गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

सड़ी व्यवस्था के शिकार हुए बच्चे

ना तो वे जातिये दंगे के शिकार हुए। ना ही वे साम्प्रदायिक हिंसा में मरे। और ना ही आंतकी घटना में मारे गये। वे मासूम हमारी सड़ी हुई व्यवस्था के शिकार हो गए। वे बच्चे जो मौत का मतलब भी नहीं समझते थे, उनकी जिंदगी दीवारों में दब गई।  
मौत कभी बताकर नहीं आती। अचानक आती है। वहां भी मौत ने चुपके से दस्तक दी। वे बच्चे तो अपनी जिंदगी के सबसे खुशनुमा पलों को जी रहे थे। छह बच्चे एक साथ खेल रहे थे। बच्चों का खेल। लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनकी जिंदगी से खेल होनेवाला है। वे अपने खेल में मशगूल थे। तभी मौत की दीवार गिरी। और बच्चे जिंदा दफ्न हो गए। जब मलबा हटाया गया तो पांच बच्चे दम तोड़ चुके थे। अभी एक बच्चा अस्पताल में मौत से लड़ रहा है।
ये सब कुछ वहां हुआ, जहां देशभर की व्यवस्था बनती है। जहां नियम-कानून बनते हैं। जहां देश के हुक्मरान बैठते हैं। जहां से देश चलता है। नई दिल्ली में।
दिल्ली और उसके आसपास में अक्सर ऐसा होता है। अक्सर बनते-बनते इमारतें ढह जाती है। लोग उसमें दबकर मर जाते हैं। 24 नंबर को फरीदाबाद में फैक्ट्री की बिल्डिंग गिरने से ठेकेदार और मजूदर मर गए। 10 को फिर फरीदाबाद में दीवार के नीचे चार मजदूर जिंदा दफ्न हो गए। 10 दिसंबर को ही दिल्ली में निर्माणाधीन इमारत ढह गई और और चार लोग घायल हो गए। 11 दिसंबर को फरीदाबाद में स्कूल की बिल्डिंग गिर गई और छह लोग मर गए। ये पिछले 20 दिनों का लेखा जोखा है। महीने और साल की फेहरिस्त तो काफी लंबी है।
दरअसल दिल्ली और एनसीआर के इलाके में कहीं भी आप घर बनाना शुरू कीजिए। ईंट और बालू गिरते ही पुलिस पहुंच जाती है। अपनी सलामी लेने। जब तक उनको प्रशन्न नहीं करेंगे, तब तक आप घर नहीं बना सकते। पुलिसवालों को खुश कर दीजिए, उसके बाद जो करना है, करते रहिए।
इसी तरह इमारतें भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी हो जाती है। छोटी-छोटी गलियों में बड़ी-बड़ी इमारतें बना दी जाती है। जिस तरह मंजूरी और निमय कायदों के लिए घटिया व्यवस्था का सहारा लिया जाता है, उसी तरह इमारत बनाने में भी घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है।
कमोबेश यही चल रहा था न्यू अशोकनगर इलाके में। एक प्लॉट पर चारदीवारी दी जा रही थी। बनते-बनते ही दीवार में दरारें आ चुकी थी। उसके बगल में रहनेवालों ने इसकी शिकीयतें भी की। लेकिन सड़ी हुई व्यवस्था ने शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दिया। अब जमीन मालिक, ठेकेदार और मजदूरों की मनमानी की कीमत वहां रह रहे लोगों को चुकानी पड़ रही है। किसी का बेटा नहीं रहा। किसी की बेटी नहीं रही। किसी का तो बेटा और बेटी दोनों खत्म।

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