प्याज एक सामाजिक सब्जी है। प्याज लोगों की जिंदगी
में ऐसे घुसपैठ कर चुका है, जिस तरह वो किसी भी सब्जी में आसानी से घुलमिल जाता
है। प्याज का हर सब्जी के साथ भाईचारा है। वेज हो या ननवेज। प्याज के बिना स्वाद
अधूरा रह जाता है। प्याज ना हो तो मछली, मटन, चिकन ना बने। प्याज ना हो तो दाल में
तड़का नहीं लगता। प्याज ना हो तो पनीर में वो लजीजपन कहां। सिर्फ अमीरी ही नहीं गरीबी
में भी प्याज ही साथ देता है। नमक और रोटी के साथ।
प्याज के जन्म की
तारीख का पता नहीं। लेकिन जब से देखा है, तब से सत्य की तरह देखा है। जो काम कभी आलू नहीं कर सका। वो प्याज कर दिखाया। प्याज
की पहुंच सत्ता के गलियारों तक है। राजनीतिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने का माद्दा
रखता है। मुख्यमंत्री बदलने की औकात है उसकी। दिल्ली गवाह है इसका।
मुख्यमंत्री से लेकर
देश के कृषिमंत्री तक प्याज का ख्याल रखते हैं। प्याज की कीमत का पता रखते हैं। शुभ
लग्न और काल देखकर बोलनेवाले प्रधानमंत्री तक को इस पर जवाब देना पड़ता है। जैसे
ही प्याज के दाम में उछाल आया, तो माननियों के माथे पर पसीना छलकने लगता है। फोन
की घंटियां घन घनाने लगती है। सत्ता की सूखी हुई आंखों में पानी ला देता है प्याज।
मीडियावाले माइक
लेकर मंडी टू मंडी प्याज का भाव पता लगाने लगते हैं। किचन के बजट से खरीदार तक का
हिसाब जोड़ने लगते हैं। अर्थशास्त्र के मांग और पूर्ति के समूचे सिद्धांत का विश्लेषण
टीवी चैनल के स्टूडियो में शुरू हो जाता है। प्याज के छिलकों की तरह बढ़े हुए दाम
की वजहों को एक-एक कर छीला जाता है।
जब प्याज अपनी औकात
दिखाने लगता है, तब जाकर सरकार को प्याज उपजानेवालों का भी ख्याल आता है। अपनी फसल
की उचित कीमत तक नहीं वसूल नहीं कर पानेवालों के लिए सरकार की चिंताएं बढ़ जाती
है। हां, ये अलग बात है कि जब तक प्याज की कड़वाहट सत्ताधीशों की आंखों में लगी
रहती है, तब तक ही गांव के वो किसान उन्हें याद रहते हैं।
प्याज तो प्याज है।
ये कब किसको हंसा दे, कब किसको रूला दे, किसको मशहूर कर दे और किसको मलीन कर दे,
कहना बेहद मुश्किल है। इसमें राष्ट्रीय सब्जी बनने के सभी गुण मौजूद हैं। ये बात संसद
में मौजूद हर पार्टी जानती है। खासकर कांग्रेस और बीजेपी। बजट सेशन में नहीं तो
विंटर सेशन में ही सही, लेकिन संसद एक बहस
तो इसको लेकर बनती ही है, क्योंकि ये सभी पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण है।
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