वहां हजारों की भीड़ थी। कुछ नेता थे। कुछ कार्यकर्ता थे। कुछ टीचर थे। कुछ पुलिसवाले थे। कुछ पत्रकार थे। कुछ ठेले और खोमचेवाले भी थे। लेकिन उस भीड़ में कोई इंसान नहीं था। जो एक मजबूर मरते हुए आदमी को बचा लेता।
वो पेड़ पर चढ़ा। फंदा बनाया। उसे गरदन में लगाया। और फिर झूल गया। इतना वक्त तो जरूर लगा होगा कि उसे बचाया जा सके। वो भी तब जब उस पेड़ के नीचे नौजवानों की भीड़ खड़ी थी। वही नौजवान जिसके बारे में प्रधानमंत्री कहते हैं कि ये हमारे देश की शक्ति है। वैसे लोग तो ये भी कह रहे हैं कि मरने से पहले कुछ देर तक गजेंद्र अपनी बातें भी कहता रहा । लेकिन किसी ने सुनी नहीं।
कुछ तस्वीरें आई हैं। जिसमें उसका हर एक्शन दिखता है। जाहिर है किसी कैमरामैन ने ये तस्वीर उतारी होगी। फोटो खींचनेवाले उस शख्स की इंसानियत पर उसकी नौकरी भारी पड़ गई।
सब तमाशा का हिस्सा बनकर रह गए। नेता सियासत का तमाशा कर रहे थे। कार्यकर्ता जयघोष कर रहे थे। पत्रकारों को यही तमाशा चाहिए था टीवी पर दिखाने के लिए। जब इतने लोग तमाशा देखते रहे तो पुलिस क्यों बचाने जाती। हजारों की भीड़ में गजेंद्र एक तमाशा था।
यह सबकुछ वहां हुआ जहां से संसद चंद कदमों की दूरी है। जो दिल्ली का सबसे पॉश इलाका है। उसके आसपास कई बड़े नेताओं का घर है। संयोग देखिए जहां गजेंद्र ने खुदकुशी की वहां सामने मुख्यमंत्री बैठे हुए थे। पूरे तामझाम के साथ। भारी तादाद में पुलिस भी। जिसे ऐसे हालात से निपटने के लिए बकायदा ट्रेनिंग भी दी जाती है। लेकिन कोई नहीं बचा पाया उसे।
हमे बच्चे से घर में सिखाया जाता है कि इंसानियत सबसे बड़ी चीज होती है। स्कूल की किताबों में भी पढ़ाया जाता है कि इंसानियत से ऊपर कुछ भी नहीं है। जाति, धर्म, मजहब, उम्र, हैसियत सबसे बढ़कर इंसानियत होती है। कोई भी अगर मुश्किल में है तो उसे बचाना हमारा फर्ज बनता है।
जानवर और इंसानियत में यही महीन फर्क होता है। यही पढ़-पढ़कर हम बड़े होते हैं। लेकिन जितने बड़े होते जाते हैं हम सबकुछ भूल जाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गजेंद्र को कोई जरूर बचा लेता।
इतने संवेदनहीन क्यों हैं हम। एक इंसान की मौत हमारे लिए तमाशा क्यों बन जाता है।ऐसे मौकों पर हम इंसान क्यों नहीं बन पाते। 2 दिन पहले ही तो चंडीगढ़ में ऐसा ही वाक्या हुआ था। चाकू लगने के बाद एक लड़का सड़क पर तड़प रहा था। लोग आते-जाते रहे। एक नजर देखकर सब आगे बढ़े जा रहे थे। किसी ने उसे नहीं उठाया। जब तक उसका भाई आता तब तक वो मर चुका था। दिल्ली में तो ऐसा आमबात है।
पुलिस के रोजनामचे में एक केस दर्ज हो गया है। एक आदमी की मौत का केस। कोर्ट तक अगर ये मामला पहुंचा तो कोई गुनहगार साबित नहीं होगा। लेकिन अपने दिल पर हाथ राखकर पूछिएगा हम, आप, वो सब जो गजेंद्र की मौत का तमाशा देख रहे थे, सब गुनहगार हैं।
वो पेड़ पर चढ़ा। फंदा बनाया। उसे गरदन में लगाया। और फिर झूल गया। इतना वक्त तो जरूर लगा होगा कि उसे बचाया जा सके। वो भी तब जब उस पेड़ के नीचे नौजवानों की भीड़ खड़ी थी। वही नौजवान जिसके बारे में प्रधानमंत्री कहते हैं कि ये हमारे देश की शक्ति है। वैसे लोग तो ये भी कह रहे हैं कि मरने से पहले कुछ देर तक गजेंद्र अपनी बातें भी कहता रहा । लेकिन किसी ने सुनी नहीं।
कुछ तस्वीरें आई हैं। जिसमें उसका हर एक्शन दिखता है। जाहिर है किसी कैमरामैन ने ये तस्वीर उतारी होगी। फोटो खींचनेवाले उस शख्स की इंसानियत पर उसकी नौकरी भारी पड़ गई।
सब तमाशा का हिस्सा बनकर रह गए। नेता सियासत का तमाशा कर रहे थे। कार्यकर्ता जयघोष कर रहे थे। पत्रकारों को यही तमाशा चाहिए था टीवी पर दिखाने के लिए। जब इतने लोग तमाशा देखते रहे तो पुलिस क्यों बचाने जाती। हजारों की भीड़ में गजेंद्र एक तमाशा था।
यह सबकुछ वहां हुआ जहां से संसद चंद कदमों की दूरी है। जो दिल्ली का सबसे पॉश इलाका है। उसके आसपास कई बड़े नेताओं का घर है। संयोग देखिए जहां गजेंद्र ने खुदकुशी की वहां सामने मुख्यमंत्री बैठे हुए थे। पूरे तामझाम के साथ। भारी तादाद में पुलिस भी। जिसे ऐसे हालात से निपटने के लिए बकायदा ट्रेनिंग भी दी जाती है। लेकिन कोई नहीं बचा पाया उसे।
हमे बच्चे से घर में सिखाया जाता है कि इंसानियत सबसे बड़ी चीज होती है। स्कूल की किताबों में भी पढ़ाया जाता है कि इंसानियत से ऊपर कुछ भी नहीं है। जाति, धर्म, मजहब, उम्र, हैसियत सबसे बढ़कर इंसानियत होती है। कोई भी अगर मुश्किल में है तो उसे बचाना हमारा फर्ज बनता है।
जानवर और इंसानियत में यही महीन फर्क होता है। यही पढ़-पढ़कर हम बड़े होते हैं। लेकिन जितने बड़े होते जाते हैं हम सबकुछ भूल जाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गजेंद्र को कोई जरूर बचा लेता।
इतने संवेदनहीन क्यों हैं हम। एक इंसान की मौत हमारे लिए तमाशा क्यों बन जाता है।ऐसे मौकों पर हम इंसान क्यों नहीं बन पाते। 2 दिन पहले ही तो चंडीगढ़ में ऐसा ही वाक्या हुआ था। चाकू लगने के बाद एक लड़का सड़क पर तड़प रहा था। लोग आते-जाते रहे। एक नजर देखकर सब आगे बढ़े जा रहे थे। किसी ने उसे नहीं उठाया। जब तक उसका भाई आता तब तक वो मर चुका था। दिल्ली में तो ऐसा आमबात है।
पुलिस के रोजनामचे में एक केस दर्ज हो गया है। एक आदमी की मौत का केस। कोर्ट तक अगर ये मामला पहुंचा तो कोई गुनहगार साबित नहीं होगा। लेकिन अपने दिल पर हाथ राखकर पूछिएगा हम, आप, वो सब जो गजेंद्र की मौत का तमाशा देख रहे थे, सब गुनहगार हैं।
बहुत निक. हकीकत यह है कि हम सब संवेदनहीन हो गये हैं
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