78 लोग कम नहीं होते। नरसंहार हुआ है। बच्चे मरे हैं। महिलाएं मरी हैं। बुजुर्ग
मरे हैं। घर जले हैं। ख्वाब खाक हुए हैं। विश्वास का कत्ल हुआ है। अहसास की हत्या हुई
है। लेकिन सब चुप हैं। क्या हो गया है हमें। ना दुख है। ना मातम है। ना गुस्सा है।
ना खबर है। ना बहस है। ना चर्चा है। ना संवेदना है।
सबको
शोक में होना चाहिए था। देशभर में कोहराम मच जाना चाहिए था। आसमान को फट जाना चाहिए
था। धरती को धंस जानी चाहिए थी। मीडिया में सिर्फ और सिर्फ यही खबर होनी चाहिए थी।
प्रधानमंत्री को अभी असम में होना चाहिए था। राहुल गांधी को चाहिए था कि वो तरुण गोगोई
से लोगों की सुरक्षा का हिसाब मांगते। संसद में बात-बात पर प्रधानमंत्री
से जवाब मांगनेवाले सीताराम येचुरी साहब, शरद यादव साहब को चाहिए
था कि वो पीड़ितों से जाकर मिलते। उनकी आवाज उठाते। दिल्ली में एक कत्ल पर इंडिया गेट
को कैंडल से भर देनेवालों को चाहिए था कि उन 78 लोगों के लिए
कुछ कैंडल जला लेते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
देश
की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मवारी संभालनेवाले गृहमंत्री राजनाथ सिंह को असम जाते-जाते दो दिन लग गए। प्रधानमंत्री ने एक ट्विट कर दिया और भूल गए। 25
दिसंबर को काशी में जाकर झाड़ू लगा आए। लेकिन असम जाने की जेहमत नहीं
उठाई। क्या 78 मौत से ज्यादा जरूरी है, काशी की सफाई? क्यों 78 मौत के
गम से ज्यादा अहम हो गया वाजपेयी और मालवीय को भारत रत्न देने की खुशी ? क्या वाजपेयी जी का स्वास्थ्य अगर ठीक रहता तो वो नरसंहारों के दुख के बीच भारत रत्न मिलने की
खुशी मना पाते। कतई नहीं।
लोगों
को अच्छे दिनों का सपना दिखाकर सत्ता में पहुंची बीजेपी असम के नरसंहार के गम से दूर
झारखंड और जम्मू में जीत का जश्न मना रही है। कश्मीर में सत्ता का समीकरण सुलझा रही
है। झारखंड में नया मुख्यमंत्री खोज रही है।
कांग्रेस
को भी परवाह नहीं है। असम में उसी की सरकार है। लेकिन राहुल गांधी मौन है। मुख्यमंत्री
तरूर गगोई से सवाल करने के बजाय पार्टी के नेताओं से जम्मू-कश्मीर और झारखंड में हार का हिसाब मांग रहे हैं।
चार
दिन पहले जंतर-मंतर पर महाधरना देनेवाली महागठबंधन पार्टी के नेताओं
का भी कोई अता-पात नहीं है। खुद को शोषितों का झंडाबरदार कहनेवाले
वाम दल के नेता भी कहीं नहीं दिख रहे हैं। इन्हें अभी सड़क पर होना चाहि था। सरकार
से 78 मौत का हिसाब मांगना चाहिए था । लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। पाकिस्तान में बच्चों की मौत पर शोक मनानेवाले माननीय
अपने देश के बच्चों की मौत पर मौन हैं। हद है ये सियासत।
पाकिस्तान
में बच्चों की मौत पर छाती पीटनेवाली हिंदुस्तानी मीडिया के लिए भी असम का नरसंहार
बड़ी खबर नहीं है। क्यों नहीं हो रहा महाकवरेज। क्यों नहीं चल रही एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग
न्यूज। क्यों नहीं बैठता बड़ा-बड़ा पैनल। क्यों नहीं होती बहस।
अखबारों में क्यों नहीं छपता विद्वानों का लेख इस पर।
हकीकत
ये है कि नेता-मीडिया-कैंडल जलानेवाली स्वयंसेवी
संस्था, सभी एक दूसरे के पूरक हैं। ये तीनों एक-दूसरे के लिए काम करते हैं। शायद ही किसी राष्ट्रीय चैनल का कोई रिपोर्टर असम
में तैनात है। गैरहिंदी क्षेत्र होना भी एक वजह है। टीवी चैनलों को नरसंहार पर मातम
से ज्यादा वाजपेयी की कविता और भाषण में टीआरपी दिखती है। सस्ता और आसान। नेता वही
काम करते हैं, जिससे वो टीवी पर दिखें। वाजपेयी पर बाइट देकर,
उनके बारे में कुछ खास बात बताकर वो टीवी पर दिख सकते हैं। अखबारों में
छप जाते हैं। लिहाजा असम का नरसंहार उनके लिए मायने नहीं रखता। वाजपेयी को भारत रत्न
की खुशी और चुनाव के कवरेज में डूबी मीडिया को स्वयंसेवी संस्थाओं का कैंडल मार्च भी
दिखाने की फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में वो भी कैंडल मार्च प्रोग्राम कैंसल कर देते हैं।
शर्म है!
इसी
देश का एक टुकड़ा है असम। हम जैसे लोग वहां भी रहते हैं। उनकी जिंदगी की कीमत उतनी
ही है,
जितनी हम दिल्ली में बैठे लोगों की। फिर ऐसा दोहरा रवैया क्यों ?
सोचना होगा हमें। जरूर और जल्द। क्योंकि नरसंहार पर ये चुप्पी खल रही है। किसी बड़ी त्रासदी को नोत रही है।
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