शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

मैं अखलाक़ बोल रहा हूं।

मैं अखलाक़ हूं। नाम तो सुना ही होगा आपने। आज कल हर जगह मेरी ही चर्चा है। हर जुबां पर मेरा नाम है। टीवी पर। अखबार में। सोशल मीडिया में। वहां भी, जिसके बारे में जिंदा रहते मैंने कभी सुना भी नहीं। सियासत के स्याह कमरे में मेरे ही नाम का च़राग जल रहा है आजकल। विचारों के दिवालियापन का शिकार हो चुके, अंधेरे में घिरे हर सियासतदां, मेरे ही नाम की रौशनी के आसरे आगे का सफर तय करने में जुटे हैं। इस रौशनी को बांटने के लिए भी लड़ रहे हैं हमारे रहनुमा। हर कोई अपने हिस्से में पूरा समेट लेना चाहता है मुझे। ग़जब़ हाल है।

कल तक किसी को मेरा ख्याल नहीं था। मैं कौन हूं। क्या हूं। क्या करता हूं। कैसे रहता हूं। किसी को कोई मतलब नहीं था। गुमनाम पते पर मुफलिसी के मकान में अपने परिवार के साथ जिंदगी बिता रहा था। अचानक मेरी मौत ने मुझे मेरे मजहब का मान बना दिया। आज मैं किसी का सगा हो गया। किसी का अपना हो गया। हर किसी को मेरे परिवार की फिक्र होने लगी।   

गरीबी में पूरी उमर गुजर गई मेरी। क्या बताऊं अपने बारे में। मीडिया वाले तो सबकुछ बता ही रहे हैं। बाकी तो मेरे घर की तस्वीर देखकर अंदाजा लग गया होगा। गुमनामी के अंधेरे में रोज लड़ते-लड़ते अपने परिवार का पेट भरता था। किसी को मेरी जरूरत से मतलब नहीं। आज मेरी मौत पर मातम मनानेवालों की कतार लगी है। मैं जानता हूं क्यों।

अगर मैं बीमारी से मर गया होता, तो भी क्या ये टोपी वाले हजारों किलोमीटर का सफर तय कर मेरे घर आते ? अगर मैं किसी हादसे का शिकार हो जाता तो भी क्या मुख्यमंत्री चेक और शोक संदेश भिजवाते ? अगर मेरा भाई, मेरा बेटा मेरी जमात का कोई कातिल मेरा कत्ल कर देता, तो भी क्या केंद्रीय मंत्री, बड़े-बड़े अफसर मेरे घर यूं आते? नहीं। बिल्कुल नहीं आते। ये सब सियासी हिसाब का जोड़-घटाव करने के बाद मेरे घर आएं हैं।

मैं कैसे समझाऊं इन्हें। कैसे बताऊं मैं सरकार को। जिनके मंत्री मेरे घर पर मातम में शरीक होने के लिए आते हैं। जिन्हें मेरी मौत अब भी हादसा लगता है। चारों तरफ से घेर लिया थे हमे। कातिलों ने रात के अंधेरे में। जब खिड़की और दरवाजा पीटना शुरू किया। सहम गया था। मेरा पूरा परिवार। रहम की भीख मांगते रहे हम। उन्होंने पीट-पीटकर मार डाला मुझे। मेरे परिवार पर लाठियां बरसाई। लाउडस्पीकर पर ऐलान करने के बाद वे मेरी हत्या करने आए थे। और आपको लगता है कि हादसा था।

मैं पूछना चाहता हूं उन्हें, जिन्होंने मेरा कत्ल कर दिया। पिछले 40 बरस में कभी मुझे गाय का मांस खाते नहीं देखा। उसदिन अचानक कैसे देख लिया। मेरे घर आते थे कपड़ा सिलवाने। कभी नहीं देखा। ईद और बकरीद में हर बरस मिलते थे। इस खुशी के दिन भी मेरे घर में कभी गाय का गोश्त नहीं देखा। आज कैसे नज़र पड़ गई। रात के अंधेरे में कैसे मैं नापाक हो गया। सियासी चश्मे ने मुझे काफिर बना दिया। कितने बड़े बुजदिल निकले यार तुम लोग भी। मुझे मारने के लिए मंदिर के लाउडस्पीकर से ऐलान करना पड़ा। सच बताऊं। तुम्हारे धर्म को तो तुम लोगों से ही सबसे बड़ा खतरा है।

और इन टोपी वालों को कैसे बताऊं। दाढ़ीवालों को कैसे समझाऊं कि मेरे परिवार को बचानेवाले भी वही हिंदू थे। उन वहशियों के सामने मैं और मेरा परिवार अकेला था। कुछ हिंदू भाइयों ने ही तो मेरे परिवार की इज्जत बचाई। उनकी जान बचाई। वरना, वे दरिंदे तो सबकुछ बर्बाद कर देते। मुझे पता है कि न तो आप उस वक्त बचाने आए थे। और न ही, आगे कभी बचाने आएंगे। गुश्ताखी माफ कीजिएगा। इतिहास बता रहा है कि आपका चरित्र कैसा है।

मेरे नाम का मतलब समझते हैं आप। अख़लाक़ का मतलब होता है अच्छा चरित्र। लेकिन उन हैवानों ने मुझे मेरे चरित्र के बारे में सफाई देने का भी वक्त नहीं दिया। सच कहूं तो मेरी मौत के बाद भी लोग मेरे चरित्र की परिभाषा अपने-अपने हिसाब से गढ़ेंगे। अपनी-अपनी सहूलियत के मुताबिक। खैर। कोई बात नहीं। मायावी दुनिया की यही हक़ीक़त है।

अंत में सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि मैं सिर्फ मोहरा था। बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा बना दिया गया था मैं। संभल जाइए आपलोग। यूपी में चुनाव होनेवाला है। आगे ऐसे कई मौके आएंगे। फिर कोई अखलाक होगा। या फिर कोई आकाश होगा। फिर कभी किसी मंदिर के लाउडस्पीकर से ऐलान होगा। किसी मस्जिद से आवाज आएगी। उस आवाज के पीछे हैवान बनकर मत दौड़िए। उन्हें हमारी मौत से कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे परिवार को फर्क पड़ता है। हमारी मौत के बाद। हमारे बिखरे हुए भरोसे का फायदा उठाकर वो टीवी पर, कैमरे के सामने यूं ही प्रवचन देते रहेंगे। वोट बटोरते रहेंगे। और हमारा परिवार दर-दर की ठोकरें खाता रहेगा। आंखें खोलिए। संभल जाइए।

मोहम्मद अखलाक़

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सही और सटीक बात | अफसोस कि ऐसी घटनाएं विश्व में धीरे धीरे बदल रही भारत की छवि को बहुत नुकसान पहुंचाती हैं .;..राजनीतिक रोटियाँ सेंकना तो यहाँ के राजनीतिज्ञों की पुरानी आदत रही है

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  2. अंकुर जी, ऐसा लगा जैसे अखलाक खुद अपनी वेदना बोल रहा है। सुंदर प्रस्तुति...

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