फागुन शुरू हो चुका
है। जाड़ा ढलान पर है। मौसम के साथ मूड भी चेंज हो रहा है। नया जोश। नई उम्मीद। नई
कोशिश। एक सपना। नहीं महासपना कहिए। क्योंकि राज्यस्तरीय सपने को समेटकर राष्ट्रीय
स्तर पर तैयार हुआ ये महासपना है।
कुछ लोगों का ये
सपना पुराना है। बहुत पुराना। जिस पर लगी जंग को हटाने की जद्दोजहद हर पांच साल पर
होती है। एक आध बार की आंशिक कामयाबी को अगर छोड़ दें तो ये सपना पूरा होने से
बहुत पहले नींद खुल जाती है। सबकुछ धरा का धरा रह जाता है।
अंतिम बार 1996 में
महासपना पूरा हुआ था। याद होगा कि ज्योति बाबू पीएम बनते-बनते रह गए थे। मॉडर्न
पॉलिटिक्स के समाजवादी नेताजी के सपने को लालू जी ने लथाड़ मार दिया था। जेहन में
लगी चोट से नेताजी आज तक कराह रहे हैं। लेकिन कोशिश में लगे हुए हैं। हर चुनावी
साल में नए साथी की तलाश में भटकते रहे हैं।
नीतीश बाबू की
बैचेनी आसानी से समझी जा सकती है। अति महत्वाकांक्षा में फंसकर ना घर के रहे ना
घाट के। ना बीजेपी में रहे और ना ही कांग्रेस इन्हें अपनाया। जयललिता कब मोदी की
तरफ मुड़ जाए कहना मुश्किल। रही बात वाम दल, बीजू जनता दल और जेडीएस की तो इनकी
राजनीति में इनके पास थर्ड फ्रंट के अलावा कोई चारा नहीं है।
लिहाजा एक बार फिर से तकीए
के नीचे दबा कर रखे गए इस महासपने को बाहर निकाला गया है। इस पर जमी धूल को सबने
मिलकर झाड़ा है। उसे चमचमाने की कोशिश शुरू हो चुकी है। इसके लिए थर्ड फ्रंट नाम
के वासिंग पाउडर में कुछ पुराने और कुछ नए केमिकल मिलाए गए हैं। ताकि इस बार झकास
सफेदी दिखे।
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