असहिष्णुता आखिरकार संसद की
चौखट तक पहुंच ही गई। यानी अब दोनों सदनों में असहिष्णुता को मथा जाएगा। सरकार और
विपक्ष के बीच बहस होगी। भावनाओं की चाशनी मे लपेटकर आंकड़ों और तर्कों की सियासत
होगी। निकलेगा क्या ये सबको बता है।
सवाल उठता है कि अचानक कैसे लोगों को लगने लगा
कि देशभर में चारों तरफ खौफ ही है। हर घर के बाहर हाथ में खंजर लिए लोग मारने के
लिए खड़े हैं। सांस लेने तक में तकलीफ हो रही है। इमरजेंसी से भी बदतर हालात हो गए
हैं। उससे भी बड़ा सवाल ये है कि अखलाक को पीट-पीटकर मारने की घटना के बाद क्या देशभर
का माहौल इतना बिगड़ गया कि आमिर खान सरीखे लोगों को भी डर लगने लगा। क्या
फरीदाबाद में दलित परिवार को जिंदा जलाने की घटना से देशभर के लोग डर गए। या फिर
कलबुर्गी की हत्या ने देश को हिंसक बना दिया।
याद कीजिए 1999 में उड़ीसा में इसाई
मिशनरी ग्राहम स्टेंस को जिंदा जला दिया था दारा सिंह ने। दारा सिंह भी हिंदूवादी
संगठन से ताल्लुक रखता था। ग्राहम स्टेंस के साथ मरनेवालों में उसके दो मासूम
बच्चे भी थे। क्या उससे भी खौफनाक घटना थी अखलाक की हत्या। लेकिन उस वक्त
असहिष्णुता की कहीं चर्चा नहीं हुई। याद कीजिए उस दौर को जब बिहार में दलितों का
नरसंहार हुआ था। क्या तब देश सहिष्णु था।
2014 के आंकड़े बताते हैं कि यूपी में
रेप की हर दिन औसतन 10 घटनाएं होती है। रेप की शिकार ज्यादातर लड़कियां दलित या
फिर अल्पसंख्यक समुदाय से होती है। लेकिन इसको कभी सहिष्णुता से जोड़ा नहीं जाता। आंकड़ा
टटोलिये तो आपको दिखेंगे कि कैसे देशभर में आरटीआई कार्यकर्ता मौत के घाट उतार दिए
जाते हैं। कहीं चर्चा नहीं होती। फिर अचानक एक साल में कैसे बुद्धिजीवियों को फासीवाद
दिखने लगा। देश असहिष्णु दिखने लगा।
दरअसल ये सोशल मीडिया का कमाल है। जहां बात तो
आग और तेल से भी ज्यादा तेजी से पसरती चली जाती है। लोग अपने-अपने तरीके से बेरोक-टोक
विश्लेषण करने लगते हैं। बात को शांत करने की बजाय उसे बतंगड़ बनाया जा रहा है। आमिर
खान के घर के बाहर अगर हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रहे हैं तो इस
बात को ऐसे बताया जा रहा है कि जैसे पहले कभी हुआ ही नहीं। सवाल उठता है कि क्या
इससे पहले कभी शाहरुख, आमिर या फिर सलमान खान के पोस्टर नहीं फाड़े गए। या फिर
इनके फिल्मों का विरोध नहीं हुआ? क्या इससे पहले कभी शाहरुख या आमिर खान को अतिवादियों ने
पाकिस्तान जाने की बेशर्म नसीहत नहीं दी? शिवसेना सरीखे संगठन, प्राची, साक्षी, योगी
जैसे लोग कई बार इस तरह की बेहूदी बातें कर चुके हैं। क्या तब लोगों को डर नहीं लग
रहा था ? दरअसल ये कैमरा और फ्लैश के जरिए टीवी पर शब्दों और चेहरों के चमकने का दौर
है। ये वो दौर है जहां समाज और देश से इतर राजनीति साधने की सियासत हो रही है।
इस
सब के बीच सब से डरावनी बात ये है कि असहिष्णुता को लेकर जो लकीर खींच दी गई है,
उसके संकेत भविष्य के लिए बहुत बेहतर नहीं है। इसपर सियासत थमने वाला नहीं है। क्योंकि
जो सवाल उठाए जा रहे हैं, पुरस्कार वापसी से लेकर साहित्यकारों, कलाकारों और फिर
नेताओं की जुबान से जो डर और खौफ की बातें हो रही है, उन बातों को सियासत अपनी तरीके
से भुनाने में लगी है। बिहार चुनाव के बाद ठंडा पड़ चुके इस मुद्दे पर जब आमिर खान
ने सवाल उठाया तो बात संसद तक पहुंच गई। विपक्ष ने असहिष्णुता पर चर्चा के लिए सरकार
को नोटिस थमा दिया।
यकीन मानिए। संसद से लकेर टीवी चैनल के स्टूडियो में इसको लेकर
कितनी भी चर्चा करवा लीजिए। ये मुद्दा थमने वाला नहीं है। क्योंकि कांग्रेस और
विपक्ष को लगता है कि उसे असहिष्णुता नाम का एक ब्रह्मास्त्र मिल गया है। जिसके
जरिए मोदी सरकार को डिगाया जा सकता है। बिहार में इसका उदारहण भी मिला। असहिष्णुता
और पुरस्कार वापसी को लेकर छिड़ी बहस के बीच हुए बिहार चुनाव में बीजेपी को मुंह
की खानी पड़ी। याद होगा कि इससे पहले दिल्ली के चुनाव के वक्त भी चर्च पर हमला
जैसा मुद्दा गरम था।
यानी सियासत अब ऐसे ही मुद्दों के आसरे आगे बढ़ेगी। मुमकिन है
कि इससे भी इतर ऐसे मुद्दे उछाले जाएं तो सियासत को जरूर साधनेवाला हो, लेकिन देश
की जड़ को नुकसान पहुंचाए। क्योंकि जो अभी विपक्ष में हैं, वो कभी सत्ता में
होंगे, और जो सत्ता में हैं, वो विपक्ष में होंगे। उस वक्त भी बड़े-बड़े
साहित्यकार और कलाकर किसी और मुद्दे पर बोलने के लिए हाथ में पुरस्कार लेकर खड़े
होंगे। यानी सियासत का जो दौर चल पड़ा है वो सामाजिक असहिष्णुता से ज्यादा डरावना
और असहिष्णु है।
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