रविवार, 20 नवंबर 2016

रेल मुसाफिरों का दर्द सुनिए 'प्रभु'

रेल मंत्री सुरेश प्रभु जी।  
कहां से शुरू करूं। समझ में नहीं आता। बातें बहुत सारी है। दिक्कतों का खजाना है...शिकायतों का पुलिंदा है। ज़ख्मों को कुरेदना नहीं चाहता। लेकिन बयां करना जरूरी है। एक बार फिर अथाह दर्द है। पटना से लेकर इंदौर तक शोक है। आंखों में आंसू है। आपने फिर रूला दिया रेलमंत्री जी। इससे पहले कि आप की ही तरह सब बेदर्द हो जाये। एक बार आप मेरी बातों पर जरूर गौर कीजिएगा।

रेलमंत्री जी, मौत की आहट देती रेलवे स्टेशन पर जाने का अब मन नहीं करता। मौत के ट्रैक पर दौड़ती रेल पर चढ़ने का अब दिल नहीं चाहता। भारतीय रेल पर कृपा  बरसाने का दावा करके आपने इसे अपने जिम्मे लिया था। लेकिन आपकी रेल और दावे, दोनों फेल हो गये। पिछले  ढाई बरसों में जो कुछ भी हुआ उससे आपका रिपोर्ट कार्ड खून से सना हुआ लगने लगा है

इससे पहले कि आपके रेलवे की खून से भींगी हुई पटरियों के बारे में बताऊं। इससे पहले कि रेलवे की कड़वी हक़ीक़त सुनाऊं। इससे पहले की दुनिया के सबसे बड़े रेलवे का काला सच बताऊं, आपको पुखरायां हादसे के बारे में बताना जरूरी है।  

सुबह का वक्त था। तकरीबन सवा तीन बज रहे थे। इंदौर-पटना एक्सप्रेस रफ्तार से दौड़ रही थी। कुछ लोग इंदौर में चढ़े थे। कुछ लोग उज्जैन में चले थे। कोई अकेला था। कोई परिवार के साथ। ट्रेन की बोगी में कोई सो रहा था। कोई ऊंघ रहा था। कोई जाग रहा था। हर कोई अपनी मंजिल का इंतजार कर रहा था। ट्रेन कानपुर से करीब 100 किमी दूर पुखरायां स्टेशन पहुंची थी। तभी अचानक हादसे की आहट हुई। मौत ने दस्तक की। जोर की एक आवाज गूंजी। भीषण हादसा हो गया। 
चश्मदीद बताते हैं कि अचानक झटका लगा।  कोच S4 चंद सेकंड के लिए धड़धड़ाता रहा। अचानक ब्रेक लगी। कुछ लोगों ने ट्रेन की खिड़कियों और बर्थ को पकड़ लिया। बड़े हादसे ने ट्रेन को अपनी चपेट में ले लिया था। कई डिब्बे पटरी से 25 मीटर दूर खेत में आ चुके थे। कई डिब्बे मलबे में बदल गए थे। कुछ पैसेंजर जिंदा जमीन में दफन हो गए थे...चारों-तरफ चीख पुकार मच गई। 5 मिनट के अंदर सबकुछ बदल गया। आसपास के गांव के लोग दौड़े। उन्होंने मलबे से लोगों को निकालाना शुरू किया।

सुन रहे हैं न रेल मंत्री जी। कलेजा थामकर सुनिएगा। बहुत बड़ा हादसा हुआ है। ऐसा हादसा जिसकी टीस इस देश को हमेशा सालती रहेगी। किसी का बेटा नहीं रहा। किसी की बेटी नहीं रही। किसी के मां-बाप नहीं रहे। किसी की पत्नी नहीं रही। किसी का सुहाग उजड़ गया। किसी- किसी का तो पूरा परिवार ही खत्म हो गया। हंसती खेलती जिंदगी पल भर में तबाह हो गई..।  

कितने लोग इस बार रेल हादसे का शिकार हुए..गिनती 100 के आंकड़े को पार कर गई है..। 100 से ज्यादा लोग जख्मी है। इन आकंड़ों पर मत जाइएगा रेल मंत्री जी। जिंदगी कोई आकंड़ों का हिस्सा नहीं है। आप बस दर्द को समझिए। लोगों को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है। कई सारे लोग हैं जो जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। जिन्हें होश है, वे क्या कह रहे हैं वो सुन लीजिए एक बार।

सुबह होते ही रेलवे के बड़े-बड़े अधिकारी पहुंचे। पुलिस के अफसर पहुंचे। केंद्र सरकार के मंत्री पहुंचे। बीजेपी के सांसद पहुंचे। इस सब के बीच 2 डब्बों के बीच फंसे लोगों को एनडीआरएफ के लोग बाहर निकालते रहे।
हादस में मरनेवालों के लिए मुआवजे का एलान हो गया। घायलों के जख्मों पर मुआवजे का मरहम लागया दिया गया। रेलवे की तरफ से भी। केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से भी।

सुना है कि हर बार की तरह इस बार भी जांच के आदेश दिए गए हैं। एक कमेटी बनाई गई है। कमेटी जांच करेगी। जांच के बाद रिपोर्ट देगी। फिर क्या कार्रवाई होगी ये पता नहीं?

इससे पहले भी कई बड़े रेल हादसे हुए। कई सारी कमेटियां बनी। उसने रिपोर्ट दी। लेकिन क्या हुआ इसका पता नहीं चला। खैर, आपकी सरकार फिर एक बार कह रही है कि जो भी दोषी होगा उस पर कार्रवाई होगी

सुरेश प्रभु जी, आपसे काफी उम्मीदे हैं। आप तो सोशल मीडिया पर मुसाफिरों की सहायता करने के लिए जाने जाते हैं। आप तो रेलवे का आधुनिकीकरण करने के लिए जाने जाने जाते हैं। आप ट्रेन में चलते हुए यात्रियों पर कृपा बरसाते हैं तो फिर ये हादसे क्यों नहीं रूक रहे हैं रेलमंत्री जी।  रेल यात्रियों के लिए आप क्यों नहीं कुछ कर पाते हैं। आप की लाइफलाइन अब डेड लाइन बन चुकी है। कैसे करूं आपकी रेल में यात्रा। अब हिम्मत नहीं करता रेल पर चढ़ने की।
यकीन जानिये रेलमंत्री जी , ट्रेन पर चलते समय हर पल मौत के साये में कटता है। अब डर लगता है ट्रेन पर चढ़ने में। ट्रेन की सिटी अब डराने लगी है। बच्चों में जिस रेल छुक छुक आवाज सुनन के लिए कान तसरसते था आज उसी से डर लगने लगा है। लोहे की पटरियों को देखकर सांसें तेज हो जाती है। एक अनहोनी की आशंका हमेशा मन में बनी रही है। हम डरा नहीं रहे हैं, हकीकात बता रहे हैं रेलमंत्री जी।  

आपको भी याद होगा कि प्रधानमंत्री मोद खुद कई बार रेलवे का जिक्र कर चुके हैं। कई बार बता चुके हैं कि उनका बचपन ट्रेन में गुजरा है। वो रेल को भलीभांति समझते हैं। तो फिर 

----मोदी सरकार के एजेंडे में शामिल होने के बावजूद ऐसे हादसों पर लगाम क्यों नहीं लगी?
----हमारी सरकार बुलेट ट्रेन चलानी की बात करती है। टैल्गो ट्रेन चलाने की बात करती है। लेकिन पैसेंजर्स की सुरक्षा कैसे और कब होगी। आपकी सरकार बने ढाई साल बीत गए। रेल हादसे बढ़ते जा रहे हैं। रेल हादसों में कमी लाने के लिए सरकार ने कोई प्लान क्यों नहीं बनाया?
-----रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए काकोदकर कमेटी बनाई गई थी रेलमंत्री जी। कमेटी में कुछ बातें कही थी। लेकिन अब तक इस कमेटी की सिफारिशें लागू क्यों नहीं की गई?
----बात-बात पर नैतिकता की बात करनेवालों नेताओं के, सरकार की नैतिकता ऐसे हादसों पर कहां चली जाती है?
----पहले तो नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री और फिर बड़े अफसर इस्तीफा तक दे देते थे, लेकिन अब ऐसा क्यों नहीं होता?  

मैं जानता हूं कि राजनीति में जज्बात कोई मायने नहीं रखते। लेकिन इंसान हूं। सुना था कि आप दयावान हैं। उम्मीद थी कि आप अपने यात्रियों पर कृपा बरसायेंगे। लेकिन क्या हुआ? जख्मों पर मरहम लगाने के लिए मुआवजे का ऐलान कर दिया। विरोधियों को जवाब देने के लिए जांच कमेटी बना दी। लेकिन क्या इतने भर से आपकी जिम्मेवारी खत्म हो जाती है। आंसुओं के समंदर में डूबे उन सैकडों परिवारों को आप क्या जवाब देंगे। क्या गलती थी उन बच्चों की जो असमय हादसे के शिकार हो गये। क्या जवाब देंगे उनके मां-बाप को जिन्होंने अपनी बच्ची को ठीक से प्यार भी नहीं किया था, और वो उससे हमेशा के लिए दूर हो गयी। क्या जवाब है आपके पास उन बच्चों के लिए जो अनाथ हो गये। कैसे उन मां के आंसु को रोक पायेंगी, जिनके बुढ़ापे का सहारा आपने छिन लिया। 

ये कोई पहली घटना नहीं है, जिसे भूल जाऊं। हम ये सवाल ऐसे नहीं उठा रहे हैं सर। आकंड़े बहुत ही भयावह है। जब से आपकी सरकार बनी है, तब से देख लीजिए। कितनी मौतें हुई है। 

---- 4 महीने पहले 25 जुलाई 2016 को भदोही में ट्रेन की चपेट में स्कूल वैन आ गई थी,  7 मासूम मौत की हो गई थी। 
----5 अगस्त 2015 को मध्य प्रदेश में हरदा के पास कामयानी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई...29 यात्रियों की मौत हुई
---13 फरवरी 2015 को बैंगलुरू-एर्नाकुलम एक्सप्रेस हादसे का शिकार हुई...हादसे में 10 लोगों की मौत
-----25 मई 2015 को  कौशांबी के सिराथू रेलवे स्टेशन के पास हादसा, 25 लोगों की मौत हो गई
------21 मार्च 2015 को  रायबरेली के बछरावां रेलवे स्टेशन पर हादसा, 32 लोगों की मौत हो गई
-----26 मई 2014 को गोरखधाम एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी, 40 लोगों की मौत हो गई थी 
-----30 सितम्बर 2014 को गोरखपुर में 2 ट्रेनों में टक्कर, 14 की मौत, 50 जख्मी

ये तो कुछ आंकड़े हैं। कुछ हादसों की कथा है। हादसों की फेहरिस्त काफी लंबी है। हादसे रोकने के लिए बड़ा प्लान बनाई सर। बड़ी उम्मीद के साथ सदानंद गौड़ा से लेकर आपके जिम्मे रेलवे को दिया गया था। बुलेट और टेल्गो ट्रेन चालने से पहले हादसा रोकने के लिए जरूर कुछ कीजिए। 
आपका रेलवे इतना लापरवाह क्यों हो गया है। प्रभु इतने बेबस क्यों हो गए हैं? बहुत हो गया सर । आखिर कब तक चलेगा ये सिलसिला। कब जागेगी आपकी ममता। कब तक लोग ट्रेन से यमलोक जाते रहेंगे। अब बस कीजिए रेलमंत्री। प्लीज

शनिवार, 19 नवंबर 2016

नोटबंदी से 'उम्मीदों' की मौत

मैं न तो बीजेपी समर्थक हूं। न कांग्रेस के साथ हूं। न ही दूसरी किसी पार्टी से  जायज या नजायज ताल्लुकात है मेरा। मैं कोई अर्थशास्त्री भी नहीं हूं। आम आदमी हूं। नफा-नुकसान का सीधा मतलब समझता हूं। लॉन्ग टर्म और शॉर्ट टर्म समझ में नहीं आता। यूं कहिए कि समझना नहीं चाहता। क्योंकि आज कटेगा, ये महीना पूरा होगा तो आगे की सोचेंगे। हम तो 20 तारीख के बाद सैलरी का इंतजार करनेवालों में से हैं।

नौकरी पेशा हूं। अप्रैजल का इंतजार करता रहता हूं। कान और आंख खोलकर रखने की कोशिश करता हूं । ताकि इससे ज्यादा सैलरी पर कहीं नौकरी मिल जाए। ताकि कोई नई कंपनी खुले तो उसमें नौकरी मिले।

नोटबंदी से किसे फायदा हुआ नहीं पता। कब फायदा होगा ये भी नहीं पता। कितने कालेधन वाले धन जाने से खुदकुशी कर लेंगे ये भी नहीं पता। कितने लोगों का पैसा कागज का टुकड़ा बन जाएगा ये भी नहीं पता। न ही ये पता है कि देश की अर्थव्यवस्था से कितनी मजबूती मिलेगी।

मैं बस इतना जानता हूं कि हमारे जैसे लोगों के लिए कई संभावनाओं की अचानक मौत हुई है। हमारी उम्मीदों की सरकार ने भ्रूणहत्या कर दी है। जहां-जहां नई नौकरियां दी जा रही थी, उसे तत्काल प्रभाव से रोक दिया गया है। इंटरव्यू होने के बावजूद नौकरी बीच में अटक गई। कई नई कंपनियां पाइप लाइन में थी, जिसका कुछ ही दिनों में औपचारिक एलान होने वाला था, वे प्रोजेक्ट रूक गए। कमोबेश हर  कंपनियों में चर्चा सकारात्मक नहीं है। अप्रैजल पर कटौती की तलवार लटक रही है। दबी जुबान से छंटनी जैसे संकट की चर्चा होने लगी है।

सबसे बड़ा डर तो ये सता रहा है कि नोटबंदी के आड़ में कंपनी वाले कहीं छंटनी न करे। छंटनी से बच गए तो सैलरी में कटौती न कर दें। उससे बच गए तो बढ़ती महंगाई के बीच सैलरी जस के तस रह जाएगी। सबसे बच गए तो खून चूसकर काम करवाया जाएगा। चार के बदले एक आदमी से काम करवाया जाएगा। 

2009 से खराब स्थिति दिख रही है। कैसे मान लूं कि नोटबंदी से फायदे हैं। अगर होंगे भी तो क्या तब तक लोग भूखे रहेंगे? अगर कंपनी चलेगी नहीं। अगर काम होगा नहीं तो मजदूरी कहां से मिलेगी? मजदूरी मिलेगी नहीं तो फिर खाएंगे क्या? बच्चों को खिलाएंगे क्या? उन्हें पढ़ाएंगे कैसे? वक्त गुजर जाने के बाद कुछ नहीं होता। अगर बच्चों की पढ़ाई का वक्त बीत जाएगा तो बाद में फ्री में एडमीशन होने का भी क्या फायदा होगा?  

आपको अगर नोटबंदी पसंद आ रही है तो आपको मुबारक। आप अगर किसी दूसरे के पैसे बर्बाद होने से खुशी मिल रही है तो आपको मुबारक। आप अगर इस गलतफहमी हैं कि दो नंबर का पैसा इकट्ठा करनेवाले कंगाल हो जाएंगे, देश में समाजवाद आ जाएगा तो ये गलतफहमी आपको मुबारक। लेकिन अच्छे दिन के धागों से बनी अफवाहों की चादर से बाहर झांकिएगा  तो आप भी कमोबेश मेरी तरह महसूस कीजिएगा। अगर आप ऐसा महसूस नहीं कर पा रहे हैं तो आप में जरूर कुछ विशेष है।

रविवार, 6 नवंबर 2016

सियासत में सेहत 'धुआं-धुआं'

दिल्ली में पिछले 2-3 दिनों से चारों तरफ धुआं-धुआं है। दोपहर में अंधेरा सा है। कोहरा नहीं है। हवा में घुल चुके जहर का असर है। प्रदूषण की चादर से आसमान लिपटी हुई है। दिल्ली की सांसें फूल रही है। यकीन मानिए...दिल्ली की एक बड़ी आबादी ने ऐसी भयानक तस्वीर कभी नहीं देखी होगी। वाकई दिल्ली गैस चैंबर बन चुकी है। दिल्ली में प्रदूषण ने पिछले 17 बरस का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। प्रदूषण मापने वाली मशीन भी छोटी पड़ी गई। तय मानकों से 17 गुना ज्यादा खतरानक एयर क्वालिटी हो चुकी है दिल्ली की। 
         
जिस दिल्ली में पीएम से लेकर तमाम मंत्री, अफसरान, सीएम तक रहते हैं। उस दिल्ली का दम फूल रहा है। देश की सबसे बड़ी बड़ी अदालत है। देश की दिशा तय करनेवाल दिल्ली बीमार हो रही है। बेचैन हैं दिल्ली वाले। कौन बचाएगा? प्रदूषण रिकॉर्ड तोड़ रहा है। कौन रोकेगा? गैस चैंबर बन चुकी है दिल्ली। कौन बाहर निकालेगा? हवा में बदबू है। लोग सांस कैसे लेंगे?  
           
दिल्ली में तीन निज़ाम हैं केंद्र, राज्य और एमसीडी। लेकिन तीनों लाचार दिख रहे हैं। दिल्ली को बचाने के लिए कोई बड़ा उपाय ढूंढने की बजाय सियासत में उलझे हुए हैं। एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। बैठक पर बैठक कर रहे हैं। दिल्ली सरकार कहती है कि प्रदूषण के लिए हरियाणा और पंजाब की सरकार जिम्मेदार है। क्योंकि दोनों राज्यों में फसलों को जलाया जा रहा है। अब जब स्थिति हद से गुजर गई है तो पंजाब के सीएम किसानों को फसल नहीं जलाने की अपील की है। लेकिन प्रदूषण की सियासत में दिल्ली वाले पिस रहे हैं। 
           
जहर घुली हवा जब सिर पर मंडराने लगी। जब लोगों की सांसें फूलने लगी। तब जाकर केजरीवाल को आम आदमी की फिक्र आई। मंत्रियों को इकट्ठा किया। कई बड़े फैसले लिए। स्कूल बंद। फैक्ट्रियां बंद। जेनरेटर्स बंद। कंस्ट्रक्शन बंद। डिमोलिशन बंद। डीजल गाड़ी बंद। बहुत कुछ बंद। अब कलेकिन केजरीवाल के फैसले कितने कारगर होंगे, इसे देखना है। लेकिन जिस तरह से फैसला लेते-लेते केजरीवाल ने देरी की, उससे सवाल तो उठेंगे ही। क्योंकि पिछले बरस ही कोर्ट ने सरकार को चेता दिया था। 
             
सवाल केंद्र सरकार पर भी उठेंगे। क्योंकि इसी दिल्ली में प्रधानमंत्री भी रहते हैं। मोदी के तमाम मंत्री भी रहते हैं। उन्होंने क्या किया। क्या सियासत की आड़ लेकर दिल्ली को छोड़ देना जायज है? अगर केजरीवाल सरकार निंद में सोती रही, अगर खुदकुशी करनेवाले पूर्व फौजी के शोक में डूबी रही, एलजी से तकरार में उलझी रही तो इसका मतलब ये नहीं कि केंद्र सरकार भी दिल्लीवालों को भगवान भरोसे छोड़े दे? क्या मोदी को, मोदी के मंत्रियों को  दिल्ली की आवोहवा नहीं दिख रही है?
           
असल में शहाद और खुदकुशी पर सियासत करनेवालों को स्मॉग में भी कुछ फायदा दिखने लगा। अगर ऐसा नहीं है तो फिर जब लोग बीमारी की दहलीज पर खड़े हैं तो मिलकर क्यों कोई ठोसा उपाय किया जा रहा है? लोगों को साफ हवा भी क्यों मुहैया नहीं करा पाती है सरकार? जब पिछले साल ही स्थिति बेकाबू हो गई थी तो फिर इस साल भी पहले से क्यों नहीं तैयारी की गई?