलिए सचिन एक ही रहेगा। सबसे अलग। सबसे जुदा। जब-जब प्वाइंट के ऊपर से चौका लगेगा, मास्टर याद आएंगे। 

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

मुख्यमंत्री के नाम चिट्ठी


शीला दीक्षित, मुख्यमंत्री जी,
              नमस्कार, मैं दिल्ली में रहनेवाली एक लड़की हूं। आप मुझे किसी भी नाम से जान सकती हैं। मुन्नी, गुड़िया, रजिया और कुछ और। मुख्यमंत्री जी, कहां से शुरू करूं, समझ में नहीं आता। बातें बहुत सारी है। शिकायतों का पुलिंदा है। जख्मों को कुरेदना नहीं चाहता। लेकिन बातें कहना भी जरूरी है। इसलिए आज कह रही हूं।

मुख्यमंत्री जी, आपकी दिल्ली में डर लगता है। आपके शहर में रहने का मन नहीं करता। घर से निकलने को जी नहीं चाहता। सड़क पर चलते हुए कलेजा कांपता है। जब सड़क पर अकेली रहती हूं, तो सांसे तेज हो जाती है। अनहोनी की आशंका बनी रहती है। बस में जब बैठती हूं, मेट्रो में जब सफर करती हूं। तो घूरती नज़रों को देखर सहम जाती हूं। बाजार में किसी काम से निकलती हूं तो हमेशा एक ख़ौफ बना रहता है दिल में।

आप दिल्ली को लंदन बना देना चाहती हैं। दिल्ली को आप मेट्रो रेल और पार्कों का शहर बना रही हैं। ऊंचे-ऊंचे फ्लाई ओवर बनवा रही हैं। नई नई बसें। प्रदूषण रहित दिल्ली का सपना दिखा रही हैं। लेकिन चमचमाते शहर का स्याह चेहरा आपको क्यों नहीं दिखता। उस बेनूर, बेरंग और मलीन व्यवस्था की ओर आपकी नजर क्यों नहीं जाती, जो आपकी खूबसूरत दिल्ली पर धब्बा लगा रही है।   

आप मुख्यमंत्री हैं। आप सरकार हैं। कानून बनाती हैं। व्यवस्था बनाती हैं। दिल्ली को चलाती हैं। आप कुछ भी कर सकती। तो फिर इंसान के शक्ल में सड़क पर दौड़ते भेड़ियों को काबू करने के लिए कुछ क्यों नहीं करती हैं। कब तक बेखौफ, बेफिक्र, बेगाम, और बेहिसाब कुछ बदतमीज हमारी बहनों की इज्जत के साथ खेलते रहेंगे। कब तक दरिंदों के साये में हमारी बहने जीने को मजबूर रहेंगी।

आप बच्चियों को स्कूल भेजने के लिए तरह तरह की योजनाएं चला रही हैं। अगर इज्जत, आबरू सुरक्षित नहीं रही, तो उस लाडली योजना का क्या मायने जो स्कूलों में हमारी बहनों को मिलती हैं। क्या उन बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेवारी आपकी नहीं है।

मुख्यमंत्री जी, नहीं चाहिए मुझे लाडली योजना। नहीं चाहिए ऊंचे-ऊंचे फ्लाइओवर का शहर। पार्कों और मेट्रो के बगैर भी हम जी लेंगे। लेकिन थोड़ी सी शांति और सुरक्षा दे दीजिए।

जानती हूं की राजनीति में जज्बात कोई मायने नहीं रखता। लेकिन आप भी एक औरत हैं। हमारी तरह। जब आप सीएम बनी थी, तो एक उम्मीद जगी थी। लगा था कि आप हमारे दर्द को समझेंगी। दिल्ली में अब दरिंदे बेकाबू नहीं घूमेंगे। लेकिन राजनीति करते-करते आप इतनी बेदर्द हो गई कि आपको हमारी कोई फिक्र ही नहीं रही। आपके राज में साल दर साल बलात्करी बेलगाम होते गए। इंसान के शक्ल में भेड़िये सरेआम सड़क पर घूमने लगे। वहशी दरिंदे हमारी बहनों को नोचते रहे। हैवानों की टोली उनके बेजान जिस्म के साथ खेलती रही। मेरी सैकड़ों बहनों की हंसती खेलती जिंदगी पलभर में नर्क बन गई। और ऐसे पल्ला झाड़ती चली गई, जैसे कुछ हुआ ही ना हो। आप बड़ी बेबाकी से कह देती हैं कि कानून व्यवस्था आपके हाथ में नहीं है। लेकिन क्या इतनाभर कह देने से आपकी जिम्मेवारी खत्म हो जाती है।

एक या दो घटना हो तो भूल जाऊं। लेकिन आपके राज में हर दिन तकरीबन दो औरतों को इस बेहिसाब पीड़ा से गुजरना पड़ता है। हमारी कई बहने बदनामी की बेइंतहा दर्द लिए गुमान की जिंदगी जी रही हैं। और आप चुप हैं। ऐसा कैसे हो सकता है। आप क्यों नहीं सोचती हैं, इसके बारे में।  
इससे पहले की दर्द दवा बन जाए। आप ही की तरह सब बेदर्द हो जाए। मेरी बातों पर गौर कीजिएगा। कुछ जरूर कीजिएगा।
                              आपके राज में रहनेवाली एक लड़की

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

सड़ी व्यवस्था के शिकार हुए बच्चे

ना तो वे जातिये दंगे के शिकार हुए। ना ही वे साम्प्रदायिक हिंसा में मरे। और ना ही आंतकी घटना में मारे गये। वे मासूम हमारी सड़ी हुई व्यवस्था के शिकार हो गए। वे बच्चे जो मौत का मतलब भी नहीं समझते थे, उनकी जिंदगी दीवारों में दब गई।  
मौत कभी बताकर नहीं आती। अचानक आती है। वहां भी मौत ने चुपके से दस्तक दी। वे बच्चे तो अपनी जिंदगी के सबसे खुशनुमा पलों को जी रहे थे। छह बच्चे एक साथ खेल रहे थे। बच्चों का खेल। लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनकी जिंदगी से खेल होनेवाला है। वे अपने खेल में मशगूल थे। तभी मौत की दीवार गिरी। और बच्चे जिंदा दफ्न हो गए। जब मलबा हटाया गया तो पांच बच्चे दम तोड़ चुके थे। अभी एक बच्चा अस्पताल में मौत से लड़ रहा है।
ये सब कुछ वहां हुआ, जहां देशभर की व्यवस्था बनती है। जहां नियम-कानून बनते हैं। जहां देश के हुक्मरान बैठते हैं। जहां से देश चलता है। नई दिल्ली में।
दिल्ली और उसके आसपास में अक्सर ऐसा होता है। अक्सर बनते-बनते इमारतें ढह जाती है। लोग उसमें दबकर मर जाते हैं। 24 नंबर को फरीदाबाद में फैक्ट्री की बिल्डिंग गिरने से ठेकेदार और मजूदर मर गए। 10 को फिर फरीदाबाद में दीवार के नीचे चार मजदूर जिंदा दफ्न हो गए। 10 दिसंबर को ही दिल्ली में निर्माणाधीन इमारत ढह गई और और चार लोग घायल हो गए। 11 दिसंबर को फरीदाबाद में स्कूल की बिल्डिंग गिर गई और छह लोग मर गए। ये पिछले 20 दिनों का लेखा जोखा है। महीने और साल की फेहरिस्त तो काफी लंबी है।
दरअसल दिल्ली और एनसीआर के इलाके में कहीं भी आप घर बनाना शुरू कीजिए। ईंट और बालू गिरते ही पुलिस पहुंच जाती है। अपनी सलामी लेने। जब तक उनको प्रशन्न नहीं करेंगे, तब तक आप घर नहीं बना सकते। पुलिसवालों को खुश कर दीजिए, उसके बाद जो करना है, करते रहिए।
इसी तरह इमारतें भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी हो जाती है। छोटी-छोटी गलियों में बड़ी-बड़ी इमारतें बना दी जाती है। जिस तरह मंजूरी और निमय कायदों के लिए घटिया व्यवस्था का सहारा लिया जाता है, उसी तरह इमारत बनाने में भी घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है।
कमोबेश यही चल रहा था न्यू अशोकनगर इलाके में। एक प्लॉट पर चारदीवारी दी जा रही थी। बनते-बनते ही दीवार में दरारें आ चुकी थी। उसके बगल में रहनेवालों ने इसकी शिकीयतें भी की। लेकिन सड़ी हुई व्यवस्था ने शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दिया। अब जमीन मालिक, ठेकेदार और मजदूरों की मनमानी की कीमत वहां रह रहे लोगों को चुकानी पड़ रही है। किसी का बेटा नहीं रहा। किसी की बेटी नहीं रही। किसी का तो बेटा और बेटी दोनों खत्म।

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

वो कभी मर नहीं सकता


वो किसी इंसान का नाम होता, तो उसके खत्म होते ही सबकुछ खत्म हो गया होता। लेकिन मरते-मरते तक वो एक सोच बन गया था। विचारधारा बन गया था। या यूं कहिए कि वो एक बीमारी बन गया था, जो उसके दीवानों के खून में ऐसी रच बस गई है, जो आदत में शुमार हो गई है।
जब तक जिंदा रहा, तब तक हंगामा। मर गया तो भी हंगामा। जिंदा था तो शहर से पड़ोसी राज्यों के लोगों को भगाने के लिए हंगामा। पड़ोसी देश से क्रिकेट ना होने देने के लिए हंगामा। अब मिट्टी में दफ्न हो गया तो शहर के चौराहे पर मूर्ति लगाने के लिए उसके दीवानों का हंगामा। शिवाजी पार्क में स्मारक बनाने के लिए हंगामा। रसीदी टिकट पर उसका नाम छपवाने के लिए हंगामा।  
जिसने जिंदगीभर नफरत की रजनीति की। कभी भाषा के नाम पर। कभी क्षेत्र के नाम पर। कभी समुदाय के नाम पर। उसने जब चाहा, तब शहर को तहस-नहस करवा दिया। उसने सरेआम संविधान को कागज का चिथड़ा करार दिया। उसका आदर्श हिटलर सरीखे लोग हुआ करता था। वो खुद को खुदा से कम नहीं समझता था। उसने अपनी मर्जी को कानून समझा। लोगों को समझाया। जिंदा था तो जबर्दस्ती करवाता था। मर गया तो उसके दीवाने कर रहे हैं।
उसने अपने दीवानों को नफरत करना सिखाया। धमकी देना सिखाया। जबर्दस्ती करना सिखाया। उसे भगवान समझनेवाले आज वही कर रहे हैं। चंद फूट के स्मारक बनाने की खातिर सरकार से लेकर कानून तक को ठेंगा दिखा रहे हैं।  
जब भी शिवाजी पार्क में भीड़ दिखती है। माथे में भगवा कपड़ा बांधे सड़क पर बेलगाम लड़के दिखते हैं। नफरत और धमकी की राजनीति दिखती है। भाषा और समुदाय के नाम पर मारते लोग दिखते हैं। तो मन में एक ही बात आती है कि वो कभी मर नहीं सकता। वो आज भी जिंदा है। हमारे राजनीतिक ढांचे में। हमारे समाज में। हमारे सिस्टम में। हमारी व्यवस्था में। 

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

बेरहम वक्त के फेर में फंसे धोनी


बेरहम वक्त किसी को नहीं छोड़ता। हर किसी को वो अपने सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर देता है। वही लोगों को बनाता है। और वही असल में औकात भी दिखा देता है। वक्त से बड़ा कोई नहीं होता। ये अलग बात है कि लोग खुद से सबसे बड़ा समझने लगते हैं।
समय अगर सही हो तो हर फैसला सही हो जाता है। हर चाल सफल हो जाती है। सफलता कदमो को चूमते फिरती है। कल तक गुमनाम गलियों में भटकनेवाला आसमान में तारों की तरह चमकने लगता है। लोग तारीफ करते नहीं थकते। लोग उसकी सफलता को मेहनत का नतीजा बताते हैं। उसकी काबिलियत कहते हैं।
 लेकिन जब वक्त बुरा होता है, तो हर फैसला गलत होने लगता है। हर चाल भटकने लगती है। सफलता उससे दूर चली जाती है। उसके हर फैसले में, हर चाल में लोगों को गलतियां नज़र आने लगती है। वही शख्स, जो कल तक सबसे बड़ा काबिल था, उसी में खामियां नज़र आने लगती है। अपने भी उसपर सवाल उठाने लगते हैं।
महेन्द्र सिंह धोनी। भारतीय क्रिकेट के सबसे सफल कप्तान। जिन्हें कुछ लोग किस्मत किंग भी कहते हैं। वक्त के फेर में फंसे हैं। धोनी के जिस फैसले को, जिस चाल को, क्रिकेट के दिग्गज उनकी काबिलियत का नाम देते नहीं थकते थे, आज वही, धोनी के फैसले पर सवाल उठाने लगे हैं। धोनी से कप्तानी छीनने की बात कह रहे हैं।
 पिछले एक साल से, जो कुछ क्रिकेट के मैदान पर टीम इंडिया के साथ हो रहा है, उसमें धोनी के आलोचक कहीं से गलत भी नहीं लगते। धोनी की हर चाल उल्टी पड़ जाती है। उनके फैसले गलत साबित हो रहे हैं। टीम इंडिया, एक के बाद एक मैच हार रही है। पहले विदेशों में हारकर आई। और अब घर में मिट्टी पलीद हो रही है। टर्निंग पिच का भी पड़ोसी फायदा उठाकर चले जाते हैं । हमारे शेर ढेर हो जाते हैं।
हार के साथ-साथ धोनी के स्वभाव पर भी सवाल उठने लगे हैं। कैप्टन कूल का तमगा देनेवाले, आज उन्हें घमंडी और अक्खड़ कहते फिरते हैं। कैप्टन कूल अचानक लोगों से उलझने लगा। कभी पिच क्यूरेटर से। कभी अंपायर से। नये और युवा खिलाड़ियों को अपने विश्वास में लेकर पहला टी ट्वेंटी का किताब जितानेवाले धोनी का साथी खिलाड़ियों से मन मुटाव की ख़बर आम है।

वाकई, वक्त बेरहम होता है। अगर वो पलभर में जमीन से आसामन में बिठा देता है, तो उसे आसमान से जमीन पर उतारने में भी वक्त नहीं लगता। वक्त का खेल सिर्फ धोनी के संग नहीं। हर किसी के साथ होता है। धोनी चूकी धोनी हैं। इसलिए मीडिया की सुर्खी हैं। वरना इस फेर में हो हर कोई है....