देश के एक अधूरे और बीत्ते भर के प्रदेश में सबसे बड़ा सियासी प्रयोग हुआ है। दिल्ली की जनता ने तमाम समीकरणों को चकनाचूर कर दिया। पहली बार ऐसा लगा कि लोगों ने धर्म, जाति, क्षेत्र और कहीं-कहीं पार्टीगत भावनाओं से उठकर उम्मीदों के समर्थन में मतदान किया। पिछली बार केजरीवाल ने जो अल्पमत की शिकायत कर के कुर्सी छोड़ दी थी, उस शिकायत को दूर कर दिया।
इश्क में राह आसान नहीं है। दिल्ली का इंट्रेंस टेस्ट पास कर चुके केजरीवाल को हर पल परीक्षा से गुजरना पड़ेगा। सरकारी तंत्रों में लिपटे भ्रष्टाचार को साफ करना है। जिसके लिए धैर्य और जज्बे की जरूरत होगी। केजरीवाल ने बिजली-पानी, मुफ्त वाई-फाई, स्कूल कॉलेज जैसे ऐसे वादे हैं जिसके लिए पैसों की जरूरत होगी। दिल्ली अधूरा राज्य है, लिहाजा पग-पग पर केंद्र सरकार से सहायता लेनी होगी। जो आसान नहीं है। क्योंकि केंद्र में उसी की सरकार है, जिसे दिल्ली में केजरीवाल ने पानी पिला दिया। ऐसे में केजरीवाल को बड़ी ही चालाकी से बैर किए बगैर मदद लेनी होगी।
केजरीवाल ने सियासत का स्वरूप बदलने का बीड़ा उठाया है। इसमें मिली रसायन को बदलने की जिम्मेदारी ली है। क्योंकि पिछले कुछ सालों में सियासत, सरकार, नेता और सरकारी तंत्र को लेकर लोगों के बीच जो सोच बनी है, वो काफी नकारात्मक है। सरकार और नेताओं ने लोगों को प्रभावित नहीं किया है, बल्कि एक आम लोगों को इससे दूर ले गया है। सबसे निचले स्तर पर खड़े लोगों के लिए नेताओं का मतलब अपराधी, झूठा, भ्रष्टाचारी जैसा हो गया है, जबकि सियासी पार्टियों को लोग भ्रष्टाचारियों का समूह समझने लगे हैं।
दूसरी बात आप किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइए। काम करवाने के चक्कर में आपके चप्पल घिस जाएंगे। बिना चढ़ावे का काम नहीं होगा। बाबू, ब्यूरोक्रैट्स और नेताओं के नेक्सस में लोग उलझ कर लुट जाते हैं। लोग असल में इसी व्यवस्था को खत्म होते देखना चाहते हैं।
ऐसे में व्यवस्था से आजीज आ चुके लोगों के बीच केजरीवाल नई उम्मीद लेकर आए हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार पर प्रहार किया। उन्होंने सियासत और नेता दोनों के मायने बदलने के वादे किए हैं । बहुत ही आम लोगों को टिकट देकर इसके संकेत भी दिए। लोगों को लगा कि शायद अब कुछ बदलेगा। लिहाजा लोगों ने आम आदमी पार्टी को पूर्ण से कहीं आगे तकरीबन संपूर्ण बहुमत देकर कसौटी पर चढ़ा दिया है। अब केजरीवाल को जनता के भरोसे पर खरा उतरना है।
1977 में जेपी ने भ्रष्टाचार को खत्म करने को लेकर ऐसा ही सपना दिखाया था। लेकिन उनके तथाकथित उत्तराधिकारियों ने बेड़ा गर्क कर दिया। नेताओं पर लोगों को फिर से भरोसा करने में कई दशक लग गए। केजरीवाल तक जाते-जाते लोगों को एक रौशनी दिखी। ऐसे में अगर पूरी व्यवस्था में फैले अंधेरे में अगर केजरीवाल दीया नहीं जला पाए तो लोगों का भरोसा टूटेगा। फिर किसी केजरीवाल पर लोगों को ऐतबार नहीं होगा।
इश्क में राह आसान नहीं है। दिल्ली का इंट्रेंस टेस्ट पास कर चुके केजरीवाल को हर पल परीक्षा से गुजरना पड़ेगा। सरकारी तंत्रों में लिपटे भ्रष्टाचार को साफ करना है। जिसके लिए धैर्य और जज्बे की जरूरत होगी। केजरीवाल ने बिजली-पानी, मुफ्त वाई-फाई, स्कूल कॉलेज जैसे ऐसे वादे हैं जिसके लिए पैसों की जरूरत होगी। दिल्ली अधूरा राज्य है, लिहाजा पग-पग पर केंद्र सरकार से सहायता लेनी होगी। जो आसान नहीं है। क्योंकि केंद्र में उसी की सरकार है, जिसे दिल्ली में केजरीवाल ने पानी पिला दिया। ऐसे में केजरीवाल को बड़ी ही चालाकी से बैर किए बगैर मदद लेनी होगी।
केजरीवाल ने सियासत का स्वरूप बदलने का बीड़ा उठाया है। इसमें मिली रसायन को बदलने की जिम्मेदारी ली है। क्योंकि पिछले कुछ सालों में सियासत, सरकार, नेता और सरकारी तंत्र को लेकर लोगों के बीच जो सोच बनी है, वो काफी नकारात्मक है। सरकार और नेताओं ने लोगों को प्रभावित नहीं किया है, बल्कि एक आम लोगों को इससे दूर ले गया है। सबसे निचले स्तर पर खड़े लोगों के लिए नेताओं का मतलब अपराधी, झूठा, भ्रष्टाचारी जैसा हो गया है, जबकि सियासी पार्टियों को लोग भ्रष्टाचारियों का समूह समझने लगे हैं।
दूसरी बात आप किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइए। काम करवाने के चक्कर में आपके चप्पल घिस जाएंगे। बिना चढ़ावे का काम नहीं होगा। बाबू, ब्यूरोक्रैट्स और नेताओं के नेक्सस में लोग उलझ कर लुट जाते हैं। लोग असल में इसी व्यवस्था को खत्म होते देखना चाहते हैं।
ऐसे में व्यवस्था से आजीज आ चुके लोगों के बीच केजरीवाल नई उम्मीद लेकर आए हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार पर प्रहार किया। उन्होंने सियासत और नेता दोनों के मायने बदलने के वादे किए हैं । बहुत ही आम लोगों को टिकट देकर इसके संकेत भी दिए। लोगों को लगा कि शायद अब कुछ बदलेगा। लिहाजा लोगों ने आम आदमी पार्टी को पूर्ण से कहीं आगे तकरीबन संपूर्ण बहुमत देकर कसौटी पर चढ़ा दिया है। अब केजरीवाल को जनता के भरोसे पर खरा उतरना है।
1977 में जेपी ने भ्रष्टाचार को खत्म करने को लेकर ऐसा ही सपना दिखाया था। लेकिन उनके तथाकथित उत्तराधिकारियों ने बेड़ा गर्क कर दिया। नेताओं पर लोगों को फिर से भरोसा करने में कई दशक लग गए। केजरीवाल तक जाते-जाते लोगों को एक रौशनी दिखी। ऐसे में अगर पूरी व्यवस्था में फैले अंधेरे में अगर केजरीवाल दीया नहीं जला पाए तो लोगों का भरोसा टूटेगा। फिर किसी केजरीवाल पर लोगों को ऐतबार नहीं होगा।
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