2014 लोकसभा चुनाव में मिली जिस जीत को आडवाणी सरीखे स्वयंसेवक से लेकर खुद मोहन भागवत या कहें पूरा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, पार्टी और कार्यकर्ताओं की सफलता बता रहे थे, उसे मोदी ने एक झटके में ही खारिज कर दिया। मोदी ने एक इंटरव्यू में साफ तौर पर कह दिया कि ये सफलता मेरी वजह से मिली। लोगों ने मुझे वोट दिया। जाहिर है मोदी की ये बात सामने आते ही आरएसएस के कान खड़े हो गए। सो, संघ के नंबर दो यानी भैयाजी जोशी ये कहते हुए सामने आए कि किसी व्यक्ति की नहीं बल्कि देश की जनता ने बदलाव को वोट दिया। यानी बीजेपी की जीत मोदी की नहीं बल्कि संघ से लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं के कठिन परिश्रम का नतीजा है।
संघ की पाठशाला में सियासत का कहकरा पढ़नेवाले नरेंद्र मोदी बेहतर जानते हैं कि सत्ता में आने के लिए स्वयंसेवकों ने इस बार कितनी मेहनत की थी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मोदी संकेतों में संघ को ये कहना चाहते हैं कि उनके कामकाज में दखल न दिया जाए। वो जो कर रहे हैं उसे करने दें। ये इंटरव्यू तब सामने आया है जब कश्मीर में सरकार बनाने से लेकर भूमि अधिग्रहण कानून तक को लेकर संघ सवाल खड़ा कर चुका है। ये सुगबुगाहट है कि दिल्ली में सरकार पर नजर रखने के लिए संघ के किसी बड़े चेहरे रख सकता है।
दरअसल मोदी नहीं चाहते हैं कि उनकी आर्थिक नीति में कोई दखअंदाजी हो। विकास की अवधारणा को लेकर मोदी आगे की सियासत साधना चाहते हैं। तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पहली बार खुद को इस स्थिति में रखना चाहता है कि हिंदुत्व को लेकर जितने प्रयोग करने हैं वो कर लिया जाए। मोदी हिंदुत्ववाद की छवि से बाहर निकल कर विकास की एक लकीर खींचना चाहते हैं तो संघ चाहता है कि इसी पांच साल के दरम्यान जितनी ख्वाहिशें हैं वो पूरी हो जाए। संघ और उससे जुड़ा छोटा बड़ा हर संगठन हिंदू राग अलाप रहा है। घर वापसी से लेकर लव जिहाद और जनसंख्या बढ़ाने तक।
एक तरफ संघ प्रमुख मोहन भागवत घर वापसी को जायज ठहारा रहे हैं। हिंदू राष्ट्र की वकालत कर रहे हैं तो दूसरी तरफ मोदी संसद में ये कहते हैं कि धार्मिक कट्टरता के वो बिल्कुल समर्थक नहीं हैं। और जो इस सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की बात करेगा उसको सीधा करने के लिए उनके पास बहुत सारी उपाय है।
यानी दिल्ली और नागपुर के बीच में समीकरण ठीक तरह से बैठ नहीं पा रहा है। संघ कट्टर हिंदुत्ववाद के रास्ते आगे बढ़ना चाह रहा है तो प्रचारक से प्रधानमंत्री बने मोदी कट्टरवाद की छवि से अब आगे बढ़कर वाजपेयी के रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। और यही डर संघ के भीतर भी है। क्योंकि प्रधानमंत्री बनने के बाद वाजपेयी संघ से सीधे तौर पर कंट्रोल नहीं हो पा रहे थे। संघ कभी नहीं चाहेगा कि ये स्थिति मोदी के साथ बने। तो मोदी भी ये बेहतर जानते हैं कि संघ के बिना वो भी अधूरे हैं। अब इस दूरी को किस तरह से कम की जाए ये दोनों के लिए बड़ा सवाल है।
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