मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

मुहब्बत की सजा मौत !

उन्होंने ना तो कोई मजहबी फसाद किया था। ना ही बम धमाकों में मासूमों की जान ली थी। वे किसी आतंकी संगठन के सदस्य भी नहीं थे। ना ही उनके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा था। ना तो वे लाल मस्जिद पर कब्जा करने के फिराक में थे और ना ही वे राष्ट्रपति को अगवा करने का प्लान बना रहे थे। लेकिन उन्हें इन सभी गुनाहों से बढ़कर सजा मिली।

वे दोनों भी अगर इस्लामाबाद के बीच चौराहे पर बंदूक तान कर कत्ल-ए-आम किए होते तो बच जाते। लेकिन उनसे उससे भी बड़ी खता हो गई थी। वे दोनों एक-दूसरे से मुहब्बत कर बैठे थे। वे नासमझ हैवानों के बीच प्यार का पैगाम बांटने चले थे। उन्हें इस बात का इल्म नहीं था कि उनके समाज में खून माफ हो सकता है, लेकिन मुहब्बत नहीं।

वे दोनों एक-दूसरे से बेइंतहा मुहब्बत करते थे। इश्क सच्चा था। जिंदगी भर साथ जीने मरने की कसम को पूरा करने के लिए हद पार कर दी। घरवालों ने दोनों की अलग-अलग शादी कर दी। दोनों अलग हो गए लेकिन जेहनी तौर पर जुदा नहीं सके। समाज के सभी रस्मो रिवाज के तोड़कर फिर से एक हो गए। बस, यही गलती उनकी जान पर बन आई।

बुजदिलों की पंचायत बैठी। लंबी-लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए मौलवी ने फरमान सुनाया। हुक्म की तामील हुई। और दोनों को पत्थर से पीट पीटकर मार दिया गया।

वाकई दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है। मानव विकास ने अपने आयाम में कई कड़ियां जोड़ ली है। लोग सपनों से आगे सोचने लगे हैं। पाकिस्तान के लोरलई की ये घटना इसी का प्रमाण है।

1976 में एक फिल्म आई थी लैला मजनूं। उस फिल्म में भी कुछ ऐसा ही दिखाया गया था। जमाने की परवाह किए बगैर लैला-मजनूं दोनों एक दूसरे से इश्क करते हैं। समाज के ठेकेदार मजनूं को पत्थर से मार मार कर हत्या करने का फरमान सुनाता है। लेकिन एन वक्त पर लैला आकर मजनूं को इस शर्त पर बचा लेती है कि मजनूं शहर छोड़ देगा।

लेकिन हकीकत उससे ज्यादा खौफनाक निकला। पाकिस्तान की उस लड़की को इतना भी मौका नहीं दिया गया। कि वो अपने मजनूं के लिए रहम मांग सके। उसकी जान बचा सके। दोनों की हत्या कर दी गई। हजारों की भीड़ में कोई ऐसा नहीं निकला, जिसके सीने में 4 इंच का दिल हो। जो इस जुल्म का विरोध कर सके। जो उन दोनों के मासूम जज्बातों को समझ सके।   


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