गुरुवार, 7 मार्च 2013

आत्मविश्वास से ही जीत है!


गिरकर संभलना कोई उससे सीखे। अपने बिखरे हुए विश्वास को समेटना कोई उससे सीखे। हारकर जीतना कोई उससे सीखे। आलोचनाओं से सीखना कोई उससे सीखे। वक्त से लड़ना कोई उससे सीखे। वक्त बदला। हालात बदले। जो कल तक उसको पानी पी-पी कर कोस रहे थे। आज फिर वे उसकी तारीफों में कसीदे गढ़ रहे हैं।

महेन्द्र सिंह धोनी। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान। महेन्द्र सिंह धोनी के लिए पिछले डेढ़ बरस बेहद खराब रहा। जो शख्स आसमान में बुलंदियों की ऊंचाई से ऊपर उड़ रहा था, वो अचानक धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। देश को क्रिकेट में दो-दो विश्वकप दिलानेवाले कप्तान पर सवाल खड़े होने लगे। धोनी के फैसले पर। खेल पर। बॉडी लैंग्वेज पर। विश्वास पर। व्यवहार पर। हर स्तर पर धोनी की आलोचना होने लगी। मौका परस्त साथी भी साजिश रचने लगे। लेकिन धोनी ने हार नहीं मानी।  

विश्वकप जीतने के बाद जिस इंग्लैंड की टीम ने धोनी के आत्मविश्वास को तोड़ दिया था। उसी अंग्रेजों के खिलाफ धोनी ने नई शुरूआत की। वन डे में न सिर्फ खुद अच्छी पारियां खेली, बल्कि साथियों का भी आत्म विश्वास बढ़ाया।

फिर आई कंगारूओं की बारी। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ चेन्नई में। चेपॉक स्टेडियम में टीम इंडिया के 4 विकेट आउट हो चुके थे। सचिन,सहवाग, मुरली, पुजारा ड्रेसिंग रूम लौट चुके थे। तब धोनी ने न सिर्फ खुद धुआंधार पारी खेली, बल्कि साथी खिड़ालियों का भी हॉसला बढ़ाया। धोनी ने बिखरी हुई टीम को समेटा। उन्होंने खुद एक ही दिन में 203 रन ठोक दिए। धोनी को कोहली, अश्विन, भुवनेश्वर जैसे युवाओं का साथ मिला। और धोनी के दिन लौट आए। चेन्नई के बाद हैदराबाद में धोनी के धुरंधरों ने फिर ऑस्ट्रेलिया को पानी पिला दिया। पारी और 135 रनों से करारी हार। पुजारा का दोहरा शतक। मुरली विजय का शतक। जडेजा और अश्विन की शानदार गेंदाबाजी।

अब फिर मैदान में वही हो रहा है, जो डेढ़ बरस पहले होता था। धोनी का हर फैसला सही होने लगा। बॉडीलैंग्वेज पर अब सवाल नहीं होते। आलोचकों को धोनी का आत्मविश्वास और व्यवहार अच्छे लगने लगे हैं। कप्तानी छोड़ने की सलाह देनेवाले सुनील गावस्कर फिर उन्हें 2019 तक कप्तान बनाए रखने की वकालत कर रहे हैं। टीवी स्टूडियों में बैठकर धोनी को कोसनेवाले स्वयंभू महान क्रिकेटर को अब जवाब नहीं सूझ रहा।


  

सोमवार, 4 मार्च 2013

लाचारी को कौन सुधारेगा?


बेचारा डीएसपी। लाचार। बेबस। निसहाय। सरकारी भीड़ का शिकार हो गया। मंत्री के गुर्गों ने उसे मार डाला। खाकी और खादी की टक्कर में खादी फिर भाड़ी पड़ी। खादी में छुपे गुंडों ने खाकीवाले की हत्या कर दी। वो चीखता रहा। चिल्लाता रहा। सरेआम। कानून का कत्ल हुआ। लेकिन किसी ने नहीं देखा। गणतंत्र में गनतंत्र से लड़नेवालों को मरते हुए देखने की हिम्मत किसी में नहीं। मौका-ए-वारदात पर वो कोई नहीं था, जिन्हें हिंद पर नाज है।

एक हंसता-खेलता परिवार बिखर गया। एक लड़की महज कुछ महीनों में विधवा हो गई। बूढे मां-बाप का सहारा खत्म हो गया। डीएसपी के अपने अब इंसाफ मांग रहे हैं। लेकिन इंसाफ देगा कौन। सरकार। वही सरकार जिसके मंत्री पर हत्या करवाने का आरोप लगा है। उसी मंत्री पर जिसके सामने किसी की नहीं चलती। वो अपने आप में सरकार है। राजा है। लोग उसे राजा भैया कहते हैं। यूपी के समाजवादियों के भैयाजी यानी अखिलेश यादव के भी भैया।

इंसाफ मांग रही डीएसपी की पत्नी से मिलने के लिए मुख्यमंत्री पहुंचे। सबसे पहले डीसपी की कीमत लगा दी। 25 लाख रूपये। फिर पेंशन दोगुना करने का वादा। और फिर पूरी घटना की सीबीआई से जांच कराकर दोषियों को कड़ी सजा दिलाने का दावा। उसी सीबीआई से जो सांप-सीढी के खेल में उलझी रहती है।

और इस सब के बीच डीएसपी की मौत पर हो रहा है खेल। वही गंदा खेल। जिसे राजनीति कहते हैं। बीएसपी-एसपी-कांग्रेस-बीजेपी। संसद से सड़क तक हंगामा। मौका मिला है। सब के सब पत्ते खेल रहे हैं। कोई कानून व्यवस्था का पत्ता फेक रहा है। तो कोई अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का पत्ता। मायावती डीएसपी की मौत का हिसाब मांग रही हैं। तो मुलायम सिंह यादव उन्हें फ्लैश बैक में ले जाकर आइना दिखा रहे हैं।

वैसे तो देश और समाज की रक्षा करनेवालों की कोई जाति या धर्म नहीं होती। लेकिन राजनीति के बिनानी सिमेंट उन्हें भी इनके बीच में मजबूत दीवार खड़ी कर देता है। कुछ नेता कह रहे हैं कि वो अल्पसंख्यक था इसलिए मारा गया। कुछ कहते हैं कि गरीब था इसलिए मारा गया। कुछ कहते हैं कि मंत्रीजी की जातिगत अदावत थी, इसलिए मरवा दिया।  

खैर, ये राजनीति है। मौकापरस्त हर लाश की लौ पर रोटी सेकने के आदी हो चुके हैं। इसबार भी वही कर रहे हैं। लेकिन बड़ा सवाल है कि चालीस बरस का पढ़ा-लिखा नौजवान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा है। लेकिन लाचार है। बिगड़ी व्यवस्था को तो युवा सुधार सकता है, जो डीएसपी सुधार रहा था। लेकिन लाचारी को कौन सुधारेगा?

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

नेताजी की परेशानी


नेताजी बहुत दुखी हैं। माथा पकड़ कर बैठे हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें। पता नहीं, किस राशि और लग्न में गृहमंत्री पद की शपथ ली थी। वो कौन सा काल था, जब मैडम के मन में उन्हें गृहमंत्री बनाने का ख्याल आया था। सोच-सोचकर परेशान हो जाते हैं नेताजी। रात-रातभर 
नींद नहीं आ रही है। आजकल अक्सर बीपी और शूगर बढ़ा रहता है।

जब से गृहमंत्री बने हैं, तब से एक से छुटकारा मिलता नहीं कि दूसरी परेशानी मुंह बाये खड़ी हो जाती है। कभी जुबान धोखा दे जाती है। तो कभी देश के शैतान। किस-किस को संभालें। कहां-कहां ध्यान दें। उमर हो चुकी है। बोलते-बोलते कभी जुबान लड़खड़ा जाती है। तो कभी फिसल जाती है। याद नहीं रहता है कि हमले की सूचना मिलने पर सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद करने के लिए कहा कि नहीं।  

पिछले शीतकालीन सत्र में संसद में बयान देते वक्त मोस्ट वांटेड आतंकी को श्री हाफिज सईद कह दिया था। भूल सुधार हुई। गलती मानी। लेकिन कुछ ही दिन बीता था कि दिल्ली के दरिंदों ने सत्यानाश कर दिया। देश की राजधानी में सुरक्षा को लेकर थू-थू हुई। शैतानों ने जवाब देने लायाक नहीं छोड़ा। यहां तक कि अपनी ही पार्टी की सीएम ने भी नेताजी पर ठीकरा फोड़ दिया।

काफी हो हंगामे के बाद किसी तरह मामला दबा। तो जुबान दगा दे गई। ऐसी बात मुंह से निकल गई कि अपनों ने भी साथ नहीं दिया। एक-एक कर सब छोड़ गए। बीजेपी-आरएसएस वालों ने मोर्चा खोल दिया। अंत में लिखित माफी मांगी तब जाकर कहीं छुटकारा मिला।

नेताजी चैन की सांस लेते, उससे पहले ही आतंकियों ने सब गुड़ गोबर कर दिया। दो-दो ब्लास्ट कर दिये। देश की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल दी। नेताजी क्या जवाब देंगे। संसद में जवाब दिया तो उस पर भी सवाल होने लगे। क्या करें नेताजी। ऐसे वक्त में तो मैडम भी साथ नहीं दे रहीं।

अच्छा काम भी करते हैं तो कोई सराहना नहीं मिलती। बल्कि उस पर भी सवाल होने लगते हैं। अपनी धाक जमाने के लिए नेताजी ने वो कर दिखाया, जिसके बारे में उनसे बड़े दिग्गज सिर्फ बातें हीं करते थे। दो-दो आतंकियों को फांसी पर लटका दिया। इतना महान काम करने के बाद भी वाह-वाही होने के बदले उसपर भी सवाल हो रहे हैं। अफजल के घरवालों को पहले ही सूचना क्यों नहीं दी। स्पीड पोस्ट के बजाय मोबाइल से क्यों नहीं बताया। वगैरह-वगैरह। 

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

रेलवे स्टेशन पर भगदड़ की वजह

इलाहबाद रेलवे स्टेशन पर मौत की भगदड़ से रेल मंत्रालय अपना पल्ला झाड़ रहा है। रेल मंत्री का कहना है कि रेलवे से कोई चूक नहीं हुई। स्टेशन पर मुकम्मल व्यवस्था की गई थी। तो ऐसे में सवाल उठता है कि मौत की इस भगदड़ की वजह क्या है। क्या वाकई रेलवे प्रशासन इसको लेकर जिम्मेवार नहीं है।

ऐसा बिल्कुल नहीं है। इलाहबाद रेलवे स्टेशन पर जो कुछ भी हुआ, उसकी वजहों पर अगर गौर करें तो साफ तौर पर पता चलता है कि जो कुछ भी हुआ, वो स्टेशन प्रबंधन की वजह से हुआ। एन वक्त पर ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदल दिया गया। यात्री दूसरे प्लेटफॉर्म की ओर दौड़ पड़े। हर किसी को घर पहुंचने की जल्दबाजी थी। हर कोई ट्रेन पकड़ना चाहता था। अचानक  ट्रेन बदलने की घोषणा के बाद अफरा-तफरी मची। भीड़ ज्यादा रहने की वजह से अफरातफरी के बीच अफवाह उड़ी और फिर भगदड़।

ट्रेन के स्टेशन पर पहुंचने से ठीक पहले प्लेटफॉर्म बदल दिए जाने की समस्या भारतीय रेलवे में आम है। सिर्फ इलाहाबाद ही नहीं, देश के किसी भी रेलवे स्टेशन पर अंतिम समय में ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदल दिया जाता है।  गाड़ी जब स्टेशन पर पहुंचने वाली होती है, तो स्टेशन प्रबंधन की ओर से घोषणा की जाती है कि अब ट्रेन इस प्लेटफॉर्म के बजाय दूसरे प्लेटफॉर्म पर आएगी। अपने भारी भरकम सामान के साथ ट्रेन का इंतजार कर रहे यात्री ओवरब्रिज पार कर दूसरे प्लेटफॉर्म पर पहुंचते हैं। कई बार ऐसा होता है जब इसी अफरातफरी में लोगों की ट्रेन छूट जाती है।  

लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि रेलवे प्रशासन का इस ओर ध्यान नहीं है। ऐसा लगता है मानो अंतिम वक्त में ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदलना रेलवे की आम प्रक्रिया हो। जब तक अचानक से प्लेटफॉर्म बदलने की आम हो चुकी बड़ी समस्या पर रेलवे गंभीर नहीं होगा, तब तक यूं ही स्टेशनों पर भगदड़ मचते रहेंगे और लोग अपने घर पहुंचने के बजाय स्टेशन पर ही मरते रहेंगे।  

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

प्याज पर एक लेख

प्याज एक सामाजिक सब्जी है। प्याज लोगों की जिंदगी में ऐसे घुसपैठ कर चुका है, जिस तरह वो किसी भी सब्जी में आसानी से घुलमिल जाता है। प्याज का हर सब्जी के साथ भाईचारा है। वेज हो या ननवेज। प्याज के बिना स्वाद अधूरा रह जाता है। प्याज ना हो तो मछली, मटन, चिकन ना बने। प्याज ना हो तो दाल में तड़का नहीं लगता। प्याज ना हो तो पनीर में वो लजीजपन कहां। सिर्फ अमीरी ही नहीं गरीबी में भी प्याज ही साथ देता है। नमक और रोटी के साथ।

प्याज के जन्म की तारीख का पता नहीं। लेकिन जब से देखा है, तब से सत्य की तरह देखा है। जो काम कभी आलू नहीं कर सका। वो प्याज कर दिखाया। प्याज की पहुंच सत्ता के गलियारों तक है। राजनीतिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखता है। मुख्यमंत्री बदलने की औकात है उसकी। दिल्ली गवाह है इसका।  

मुख्यमंत्री से लेकर देश के कृषिमंत्री तक प्याज का ख्याल रखते हैं। प्याज की कीमत का पता रखते हैं। शुभ लग्न और काल देखकर बोलनेवाले प्रधानमंत्री तक को इस पर जवाब देना पड़ता है। जैसे ही प्याज के दाम में उछाल आया, तो माननियों के माथे पर पसीना छलकने लगता है। फोन की घंटियां घन घनाने लगती है। सत्ता की सूखी हुई आंखों में पानी ला देता है प्याज।  

मीडियावाले माइक लेकर मंडी टू मंडी प्याज का भाव पता लगाने लगते हैं। किचन के बजट से खरीदार तक का हिसाब जोड़ने लगते हैं। अर्थशास्त्र के मांग और पूर्ति के समूचे सिद्धांत का विश्लेषण टीवी चैनल के स्टूडियो में शुरू हो जाता है। प्याज के छिलकों की तरह बढ़े हुए दाम की वजहों को एक-एक कर छीला जाता है।   

जब प्याज अपनी औकात दिखाने लगता है, तब जाकर सरकार को प्याज उपजानेवालों का भी ख्याल आता है। अपनी फसल की उचित कीमत तक नहीं वसूल नहीं कर पानेवालों के लिए सरकार की चिंताएं बढ़ जाती है। हां, ये अलग बात है कि जब तक प्याज की कड़वाहट सत्ताधीशों की आंखों में लगी रहती है, तब तक ही गांव के वो किसान उन्हें याद रहते हैं।  

प्याज तो प्याज है। ये कब किसको हंसा दे, कब किसको रूला दे, किसको मशहूर कर दे और किसको मलीन कर दे, कहना बेहद मुश्किल है। इसमें राष्ट्रीय सब्जी बनने के सभी गुण मौजूद हैं। ये बात संसद में मौजूद हर पार्टी जानती है। खासकर कांग्रेस और बीजेपी। बजट सेशन में नहीं तो विंटर सेशन में ही सही, लेकिन संसद  एक बहस तो इसको लेकर बनती ही है, क्योंकि ये सभी पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण है।  

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

अफजल को फांसी और बीजेपी के सवाल


देश की सबसे बड़ी पंचायत पर आतंकी हमले के साजिशकर्ता को आखिरकार सजा दे दी गई। आतंकी अफजल गुरू को फांसी पर लटका दिया गया। जिस तरह अफजल ने गोपनीय तरीके से संसद पर हमले की साजिश रची थी, वैसे ही गुपचुप तरीके से उसे तिहाड़ में फांसी पर लटकाकर वहीं गाड़ दिया गया।  

12 साल लंबा इंतजार खत्म हुआ। शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि मिली। जो लोग कांग्रेस पर आतंकवाद को लेकर राजनीति करने का आरोप लगा रहे थे, उन्हें जवाब देने के लिए सरकार ने रास्ता निकाला। लेकिन इसी रास्ते से निकलकर एक रास्ता राजनीति की ओर चल पड़ी। जिसका निशाना सीधे-सीधे कांग्रेस की ओर है।

राजनीति में आरोप कभी खत्म नहीं होते। सवाल दर सवाल की फेहरिस्त कम नहीं पड़ती। किसी भी सवाल का जवाब कभी मुकम्मल नहीं होता। यही कारण है कि कांग्रेस विरोधी पहले तो सरकार पर अफजल की फांसी टालने का आरोप लगा रहे थे। लेकिन जब आतंकी गुरू को फांसी दे दी गई, तो अब उसके वक्त को लेकर सवाल उठा रहे हैं।

दरअसल 20 जनवरी को जयपुर में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर बेवजह मुश्किल में फंस गए थे। बीजेपी ने कड़ा एतराज जताया। सड़क पर उतरी और संसद में हल्ला बोलने का एलान कर दिया। गृह मंत्री की जुबान से परेशान कांग्रेस ने भी उनसे पल्ला झाड़ लिया। और ठीक उसके एक दिन बाद 21 जनवरी को आतंकी अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने की अंतिम प्रक्रिया शुरू हो गई। और 19 दिनों के भीतर 9 फरवरी को पौ फटने से पहले ही वो सारी प्रक्रिया खत्म कर ली गई। 

22 फरवरी से संसद का बजट सत्र शुरू होनेवाला है। बीजेपी पहले ही सुशील कुमार शिंदे का बायकॉट करने का ऐलान कर चुकी है। ऐसे में सरकार ने अफजल गुरू को फांसी पर लटकाकर मास्टर स्ट्रॉक खेला है। लेकिन बीजेपी यहां भी कांग्रेस पर सवाल उठा रही है।

चुनावी साल है। कांग्रेस को लेकर आमलोगों के बीच जो छवि है, वो अच्छी नही है। महंगाई, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था से लेकर हर एक मोर्चे पर कांग्रेस बैकफुट पर है। सरकार की दलील लोगों के गले नहीं उतरती है। और ये बात कांग्रेस भी अच्छी तरह जानती है। यही कारण है कि सरकार अब उस मुद्दे को पकड़ने की कोशिश कर रही है, जो सीधे तौर पर लोगों के दिल से जुड़े हुए हैं।

कांग्रेस अपनी रजनीति साधने में जुटी हुई है। तो बीजेपी कांग्रेस पर फांसी के वक्त के जरिए निशाना साध रही है। क्योंकि जिस अफजल की फांसी के मुद्दे पर बीजेपी कांग्रेस को लगातार घेर रही थी, वो मुद्दा अब उसके हाथ से निकल चुका है। 

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

जांच एजेंसी के जरिए सांप-सीढी का खेल


जब बीजेपी की सरकार आएगी तो कहां जाओगे ? तब ना तुम्हें सोनिया गांधी बचाने आएंगी और ना ही चिदंबरम। अपनी कंपनी पर आयकर के सर्वे से बौखलाए भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी की ये धमकी आयकर अधिकारियों के लिए थी। अध्यक्ष पद की कुर्सी जाने से मायूस गडकरी जब नागपुर पहुंचे तो मन की भड़ास सारी सीमाएं तोड़कर बाहर निकल गई।
नितिन गडकरी ने ये बातें बातें यूं ही नहीं कही। गडकरी महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं। उनको ये पता है कि कैसे सत्ता की हनक पर बड़े-बड़े अधिकारियों से दूम हिलवाया जाता है। किस तरह सत्ता अपने फायदे के लिए सीबीआई, इनकम टैक्स, एएनआई जैसी जांच एजेंसी का इस्तेमाल करती है।
दरअसल नितिन गडकरी को लगता है कि कांग्रेस ने इनकम टैक्स के अधिकारियों का इस्तेमाल कर उन्हें परेशान कर रही है। बीजेपी कई बार ये आरोप लगा चुकी है कि कांग्रेस सीबीआई का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करती है। एफडीआई के मसले पर जब लोकसभा में सरकार की जीत हुई तो बीजेपी ने सीधे-सीधे ये कह दिया कि ये सरकार की नहीं बल्कि सीबीआई की जीत है। विपक्ष ने तो सीबीआई का उपनाम कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन तक रख दिया।  
महज दो दिन पहले इंडियन नेशनल लोक दल के सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को जब टीचर भर्ती घोटाले में दस-दस साल की सजा का एलान हुआ तो उसके ठीक अगले मिनट अभय चौटाला से लेकर आईएएलडी के छोटे कार्यकर्ताओं ने सीधे-सीधे आरोप लगा दिया कि सीबीआई का इस्तेमाल कर कांग्रेस ने उनके नेताओं को फंसाया है।
दरअसल सीबीआई के जरिए सांप सीढी का खेल कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने खेला है। जब जिसको मौका मिला उसने जांच एजेंसियों को मोहरा बनाकर भरपूर फायदा उठाया है। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेताओं को अपने इशारे पर नचवाया है। राजनीति में चाल, चरित्र और चेहरा की बात करनेवाली बीजेपी भी जब सत्ता में थी तो उस वक्त भी वाजपेयी सरकार पर सीबीआई के जरिए सांप-सीढी का खेल खेलने के आरोप लगे। 1998 में जब जयललिता ने बीजेपी को समर्थन दिया तो  करोड़ों के डिमांड ड्राफ्ट केस में सीबीआई जांच रोक दी। लेकिन जब 1999 में जयललिता ने वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो सीबीआई ने बंद पड़ी फाइल खोली और पंद्रह महीने के भीतर ही चार्जशीट तैयार कर ली।  
लेकिन सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन भी यूं ही नहीं कहा जाता। सीबीआई को लेकर सांप सीढी का खेल खेलने में कांग्रेस को महारत हासिल है। सीबीआई के बीन पर कांग्रेस ने मुलायम सिंह यादव से लेकर लालू यादव और मायावती तक को नचाया है। 2007 में मुलायम सिंह यादव के खिलाफ सीबीआई जांच की शुरुआत हुई। आय से अधिक संपत्ति का केस बना। लेकिन परमाणु डील पर जब कांग्रेस को मुलायम के समर्थन की जरूरत पड़ी तो सीबीआई ने यू-टर्न ले लिया और केस दर्ज करने तक से भी इनकार कर दिया। कमोबेश यही खेल मायावती के साथ भी हुआ। एफडीआई के मसले पर समर्थन से पहले ताज कोरिडोर मामले में मायावती को क्लीन चिट मिल गई। यानी जब-जब मनमोहन सरकार को मुलायम और मायावती के समर्थन की जरूरत पड़ी तो सीबीआई और इनकम टैक्स के अधिकारी सक्रीय हो गए।
यानी सत्ता का सुख भोग चुकी हर पार्टी को ये पता है कि कैसे जांच एंजेंसियों के जरिए सांप सीढी का खेल खेला जाता है। कैसे और कहां विरोधियों को मात देने के लिए जांच एजेंसियों का इस्तेमाल किया जाता है। और गडकरीजी यही मंशा पाल बैठे हैं कि 2014 में बीजेपी सरकार आएगी तो चुन चुनकर बदला लिया जाएगा। उसमें चाहे राजनीतिक विरोधी हों या फिर जांच अधिकारी।