स्वर्ग में डॉक्टर अंबेडकर जार-जार रो रहे थे। अपने हाथों से लिखे संविधान को फाड़ रहे थे। कभी माथा पटक रहे थे। कभी चिल्ला रहे थे। तो कभी नाक पर हाथ रख रहे थे। कभी कान पर। कुर्सी से उतकर जमीन पर बैठ गए थे। बार-बार उनके मुंह से यही निकल रहा था कि हमने कहां गलती कर दी। क्या छूट गया मुझसे।
65 बरस बाद भी जाहिलों को हमारी बात क्यों समझ में नहीं आई। कब तक ये जानवर जैसा बर्ताव करते रहेंगे। हमारे बाद के बचे लोगों ने क्या किया। दलितों और पिछड़ों के नाम पर जितनी सियासत की, उसका सौवां हिस्सा भी लोगों की जागरुकता में क्यों नहीं लगाई।
डॉक्टर अंबेडकर के ठीक सामने बापू भी चारपाई पर लेटे हुए थे। सांसें उनकी भी तेज चल रही थी। अंडेबकर की बातें सुन रहे थे। क्या बोलते। गुस्सा आ रहा था। खुद पर। देश के कर्णधारों पर। तथाकथित सभ्य समाज पर।
छुआछूत खत्म करने के लिए क्या-क्या नहीं किया था गांधी ने। 24 जुलाई 1934 को कट्टरपंथियों से शास्त्रार्थ तक किया था। दलितों को भरोसा दिलाया था कि आजाद हिंदुस्तान में अपना स्वराज होगा। गरीबों की सरकार होगी। सब समान होंगे। छुआछूत को टांग दिया जाएगा। लेकिन कुछ नहीं हुआ। जस का तस।
इस बीच ज्योतिबा फुले अपने हाथ से नाक को हसोथते हुए दाखिल हुए। उन्हें लगा कि अचानक उनकी आंख से नीचे मुंह तक सपाट हो गया है। नाक तो है ही नहीं। नीच मानसिकता वाले कुछ उच्च वर्गों के लोगों ने उनकी नाक पर छुरी चला दी है।
उधर से नेहरू जी दौड़ते हुए पहुंचे। चुपचाप गांधी के बगल में बैठ गए। कहना चा रहे थे कि नाक मेरी भी कट गई है। लेकिन माहौल देखकर चुप हो गए।
बात फैलती जा रही थी। अब तक लोहिया भी पहुंच चुके थे। सुबक रहे थे। किस समाजवाद का सपना उन्होंने देखा था। क्या कर दिया उनके नाम पर सियासत करनेवालों ने। इतने सालों बाद भी कितना बिखरा पड़ा है भारतीय समाज।
आजादी के 68 साल बीत गए। गांधी की बात झूठी हो गई थी। अंबेडकर की कलम दगा दे गई थी। लोहिया का समाजवाद वोटों का हाथ बिक चुका था।
मुल्क के सबसे बड़े प्रदेश में अनर्थ हुआ है। एक दलित ने तथाकथित उच्च जाति के लोगों के साथ बैठकर भोजन कर लिया तो उसकी नाक काट दी गई। समाज अंधा हो गया। कानून बहरा हो गया। सरकार के मुंह में बकार नहीं है। सबकुछ वैसे ही चल रहा है, जैसे पहले था। कब सुधरेंगे हम ?
65 बरस बाद भी जाहिलों को हमारी बात क्यों समझ में नहीं आई। कब तक ये जानवर जैसा बर्ताव करते रहेंगे। हमारे बाद के बचे लोगों ने क्या किया। दलितों और पिछड़ों के नाम पर जितनी सियासत की, उसका सौवां हिस्सा भी लोगों की जागरुकता में क्यों नहीं लगाई।
डॉक्टर अंबेडकर के ठीक सामने बापू भी चारपाई पर लेटे हुए थे। सांसें उनकी भी तेज चल रही थी। अंडेबकर की बातें सुन रहे थे। क्या बोलते। गुस्सा आ रहा था। खुद पर। देश के कर्णधारों पर। तथाकथित सभ्य समाज पर।
छुआछूत खत्म करने के लिए क्या-क्या नहीं किया था गांधी ने। 24 जुलाई 1934 को कट्टरपंथियों से शास्त्रार्थ तक किया था। दलितों को भरोसा दिलाया था कि आजाद हिंदुस्तान में अपना स्वराज होगा। गरीबों की सरकार होगी। सब समान होंगे। छुआछूत को टांग दिया जाएगा। लेकिन कुछ नहीं हुआ। जस का तस।
इस बीच ज्योतिबा फुले अपने हाथ से नाक को हसोथते हुए दाखिल हुए। उन्हें लगा कि अचानक उनकी आंख से नीचे मुंह तक सपाट हो गया है। नाक तो है ही नहीं। नीच मानसिकता वाले कुछ उच्च वर्गों के लोगों ने उनकी नाक पर छुरी चला दी है।
उधर से नेहरू जी दौड़ते हुए पहुंचे। चुपचाप गांधी के बगल में बैठ गए। कहना चा रहे थे कि नाक मेरी भी कट गई है। लेकिन माहौल देखकर चुप हो गए।
बात फैलती जा रही थी। अब तक लोहिया भी पहुंच चुके थे। सुबक रहे थे। किस समाजवाद का सपना उन्होंने देखा था। क्या कर दिया उनके नाम पर सियासत करनेवालों ने। इतने सालों बाद भी कितना बिखरा पड़ा है भारतीय समाज।
आजादी के 68 साल बीत गए। गांधी की बात झूठी हो गई थी। अंबेडकर की कलम दगा दे गई थी। लोहिया का समाजवाद वोटों का हाथ बिक चुका था।
मुल्क के सबसे बड़े प्रदेश में अनर्थ हुआ है। एक दलित ने तथाकथित उच्च जाति के लोगों के साथ बैठकर भोजन कर लिया तो उसकी नाक काट दी गई। समाज अंधा हो गया। कानून बहरा हो गया। सरकार के मुंह में बकार नहीं है। सबकुछ वैसे ही चल रहा है, जैसे पहले था। कब सुधरेंगे हम ?
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