नीतीश कुमार सियासत में नई परिभाषा गढ़ने के लिए जाने जाते रहें हैं। 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से नीतीश राजनीति में एक लकीर खींचते चले गए। लेकिन मोदी की लहर में लड़खड़ाकर गिरे नीतीश कुमार को जब अपने मांझी ने जोर का झटका दिया तो उन्होंने दूसरे की खींची लकीर पर डेग बढ़ा दिया।
अब सवाल उठता है कि क्या दूसरे के बनाए रास्ते पर चलकर वो नवंबर में होने वाले चुनाव में जीत हासिल कर पाएंगे। जिस तरह से नीतीश कुमार बार-बार माफी मांग रहे हैं। मांझी को कुर्सी सौंपने को अपनी भूल बताकर फिर से मौका देने की अपील कर रहे हैं। हर प्रेस कॉन्फ्रेंस, हर सभा, हर रैली में माफी और भूल का जिक्र जरूर करते हैं तो क्या इसका असर लोगों पर होगा।
दरअसल नीतीश ने माफी मांगने की प्रेरणा केजरीवाल से ली है। नीतीश कुमार को लगा कि जैसे माफी मांगकर केजरीवाल प्रचंड बहुमत से जीत गए,वैसे ही बिहार में माफी मांगकर वो सत्ता पर लगातार काबिज रह सकते हैं। लेकिन हकीकत ये है कि केजरीवाल और नीतीश की सियासत में, माफी मांगने में, बड़ा फर्क है।
केजरीवाल को मासूमियत की माफी मिली थी। केजरीवाल लोगों को ये समझाने में सफल रहे कि सियासी सूझबूझ के चलते उन्होंने विधानसभा में इस्तीफा दिया था। लिहाजा लोगों ने केजरीवाल की मासूमियत को माफ कर दिया। लेकिन बिहार के लोग ये अच्छी तरह जानते हैं कि सियासत के माहिर खिलाड़ी नीतीश ने एक रणनीति के तरत इस्तीफा दिया था। मांझी को कुर्सी पर बिठाकर वो बहुत आगे की राजनीति को साधने की जुगत में थे। जिसमें वो चूक गए।
दूसरी बड़ी बात ये है कि दिल्ली के लोग एक प्रयोग करना चाहते थे। वो केजरीवाल को परखना चाहते थे, उनकी सियासत के तरीके को देखना चाहते थे। लिहाजा उन्हें मौका दिया गया। लेकिन नीतीश कुमार परखे जा चुके हैं। नीतीश को लेकर लोगों की धारणा बन चुकी है।
तीसरी बात दिल्ली और बिहार के सियासी मिजाज में बहुत फर्क है। दोनों जगहों के वोटर की सोच में बड़ा फासला है। दिल्ली में वोटर पढ़े लिखे हैं या फिर पढ़े लिखों के संपर्क में हैं। लोगों ने दिल्ली में जाति, धर्म, पार्टी से उठकर केजरीवाल को वोट दिया। लेकिन बिहार में ऐसा नहीं है। बड़ी तादाद में लोग हैं जो अभी भी जाति, धर्म, क्षेत्र, पार्टी के बंधे-बंधाए परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। मिसाल के तौर पर देख सकते हैं कि बीजेपी से अलग होने के बाद फॉरवार्ड मतदाता नीतीश कुमार से छिटक गए हैं।
चौथी बात, हारने के बावजूद केजरीवाल अकेले अपने दम पर चुनावी मैदान में डटे रहे। लेकिन नीतीश को थोड़ा झटका लगा तो लालू के कंधे पर हाथ रख दिया। जाहिर है इसका असर भी अगले चुनाव पर पड़ेगा। ऐसे में अगर नीतीश कुमार ये सोच रहे हैं कि भूल और माफी के आसरे उनकी कुर्सी बरकार रहेगी तो ये उनकी बड़ी भूल होगी। भूल और माफी से बढ़कर उन्हें समय रहते बड़ी चाल चलनी होगी।
अब सवाल उठता है कि क्या दूसरे के बनाए रास्ते पर चलकर वो नवंबर में होने वाले चुनाव में जीत हासिल कर पाएंगे। जिस तरह से नीतीश कुमार बार-बार माफी मांग रहे हैं। मांझी को कुर्सी सौंपने को अपनी भूल बताकर फिर से मौका देने की अपील कर रहे हैं। हर प्रेस कॉन्फ्रेंस, हर सभा, हर रैली में माफी और भूल का जिक्र जरूर करते हैं तो क्या इसका असर लोगों पर होगा।
दरअसल नीतीश ने माफी मांगने की प्रेरणा केजरीवाल से ली है। नीतीश कुमार को लगा कि जैसे माफी मांगकर केजरीवाल प्रचंड बहुमत से जीत गए,वैसे ही बिहार में माफी मांगकर वो सत्ता पर लगातार काबिज रह सकते हैं। लेकिन हकीकत ये है कि केजरीवाल और नीतीश की सियासत में, माफी मांगने में, बड़ा फर्क है।
केजरीवाल को मासूमियत की माफी मिली थी। केजरीवाल लोगों को ये समझाने में सफल रहे कि सियासी सूझबूझ के चलते उन्होंने विधानसभा में इस्तीफा दिया था। लिहाजा लोगों ने केजरीवाल की मासूमियत को माफ कर दिया। लेकिन बिहार के लोग ये अच्छी तरह जानते हैं कि सियासत के माहिर खिलाड़ी नीतीश ने एक रणनीति के तरत इस्तीफा दिया था। मांझी को कुर्सी पर बिठाकर वो बहुत आगे की राजनीति को साधने की जुगत में थे। जिसमें वो चूक गए।
दूसरी बड़ी बात ये है कि दिल्ली के लोग एक प्रयोग करना चाहते थे। वो केजरीवाल को परखना चाहते थे, उनकी सियासत के तरीके को देखना चाहते थे। लिहाजा उन्हें मौका दिया गया। लेकिन नीतीश कुमार परखे जा चुके हैं। नीतीश को लेकर लोगों की धारणा बन चुकी है।
तीसरी बात दिल्ली और बिहार के सियासी मिजाज में बहुत फर्क है। दोनों जगहों के वोटर की सोच में बड़ा फासला है। दिल्ली में वोटर पढ़े लिखे हैं या फिर पढ़े लिखों के संपर्क में हैं। लोगों ने दिल्ली में जाति, धर्म, पार्टी से उठकर केजरीवाल को वोट दिया। लेकिन बिहार में ऐसा नहीं है। बड़ी तादाद में लोग हैं जो अभी भी जाति, धर्म, क्षेत्र, पार्टी के बंधे-बंधाए परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। मिसाल के तौर पर देख सकते हैं कि बीजेपी से अलग होने के बाद फॉरवार्ड मतदाता नीतीश कुमार से छिटक गए हैं।
चौथी बात, हारने के बावजूद केजरीवाल अकेले अपने दम पर चुनावी मैदान में डटे रहे। लेकिन नीतीश को थोड़ा झटका लगा तो लालू के कंधे पर हाथ रख दिया। जाहिर है इसका असर भी अगले चुनाव पर पड़ेगा। ऐसे में अगर नीतीश कुमार ये सोच रहे हैं कि भूल और माफी के आसरे उनकी कुर्सी बरकार रहेगी तो ये उनकी बड़ी भूल होगी। भूल और माफी से बढ़कर उन्हें समय रहते बड़ी चाल चलनी होगी।
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