वो किसी इंसान का
नाम होता, तो उसके खत्म होते ही सबकुछ खत्म हो गया होता। लेकिन मरते-मरते तक वो एक
सोच बन गया था। विचारधारा बन गया था। या यूं कहिए कि वो एक बीमारी बन गया था, जो
उसके दीवानों के खून में ऐसी रच बस गई है, जो आदत में शुमार हो गई है।
जब तक जिंदा रहा, तब
तक हंगामा। मर गया तो भी हंगामा। जिंदा था तो शहर से पड़ोसी राज्यों के लोगों को
भगाने के लिए हंगामा। पड़ोसी देश से क्रिकेट ना होने देने के लिए हंगामा। अब
मिट्टी में दफ्न हो गया तो शहर के चौराहे पर मूर्ति लगाने के लिए उसके दीवानों का हंगामा।
शिवाजी पार्क में स्मारक बनाने के लिए हंगामा। रसीदी टिकट पर उसका नाम छपवाने के
लिए हंगामा।
जिसने जिंदगीभर नफरत
की रजनीति की। कभी भाषा के नाम पर। कभी क्षेत्र के नाम पर। कभी समुदाय के नाम पर। उसने
जब चाहा, तब शहर को तहस-नहस करवा दिया। उसने सरेआम संविधान को कागज का चिथड़ा करार
दिया। उसका आदर्श हिटलर सरीखे लोग हुआ करता था। वो खुद को खुदा से कम नहीं समझता
था। उसने अपनी मर्जी को कानून समझा। लोगों को समझाया। जिंदा था तो जबर्दस्ती
करवाता था। मर गया तो उसके दीवाने कर रहे हैं।
उसने अपने दीवानों
को नफरत करना सिखाया। धमकी देना सिखाया। जबर्दस्ती करना सिखाया। उसे भगवान
समझनेवाले आज वही कर रहे हैं। चंद फूट के स्मारक बनाने की खातिर सरकार से लेकर
कानून तक को ठेंगा दिखा रहे हैं।
जब भी शिवाजी पार्क
में भीड़ दिखती है। माथे में भगवा कपड़ा बांधे सड़क पर बेलगाम लड़के दिखते हैं।
नफरत और धमकी की राजनीति दिखती है। भाषा और समुदाय के नाम पर मारते लोग दिखते हैं।
तो मन में एक ही बात आती है कि वो कभी मर नहीं सकता। वो आज भी जिंदा है। हमारे
राजनीतिक ढांचे में। हमारे समाज में। हमारे सिस्टम में। हमारी व्यवस्था में।
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