सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

मोदी जी क्यों मौन हैं?

रोहित वेमुला ने खुदकुशी कर ली। एक नौजवान मर गया। जिम्मेदार कौन है। पता नहीं। साथी कह रहे हैं कि हत्या हुई है। जिम्मेदारी तय करो। लेकिन सरकार के मंत्री उसकी जाति तय करने में अपनी पूरी एनर्जी खर्च कर रहे हैं। मोदी जी मौन हैं।

रोहित के साथी हैदराबाद यूनिवर्सिटी में अनशन पर बैठे हैं। उन्हें इंसाफ चाहिए। जिद पर अड़े रोहित के दोस्तों की हालात खराब होती जा रही है। लेकिन सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें कोई पूछनेवाला नहीं है। मोदी जी मौन हैं।

दिल्ली में कुछ लडके-लड़कियों को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस वाले वहशी बन गए। कुछ ख्याल नहीं रहा। लड़कों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। लड़कियों पर टूट पड़े। जैसे वे कॉलेज के बच्चे नहीं, आतंकी हों। पुलिस रक्षक नहीं, मवाली हो। देश की राजधानी में, प्रधानमंत्री के ऑफिस से कुछ किलोमीटर की दूरी पर, आरएसएस दफ्तर के बाहर नौजवानों को बेहिसाब मारा गया, लेकिन मोदी जी मौन हैं।

इसी दिल्ली में एक बड़े प्राइवेट स्कूल में एक मासूम मर गया। एक परिवार अपने बेटे की मौत का हिसाब मांग रहा है और लापरवाह स्कूल की प्रिंसिपल कह रही है कि बच्चा मेंटली डिस्टर्ब था। गज़ब की बेशर्मी है। हाहाकार मच जाना चाहिए था। धरती फट जानी चाहिए थी। लेकिन बीच बाज़ार में खड़े स्कूल की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। नई पौध पर आफत है और मोदी जी मौन हैं।

लखनऊ में मेडिकल की पढ़ाई कर रही एक बेटी ने खुदकुशी कर ली। क्योंकि एक लड़का उसे छेड़ता था। सारिका ने हर किसी से मदद की गुहार लगाई थी। लेकिन न तो सरकार ने सुनी और न ही पुलिस अफसरों ने। सारिका ने खुदकुशी कर ली। न बेटी पढ़ पाई, न बेटी बच पाई। लेकिन मोदी जी मौन हैं।

ये तो उन कुछ लोगों की कहानी है, जिनकी चर्चा टीवी चैनलो पर हो रही है। जिनके किस्से अख़बारों में छप रहे हैं। लेकिन पिछले एक महीने के दौरान नौजवानों, बच्चों की हत्या की ये कोई दो-चार घटनाएं नहीं हुई है। यूपी के गांवों में हर रोज हैवानियत का शिकार होनेवाली बेटियां तो ख़बर भी नहीं बन पाती है। सरकार की नज़र कहां तक जाएगी उन पर।

हमारे एनर्जेटिक प्रधानमंत्री को नौजवानों में देश का भविष्य दिखता है। वो नौजवानों को देश की पूंजी बताते हैं। देश की शक्ति कहते हैं। तो फिर देश की ताकत को कौन खत्म कर रहा है। बच्चों, नौजवानों को कौन मार रहा है। देश का भविष्य बर्बाद करनेवाला कौन है ? मोदी जी क्यों मौन हैं ?

शनिवार, 30 जनवरी 2016

सिर्फ मंदिर में प्रवेश नहीं "अपवित्रता" पर भी सोचिए

महिलाओं के मंदिर में या फिर मजार पर प्रवेश और पूजा को लेकर शुरू हुई बहस अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचना चाहिए। इसे टीवी डिबेट में खपाकर अधूरा छोड़ना ठीक नहीं होगा। हिंदू या मुस्लिम किसी भी धर्म के तमाम अगुवा को अपनी पुरानी परंपरा में परिवर्तन करने की हिम्मत दिखानी चाहिए। इसे धर्म पर कुठरघात या फिर चुनौती के तौर पर देखने की जरूरत नहीं है। क्योंकि वक्त के हिसाब से बदलना कमजोरी नहीं दूरदर्शिता होती है। 
 
एक तरफ बेटियों को पूजा जाता है। कोई भी धार्मिक कार्य महिला का बिना अधूरा समझा जाता है। अर्धांगनी का होना अनिवार्य माना जाता है। महिलाओं को शक्ति का उपासक कहते हैं। फिर अगर कोई महिला मंदिर में जाकर पूजा करना चाहती हैं, तो इसमें हर्ज क्यों ?

मंदिर में पूजा-पाठ को लेकर शुरू हुई इस बहस को थोड़ा और विस्तार देने की जरूरत है। और इसकी शुरुआत घर से करनी होगी। हिंदू धर्म में मासिक धर्म से गुजर रही महिलाओं को तकरीबन एक हफ्ते तक घर के किसी धार्मिक कार्य में शरीक होने की इजाजत नहीं होती है।  चाहे कितना भी जरूरी काम क्यों न हो, मासिक धर्म से गुजर रही महिलाएं इसमें हाथ नहीं लगाएंगी। कहा जाता है कि इस एक हफ्ते के दौरान वो अपवित्र हो जाती है। अब सोचिए, जो चीज निश्चित है। जो जरूरी है। जिसे भगवान ने खुद तय किया है। उससे परहेज क्यों ? उसे अपवित्रता का मापदंड क्यों बना दिया गया है ? इसी मासिक धर्म की वजह से कोई महिला मां बनती है। जाहिर है ये किसी महिला के लिए बड़ी बात होती है, फिर मासिक धर्म के नाम पर भेदभाव क्यों ? यानी इस पर भी मंथन करने की घोर जरूरत है।

इसमें किसी को कोई संदेह करने की जरूरत नहीं कि परंपरा के मुताबिक ही ये सब कुछ हो रहा है। लेकिन जो परंपरा धर्म को, भरोसे को नुकसान पहुंचाए। उसे बदलने में हिचकिचाहट करना बेवकूफी माना जाएगा। सदियों तक तो ये भी परंपरा थी कि दलितों का मंदिर में प्रवेश न हो, ब्राह्मण ही मंदिर में पूजा करेंगे। लेकिन समय के साथ-साथ इसमें बदलाव हुआ या नहीं।

वक्त बदल रहा है। महिलाओं की सोच बदल रही है। ऐसे में अब भी अगर मंदिरों में महिलाओं की एंट्री पर बैन लगाकर रखते हैं, मासिक धर्म के नाम पर उसे अपवित्र घोषित कर देते हैं तो जाहिर है ऐसे मंदिर से, ऐसे भगवान से, ऐसे धर्म से महिलाओं की आस्था कम होती चली जाएगी। कोई दूसरा-तीसरा धर्म अपनाएंगी या फिर नास्तिकता की ओर चली जाएंगी। किसी भी सूरत में आपके धर्म के लिए वो ठीक नहीं होगा।

यकीन मानिए इस छोटे से बदलाव होने पर कोई भी धर्म कमजोर नहीं होगा, बल्कि और ज्यादा सशक्त होगा। लिबरल धर्म या सिद्धांत अपेक्षाकृत ज्यादा मान्य होता है।   

बुधवार, 6 जनवरी 2016

मालदा हिंसा पर चुप्पी क्यों ?

पश्चिम बंगाल के मालदा में जो हुआ वो डरावना है। देश के लिए बेहद खतरनाक है। लेकिन उससे ज्यादा खतरनाक है उस घटना पर लोगों की चुप्पी। किसी को फिक्र नहीं है। न सरकार को। न मीडिया को और नहीं देश के बुद्धिजीवियों को। हर किसी ने चुप्पी साध ली है। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। हुआ भी तो मामूली सा हादसा, जिसको लेकर चर्चा करना बहुत ज्यादा जरूरी नहीं। यही चुप्पी अखर रही है। 

3 महीने पहले मुट्ठीभर भीड़ ने धर्म के नाम पर एक शख्स को पीट-पीटकर मार दिया तो हंगामा खड़ा हो गया था। चिंताओं का सैलाब उमर पड़ा था। पूरे देश की सहिष्णुता को कठघरे में खड़ा कर दिया गया था। लेकिन 3 महीने बाद जब हजारों लोगों की भीड़ ने धर्म के नाम पर थाने को जला दिया। पुलिसवालों के साथ मारपीट की। गाड़ियों में आग लगा दी। हथियार बंद लोगों ने फायरिंग की। बीच सड़क पर घंटों तक तांडव मचाया तो आप चुप हैं। आपकी सोच में यही फर्क अखर रहा है।

उन्मादी भीड़ हिंदुओं का हो या फिर मुसलमानों का। दोनों देश के लिए खतरनाक हैं। दोनों से देश की अखंडता पर खतरा है। दोनों समाज को बांटता है। चाहे कोई भगवान श्रीराम को गाली देता है। या फिर कोई मोम्मद पैगम्बर को। या फिर कोई हिंदू देवी देवताओं की नंगी तस्वीर बनाता है, हर कोई खतरनाक है इस धर्मनिरपेक्ष देश के लिए। लेकिन आप एक के बारे में बोलते हैं। नसीहत देते हैं। लेकिन दूसरे को लेकर कुछ नहीं बोलते। आपके विचारों में ये मिलावट अखर रहा है।

घुसपैठिए आतंकवादियों से ज्यादा ख़तरनाक है बौद्धिक आतंकवाद। मालदा घटना पर ये चुप्पी कहीं न कहीं बौद्धिक आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है। हर किसी मुद्दे पर बेबाक टिप्पणी करनेवाले ये बुद्धिजीवी वर्ग एक मोड़ पर आकर क्यों रूक जाता है। देश हित में फेसबुक, ट्विटर पर मुहिम चलानेवाले इन लोगों की अंगुली में लकवा तब क्यों मार देता है जब मालदा जैसी घटनाएं होती है। आपके विचारों में यही अंतर अखर रहा है।

मोहम्मद पैगम्बर के बारे में अपशब्द कहने वाले दो टके के आदमी कमलेश तिवारी को आप उसी तरह सजा दिला सकते थे, जैसे भगवान श्रीराम को गाली देने पर जूनियर ओवैसी को मिली थी। लेकिन धर्म के नाम पर हिंसा करनेवालों को मौन सहमित क्यों? आपकी ये एकतरफ मौन अखर रहा है।
आजादी के बाद से अब तक सिर्फ धर्म, जाति, क्षेत्र के आधार पर वोट मांगनेवाले नेताओं से बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं है। लेकिन आप तो तटस्थ होकर बोल सकते हैं। लिख सकते हैं। सच को सच कहने की हिम्मत कर सकते हैं। लेकिन आप भी तटस्थ नहीं हो पाते हैं। ऐसा क्यों। सोशल साइट्स पर तो खुलकर विचार रख सकते हैं। लेकिन यहां भी आपके विचार धर्म-जाति के आधार पर बदल जाते हैं। यही बदलाव अखर रहा है। 
किसी व्यक्ति, किसी पार्टी से मतभेद हो सकता है। लेकिन उसके लिए कम से कम आपलोग तो समाज को सूली पर मत टांगिए। अगर मुसलमान गलत कर रहे हैं तो आप उसी तरह बोलिए जैसे हिंदुओं के झुंड के गलत करने पर बोलते हैं। या फिर हिंदुओं की मनमानी पर भी आप उसी तरह बोलने की हिम्मत करिए जैसे मुस्लिमों को लेकर बोलते हैं। तभी ये देश बचेगा। नहीं तो यकीन मानिए बुद्धिजीवी होने का ढोंग करने से, तटस्थ होने का नाटक करने से कुछ नहीं बचेगा।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

जल-प्रलय

जल ही जीवन है। लेकिन तब तक जब तक वो आंखों में रहे। तालाबों में रहे। कुएं में रहे। पाताल में रहे। समुद्र में रहे। जब पानी हद से बाहर निकल जाता है। जब पानी सड़क पर सैलाब बनकर दौड़ने लगता है। जब पानी नाली से निकलर गली में बहने लगता है। जब पानी बाथरूम से इतर बेडरूम तक पहुंच जाता है। ऐसे में प्रलय आ जाता है। जिसे जल-प्रलय कहते हैं। बहुत कुछ बर्बाद हो जाता है। बहुत कुछ खत्म हो जाता है। बहुत कुछ डूब जाता है। डूब जाती हैं ख्वाहिशें। डूब जाती हैं उम्मीदें। डूब जाते हैं सपने। बच जाती है तबाही। बर्बादी के निशान बच जाते हैं।

जल तांडव का शिकार हुआ है एक और शहर। त्रासदी को झेल रहा है एक और शहर। 
अथाह दर्द में डूबा हुआ है एक और शहर। दर्द से कराह है एक और शहर। छाती पीट रहा है एक और शहर। जिसके कोने-कोने में पानी घुसा हुआ है। गली-गली डूबी हुई है। कार पानी में बह रही है। बेडरूम में भी पानी है। किचन में भी पानी है और टॉयलेट में भी। छत को छूने के लिए बेताब है पानी। लोगों को लील लेने के लिए आतुर है ये पानी।लोग कहां जाए। कैसे जान बचाए। लोगों की आंखों की नींद गायब है। पानी का बुलबुला डरा रहा है। बादल की तड़तड़ाहट घबराहट बढ़ा देती है। पता नहीं कब आफत बरसने लगे।  

ये चेन्नई शहर है। चमकते हुए अतीत को सीने में समेटकर खड़ा एक शहर। लेकिन वर्तमान इसके अतीत से ज्यादा डरावना है। चेन्नई के चारों तरफ तबाही लिपटी हुई है। ऐसी तबाही जो लोगों को डरा रही है। वैसे तो कई जल तांडव देखे हैं इस शहर ने। 1969 से लेकर 1998 और 2005 तक की बारिश देखी है इस शहर ने। आसमान से ऐसी आफत कहां बरसी थी उस साल भी। तब ऐसी तबाही कहां आई थी। इस बार जो हो रहा है, वो इस शताब्दी में कभी नहीं हुआ। पिछले 100 सालों में पानी ने कभी ऐसा कहर नहीं बरपाया था। पूरी पीढ़ी ने कभी ऐसी बाढ़ नहीं देखी। ऐसी बर्बादी नहीं देखी थी। चमकता हुए एक शहर पानी में आकंठ डूब गया।

चारों तरफ पानी ही पानी है। घर में पानी। आंगन में पानी। सड़क पर पानी। बस स्टैंड में पानी । रेलवे ट्रैक पर पानी। हवाई अड्डे पर पानी। दफ्तर में पानी। स्कूल में पानी। कॉलेज में पानी। खेतों में पानी। पानी में डूब चुका है सबकुछ। जिंदगी बचाने वाला पानी जिंदगी के लिए सबसे बड़ी परेशानी बन चुका है। विनाशकारी बन चुका है पानी। त्राहि-त्राहि कर रहे हैं लोग। लोगों को कुछ सूझ नहीं रहा है। करें तो करें क्या। खुद बचें या अपनों को बचाएं या फिर दूसरों को सहारा दें। 

क्या बच्चे। क्या महिलाएं। क्या जवान। क्या बुजुर्ग। क्या जिंदगी। क्या सामान। क्या गाड़ी। क्या मकान। किस-किस का हिसाब चाहिए। किसी का नहीं है। कौन कहां है, कुछ पता नहीं। न मोबाइल में बैट्री बची है। न कंप्यूटर चल रहा है। न ही लैंडलाइन काम कर रहा है। किसी का हालचाल जानना भी मुश्किल है। अब सोशल साइट्स के जरिए लोग अपनों को बचाने की गुहार लगा रहे हैं। किसी का रिश्तेदार व्हाट्स पर मैसेज कर रहे है। तो किसी का रिश्तेदार फेसबुक पर लिखकर अपनों के फंसे होने की बात बता रहा है। कोई ट्वीट कर बता रहा है कि मेरा रिश्तेदार अमूक जगह पर फंसा है, प्लीज बचा लीजिए। बड़ी मेहरबानी होगी।

चारों तरफ बर्बादी बिखरी पड़ी है। आसमान की तरफ लोग निहारते रहते हैं। खाने के पैकेट लिए मुंह ताकते रहते हैं लोग। छतों पर लोग टकटकी लगाए खड़े रहते हैं मदद के लिए। पता नहीं कौन देवदूत बनकर आ जाए। पता नहीं कौन सहारा बनकर मुसीबत की बाढ़ से बाहर निकालने के लिए आ जाए।  

बच्चों को दूध नहीं मिल रहा है। बुजुर्गों को दवाइयां नहीं मिल रही है। हजारों लोग भूखे हैं। कई दिनों से खाना नहीं मिला। कपड़े नहीं हैं। एक-दूसरे को दिलासा देकर जिंदा हैं। एटीएम के अंदर पानी घुसा हुआ है। बंद पड़ी हुई है पैसा निकालने वाली मशीन। लोग क्या करें।  

मौत की कोई मुकम्मल तादाद नहीं है। सिर्फ अनुमान है। करीब 270 लोगों की जिंदगी दस्तावेज बन चुकी है। लगातार लोगों की मौत का आंकड़ा बढ़ रहा है। तबाही का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अब तक 20 हज़ार करोड़ से ज्यादा का नुकसान हो चुका है। जब असल तस्वीर सामने आएगी तो स्थिति और भी भयाहवह होगी। 

सड़क समंदर बन चुका है। सड़कों पर कारें खिलौने की तरह बह रही है। कागज की कश्ती की तरह लोगों  के सामान बह रहे हैं। जिस तरफ देखिए...सिर्फ बर्बाद ही नजर आएगी। जिंदगी बचाने की जद्दोजेहद जारी है।

चेन्नई के डूबते हुए लोगों के लिए सेना अब सहारा बनकर उतरी है। बॉर्डर पर लड़नेवाली सेना कुदरती दुश्मन से दो-दो हाथ कर रही है। लोगों की जिंदगी बचाने के लिए सेना के जवान दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। लोगों को महफूज जगहों पर पहुंचा रहे हैं। सेना के 434 जवान राहत कार्यों में लगे हुए हैं। NDRF की 30 टीमें लोगों की जिंदगी बचाने में जुटी है।  इंडियन एयरफोर्स के C-17 एयरक्राफ्ट से फंसे हुए लोगों को निकाला जा रहा है। नौसेना का जहाज़ INS एरावत भई राहत सामग्री पहुंचा रहा है।

बाढ़ से सरकार भी सन्न है। चेन्नई की बर्बादी की आहट दिल्ली तक पहुंच चुकी है। बैठकों का दौर जारी है। संसद में सवाल-जवाब हो रहे हैं। संवेदनाएं जताई जा रही है। प्रधानमंत्री खुद हालात देख आए हैं। हर संभव मदद का भरोसा दिया है। 

उम्मीद है धीरे-धीरे पानी सूख जाएगा। जिंदगी पटरी पर लौटने लगेगी। लोग फिर से अपनी जिंदगी का तानाबाना बुनने लगेंगे। लेकिन घाव सालों तक हरे रहेंगे। बाढ़ की ये बर्बादी सीने में सूल की तरह चुभता रहेगा। एक सवाल बार-बार कौंधता रहेगा कि एक चमकता हुआ शहर क्यों बर्बाद हो गया। चेन्नई में जल तांडव क्यों हुआ। चेन्नई में क्यों अचानक बाढ़ आई। क्यों बिन बुलाए मुसीबत ने लोगों को बचने का मौका नहीं दिया। आप भी इसके बारे में सोचिएगा जरूर। क्योंकि इस मुसबीत को बुलाने वाले हम और आप ही हैं। इसे देखकर संभल जाइए। नहीं तो अगला शहर आपका भी हो सकता है। न तो हम आपको डरा रहे हैं और न ही नसीहत दे रहे हैं बल्कि असलियत बता रहे हैं। 

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

खतरनाक है असहिष्णुता की सियासत

   असहिष्णुता आखिरकार संसद की चौखट तक पहुंच ही गई। यानी अब दोनों सदनों में असहिष्णुता को मथा जाएगा। सरकार और विपक्ष के बीच बहस होगी। भावनाओं की चाशनी मे लपेटकर आंकड़ों और तर्कों की सियासत होगी। निकलेगा क्या ये सबको बता है। 
    सवाल उठता है कि अचानक कैसे लोगों को लगने लगा कि देशभर में चारों तरफ खौफ ही है। हर घर के बाहर हाथ में खंजर लिए लोग मारने के लिए खड़े हैं। सांस लेने तक में तकलीफ हो रही है। इमरजेंसी से भी बदतर हालात हो गए हैं। उससे भी बड़ा सवाल ये है कि अखलाक को पीट-पीटकर मारने की घटना के बाद क्या देशभर का माहौल इतना बिगड़ गया कि आमिर खान सरीखे लोगों को भी डर लगने लगा। क्या फरीदाबाद में दलित परिवार को जिंदा जलाने की घटना से देशभर के लोग डर गए। या फिर कलबुर्गी की हत्या ने देश को हिंसक बना दिया। 
    याद कीजिए 1999 में उड़ीसा में इसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस को जिंदा जला दिया था दारा सिंह ने। दारा सिंह भी हिंदूवादी संगठन से ताल्लुक रखता था। ग्राहम स्टेंस के साथ मरनेवालों में उसके दो मासूम बच्चे भी थे। क्या उससे भी खौफनाक घटना थी अखलाक की हत्या। लेकिन उस वक्त असहिष्णुता की कहीं चर्चा नहीं हुई। याद कीजिए उस दौर को जब बिहार में दलितों का नरसंहार हुआ था। क्या तब देश सहिष्णु था। 
   2014 के आंकड़े बताते हैं कि यूपी में रेप की हर दिन औसतन 10 घटनाएं होती है। रेप की शिकार ज्यादातर लड़कियां दलित या फिर अल्पसंख्यक समुदाय से होती है। लेकिन इसको कभी सहिष्णुता से जोड़ा नहीं जाता। आंकड़ा टटोलिये तो आपको दिखेंगे कि कैसे देशभर में आरटीआई कार्यकर्ता मौत के घाट उतार दिए जाते हैं। कहीं चर्चा नहीं होती। फिर अचानक एक साल में कैसे बुद्धिजीवियों को फासीवाद दिखने लगा। देश असहिष्णु दिखने लगा। 
    दरअसल ये सोशल मीडिया का कमाल है। जहां बात तो आग और तेल से भी ज्यादा तेजी से पसरती चली जाती है। लोग अपने-अपने तरीके से बेरोक-टोक विश्लेषण करने लगते हैं। बात को शांत करने की बजाय उसे बतंगड़ बनाया जा रहा है। आमिर खान के घर के बाहर अगर हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रहे हैं तो इस बात को ऐसे बताया जा रहा है कि जैसे पहले कभी हुआ ही नहीं। सवाल उठता है कि क्या इससे पहले कभी शाहरुख, आमिर या फिर सलमान खान के पोस्टर नहीं फाड़े गए। या फिर इनके फिल्मों का विरोध नहीं हुआ? क्या इससे पहले कभी शाहरुख या आमिर खान को अतिवादियों ने पाकिस्तान जाने की बेशर्म नसीहत नहीं दी? शिवसेना सरीखे संगठन, प्राची, साक्षी, योगी जैसे लोग कई बार इस तरह की बेहूदी बातें कर चुके हैं। क्या तब लोगों को डर नहीं लग रहा था ? दरअसल ये कैमरा और फ्लैश के जरिए टीवी पर शब्दों और चेहरों के चमकने का दौर है। ये वो दौर है जहां समाज और देश से इतर राजनीति साधने की सियासत हो रही है। 
  इस सब के बीच सब से डरावनी बात ये है कि असहिष्णुता को लेकर जो लकीर खींच दी गई है, उसके संकेत भविष्य के लिए बहुत बेहतर नहीं है। इसपर सियासत थमने वाला नहीं है। क्योंकि जो सवाल उठाए जा रहे हैं, पुरस्कार वापसी से लेकर साहित्यकारों, कलाकारों और फिर नेताओं की जुबान से जो डर और खौफ की बातें हो रही है, उन बातों को सियासत अपनी तरीके से भुनाने में लगी है। बिहार चुनाव के बाद ठंडा पड़ चुके इस मुद्दे पर जब आमिर खान ने सवाल उठाया तो बात संसद तक पहुंच गई। विपक्ष ने असहिष्णुता पर चर्चा के लिए सरकार को नोटिस थमा दिया। 
  यकीन मानिए। संसद से लकेर टीवी चैनल के स्टूडियो में इसको लेकर कितनी भी चर्चा करवा लीजिए। ये मुद्दा थमने वाला नहीं है। क्योंकि कांग्रेस और विपक्ष को लगता है कि उसे असहिष्णुता नाम का एक ब्रह्मास्त्र मिल गया है। जिसके जरिए मोदी सरकार को डिगाया जा सकता है। बिहार में इसका उदारहण भी मिला। असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी को लेकर छिड़ी बहस के बीच हुए बिहार चुनाव में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी। याद होगा कि इससे पहले दिल्ली के चुनाव के वक्त भी चर्च पर हमला जैसा मुद्दा गरम था। 
  यानी सियासत अब ऐसे ही मुद्दों के आसरे आगे बढ़ेगी। मुमकिन है कि इससे भी इतर ऐसे मुद्दे उछाले जाएं तो सियासत को जरूर साधनेवाला हो, लेकिन देश की जड़ को नुकसान पहुंचाए। क्योंकि जो अभी विपक्ष में हैं, वो कभी सत्ता में होंगे, और जो सत्ता में हैं, वो विपक्ष में होंगे। उस वक्त भी बड़े-बड़े साहित्यकार और कलाकर किसी और मुद्दे पर बोलने के लिए हाथ में पुरस्कार लेकर खड़े होंगे। यानी सियासत का जो दौर चल पड़ा है वो सामाजिक असहिष्णुता से ज्यादा डरावना और असहिष्णु है।

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

अतुल्य भारत या असहिष्णु भारत?

डियर आमिर खान,
आपका प्रशंसक होने के नाते आपका यूं विवादों में आना मुझे अच्छा नहीं लगा। आपको पता है कि असहिष्णुता एक विवादित मुद्दा है तो फिर आपको इस पर बोलने से बचना चाहिए था। आपके रहते मुझे देश में असहिष्णुता का कोई दूसरा उदाहरण नहीं खोजना पड़ेगा।  पिछले साल आपकी फिल्म pk आई थी। फिल्म  में हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया गया था। बावजूद इसके  ये फिल्म रिलीज हुई। सबने देखी। खूब कमाई की। करोड़ों हिंदू-मुस्लिम की तरह मैंने भी आपकी फिल्म देखी थी। मनोरंजन के लिए। अच्छा लगा था। सच तो ये है कि आप जैसी शख्सियतों को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखना भी बेईमानी है। 

आप भी इस बात से इनकार नहीं करेंगे कि अगर ऐसा मजाक किसी दूसरे धर्म के देवी-देवताओं के बारे में होता तो फिल्म कतई रिलीज नहीं हो पाती। फिल्म के एक्टर-प्रॉड्यूसर का  सिर कलम करनेवालों पर करोड़ों का ईमान रखा जाता । कुछ भी हो सकता था। चार्ली एब्दो तो आपको याद ही होगा। लेकिन आपके देश में ऐसा कुछ नहीं हुआ। लोगों ने आपको सिर आंखों पर बिठाया। फिल्म ने रिकॉर्ड तोड़ कमाई की।
  
आप देश के ब्रांड  हैं। टीवी पर आपको हमेशा से भारत की खूबियों का वर्णन करते देखा है। आप ही के मुंह से पहली बार अतुल्य भारत शब्द सुना था। पता नहीं उसमें दिखनेवाले किरदर असल में होते हैं, या यू हीं बनाए जाते हैं। जो भी हो, अच्छा लगता है। फिर अचानक जब आपके मुंह से देश में असहिष्णुता वाली बात सुनी तो अजीब लगा। जो शख्स एक तरफ भारत की खूबियों का बखान करते फिरता है, वो अगर कह रहा है कि असहिष्णुता बढ़ी है तो इसका असर देश की छवि पर तो पड़ेगा ही न। ये आप भी जानते हैं। 

हम आपको सत्यमेव जयते में विश्वास रखने के लिए जानते हैं। आप हमेशा से देश की समस्याओं को लेकर सवाल उठाते रहे हैं। हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री का आवास आपकी पहुंच से दूर नहीं है। देर या सवेर आप जब चाहेंगे प्रधानमंत्री से मुलाकात कर सकते हैं। उनके प्रधानमंत्री बनते ही आपने उसने मुलाकात की थी। अगर वाकई में आपको ऐसा लग रहा है कि देश में असहिष्णुता बढ़ी है तो आप उनसे मिलकर अपनी चिंता बता सकते थे। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। मीडिया में जाकर बातें रखी। जबकि आप जानते हैं कि मीडिया में बोलने से सिर्फ बवंडर होगा। कोई हल नहीं। 

आपने बीवी का नाम लेकर देश में असहिष्णुता की बात कही है।  घर-परिवार में बहुत सारी बातें होती है। जब देश में सहिष्णुता को लेकर बहस चल रही है, आपका बॉलीवुड भी इससे अछूता नहीं है तो जाहिर है कि आपके घर में भी इसपर चर्चा जरूर हुई होगी। लेकिन इस बात को जब आप मीडिया के सामने कहते हैं तो बात बढ़ जाती है। लोग इसको अपाकी विचार से जोड़कर देखने लगते हैं।  

आपको देश से जुड़े तमाम मुद्दों पर बोलते देखा है। सुना है। याद है जब आप नर्मादा बचाओ आंदोलन में धरने पर बैठने पहुंच गए थे। और भी अच्छा तब लगा था जब आप अन्ना के मंच पर पहुंचे थे। इसी तरह अगर आप देश में बढ़ती महंगाई को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ मुहिम चलाते तो अच्छा लगता। 

खैर, अब आपके समर्थन में कुछ लोग बोलेंगे। कुछ आपके विरोध में। मीडिया को मसाला मिल गया है। टीवी पर बहस होंगी। अखबारों में एडिटोरियल छपेंगे। सोशल साइट्स पर भी बड़ी-बड़ी बाते होंगी। इससे किसे फायदा होगा ये कहने की जरूरत नहीं है, लेकिन देश को जरूर घाटा होगा। इस पर एक बार सोचिएगा जरूर। बाकी, आपकी अगली फिल्म का इंतजार है, हमेशा की तरह। 

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

कुत्तों के 'अच्छे दिन' आ गए !

भले ही कुत्ते को इंसान ने सबसे पहले पालतू बनाया हो। लेकिन इतना सम्मान आज तक कभी नहीं मिला। मनुष्यों के संपर्क में आने से लेकर अब तक कुत्ता सिर्फ कुकुर था। पालतू जानवर था। जो लोगों पर भौं-भौं करता था। जो अपने मालिक के आगे-पीछे दूम हिलाते फिरता था। लेकिन कुत्ता अब वो कुकुर नहीं रहा जो आप समझते रहे हैं। कुत्तों के अच्छे दिन आ गए हैं। कुत्ता प्रजाति अपने स्वर्णिम काल में प्रवेश कर चुकी है। 
कुत्ते की कितनी प्रजातियां हुई। जगंली से हाई ब्रिड हो गया कुत्ता। घर में पलंग पर सोने लगा कुत्ता। गाड़ी में घूमने लगा कुत्ता। कुत्तों को अंग्रेजी का नया-नया नाम मिला। लेकिन इस राज में जो सम्मान हासिल हुआ है, वो कभी नहीं हुआ। पहली बार इतने बड़े नेता, अभिनेता से कुत्ते की तुलना हो रही है। कुत्ते का कद बढ़ रहा है।

नाम तो धर्मेंद्र ने भी लिया था कुत्ते का। लेकिन वो नेगेटिव था। फिल्मी था। रमेश सिप्पी ने कुत्ते के नाम का सिर्फ इस्तेमाल किया। कुत्ते का नाम लेकर पैसा कमाया लेकिन सम्मान नहीं दिया। बसंती को नाचने तक से मना करवा दिया था रमेश सिप्पी ने। लेकिन 40 बरस बाद आज कुत्ता इतरा रहा है।

गुरूड़ हो भी क्यों ना। दुनिया की सबसे बड़ी सियासी पार्टी के बड़े नेता, उसके सांसद, अभिनेतामय नेता की तुलना कुत्ते से हो रही है। देश के बड़े-बड़े मंत्री, सत्ताधारी दल के नेता के मुंह से अपना नाम सुनकर कुत्ता अह्लादित हो रहा है। भाव विभोर होकर एक बुजुर्ग कुत्ते ने अपने बच्चों को एक किस्सा भी सुनाया कि कैसे एक मुख्यमंत्री ने आदर के साथ उसका नाम लिया जो प्रधानमंत्री बन गया। 

धन्य हिंदुस्तान। धन्य लोकतंत्र। और धन्य यहां के नेता। जिन्होंने कुत्ते को इतनी अदब बख्शी है। कुत्ता समाज इस सम्मान से अभिभूत है। जब तक सूरज चांद रहेगा। कुत्तों के देह में प्राण रहेगा। तब तक माननीयों के लिए कुत्तों के दिल में सम्मान रहेगा। अब कृतज्ञ कुत्ता समाज इन माननीयों को सम्मानित करेगा। कुत्तों का मान बढ़ानेवाले माननीयों को कुत्ता रत्न दिया जाएगा।

हालांकि कुछ पलटू नेताओं से कुत्ता समाज नाराज है। सरकार को ज्ञापन सौंपने वाला है। सियासत के इस कुत्ता काल में किसी कुत्ते को कुकुर समझने की भूल न करें। कुत्ता अब कुछ दिनों में कुत्ता जी होनेवाला है। इसलिए उसके स्वाभिमान पर चोट करना बंद हो। अगर एक बार किसी की तुलना कुत्ते से कर दी तो कर दी। फिर पलट नहीं सकते। कुत्ता समाज ने मांग की है कि इन पलटू नेताओं पर कड़ी कार्रवाई को लेकर कानून में संशोधन का प्रस्ताव संसद में पास हो।