न तो किसी ने गोलियां बरसाईं। न ही किसी ने बम धमाके किए। न ही किसी के
हाथ में खंजर था। न ही लाठियां बरसाई गई। फिर भी सेरआम बीच सड़क पर एक महिला की
हत्या हो गई। एक, दो, तीन या चार नहीं हजार से भी ज्यादा लोग इसके जिम्मेदार हैं।
इस मुल्क में ऐसी हत्याओं की लिए कोई धारा नहीं लगती। कोई कानून काम
नहीं करता। मर गए तो मर गए। जालिम हंसते हुए निकल गए। सब देखते रहे। तमाशा की तरह।
जहां ये हत्या हुई वो गांधी नाम पर है। नीचे मां गंगा मौजूद थीं। वहां
से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर शांति का पाठ पढ़ाया जाता है। लेकिन उनके लिए
गांधी, गंगा, बुद्ध सब बेकार हैं।
पटना को उत्तर बिहार से सड़क मार्ग के जरिए गांधी सेतु ही जोड़ता है। किताबों
में दर्ज गांधी सेतु का नाम। इसे एशिया का सबसे लंबा पुल कहा जाता है। लेकिन इससे
ज्यादा चर्चा इसपर जाम को लेकर होता है। यकीन मानिए नई पीढ़ी के बच्चे इसे सबसे
लंबा पुल के बदले सबसे जाम वाले पुल के तौर पर जानते हैं।
20 मई को भी गांधी सेतु पर लंबा जाम लगा था। लेकिन दूसरे दिनों के जाम
से बिल्कुल अलग था। क्योंकि 20 मई को जानबूझकर जाम लगाया गया था। बिहार पुलिस में
तैनात होमगार्ड्स के जवान रैली कर रहे थे। तनख्वाह बढ़ाने के लिए। दोनों तरफ से
पुल को घेर लिया था।
सीवान की निशा की तबीयत बिगड़ गई थी। डॉक्टर ने कहा पटना में ही जान
बच सकती है। घरवाले एंबुलेंस में निशा को लिटाकर पटना के लिए रवाना हुए। लेकिन
पीएमसीएच से महज दस किलोमीटर पहले खुदगर्जों की घेराबंदी में फंस गए। एंबुलेंस को
रास्ता देने के लिए प्रदर्शनकारी पुलिसवालों से निशा के परिवारवाले गुहार लगाते
रहे। मिन्नतें कर रहे। लेकिन वो बहरे हो चुके थे। बेदिल इंसान की तरह। जिंदगी पर
स्वार्थ भारी पड़ गया। दोपाया जानवरों की जिद से हार गईं निशा। मर गई निशा।
कहीं पढ़ा था कि एंबुलेंस को कहीं नहीं रोका जाता है। कितनी भी भीड़
हो। उसका सायरन किसी की जिंदगी की आवाज होती है। एंबुलेंस को रास्ता दे दिया जाता
है। लेकिन ये बस किताबी बातें हैं। हकीकत कितनी कड़वी है ये निशा की मौत हमें
बताती है।
ये सिर्फ हाजीपुर की समस्या नहीं है। दिल्ली से लेकर दरभंगा तक। मुंबई
से मेरठ तक। एंबुलेंस ऐसे ही फंसी रहती हैं रेलमपेल गाड़ियों की भीड़ में। कहीं
रास्ता नहीं मिलता। कहीं कोई रास्ता नहीं देता। बीच सड़क पर लोग दम तोड़ देते हैं।
खुदगर्जी जिंदगी पर भारी है।
प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री या फिर मंत्रियों के आगमन से
पहले सड़क पर सन्नाटा पसर जाता है। सूई तक के गिरने का आवाज सुनाई पड़ने लगती है।
हर दस कदम पर एक पुलिसवाले खड़े रहते हैं। ताकि माननीयों को कहीं पहुंचने में देरी
न हो। फिर अस्पताल पहुंचने में मरीजों को देरी न हो इसके लिए कठोर उपाए
क्यों नहीं होता है। लंबी चौड़ी सड़क पर क्यों नहीं एंबुलेंस के लिए अलग लेन बनाई
जाती है। क्यों गांधी सेतु जैसे महत्वपूर्ण मार्ग पर रैली-प्रदर्शन की इजाजत है।
निशा की मौत किसी भी दल का सियासी मुद्दा नहीं होगा। आने वाले
विधानसभा चुनाव में कोई नेता इस पर चर्चा नहीं करेगा। अच्छा होता अगर निशा के
बहाने इस मुद्दे पर बहस होता। नेता, जनता, प्रशासन सब चर्चा करते। कुछ उपाय
निकालते। तो शायद आगे से कोई निशा बच जाती। काश। अगर ऐसा होता।
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