पटना की स्वाभिमान रैली में
महागठबंधन का एजेंडा बहुत हद तक साफ हो गया। लालू यादव की सियासत 360 डिग्री घूमकर
दो दशक पीछे पहुंच गई। वो फिर से जाति पर अटक गए। तो नीतीश कुमार अपने डीएनए को
बिहार से जोड़ते-जोड़ते व्यक्तिगत हो गए।
लालू यादव ने अपने भाषण की
शुरुआत ही दो जातियों के बीच लकीर खींचते हुए की। अनंत सिंह के बहाने उन्होंने यादवों
को साधने की कोशिश की। तो जाति जनगणना को लेकर उन्होंने सवर्णों को टारगेट किया। तकरीबन
आधे घंटे का उनका भाषण मंडल के ईर्द-गिर्द घूमता रहा।
दरअसल जाति की राजनीति के
माहिर खिलाड़ियों को लगने लगा है कि मोदी के चक्रव्यूह को जाति के तिलिस्म से ही
तोड़ा जा सकता है। नीतीश कुमार भी जानते हैं कि लालू यादव से गठबंधन के बाद उनका
सवर्ण वोट छिटक गया। ऐसे में जो बातें अंदरखाने चल रही थी, वो गांधी मैदान के मंच
पर सरेआम हो गई। लालू यादव की जातिवादी सियासत को शरद यादव का भी समर्थन है और खुद
को विकास पुरूष कहने वाले नीतीश कुमार का भी।
लालू यादव जानते हैं कि यादव
ही उनकी शक्ति हैं और यादव ही डर भी। जिन यादवों के भरोसे वो 15 बरस तक बिहार की
सत्ता पर काबिज रहे, वही यादव उनसे धीरे-धीरे छिटकते चले गये। लोकसभा चुनाव में
काफी हद तक मोदी ने उनके यादव वोटबैंक में सेंघमारी की। तो अब पप्पू यादव गोप के
नए पोप के तौर पर खुद को साबित करने में जुटे हुए हैं। जो लालू यादव के लिए बड़ी
चिंता की बात है। और यही चिंता उन्हें बार-बार यादवों को दुहाई देने के लिए मजबूर
करती रही।
जनता परिवार बनाने में
नाकाम रहे महागठबंधन के नेताओं को लगता है कि अगर इस बार चूक गए तो बहुत कुछ खत्म
हो जाएगा। लालू यादव खुद चुनाव लड़ नहीं सकते और पार्टी भी हार गई तो पूछेगा कौन।
तो वहीं नीतीश कुमार इस चुनाव को आन की लड़ाई मान चुके हैं। कैडर की कमी से जूझते
नीतीश कुमार को ये डर सता रहा है कि इस बार अगर सत्ता से दूर हो गए तो पार्टी को
टूट से कोई बचा नहीं सकता है। ऐसी स्थिति में खुद हाशिए पर चले जाएंगे।
यही वजह है कि मोदी से
सीधे-सीधे टकरानेवाले नीतीश कुमार डीएनए वाले बयान पर मोदी को घेरते-घेरते चूक गए।
उन्होंने बड़ी चालाकी से खुद के डीएनए को बिहारियों के स्वाभिमान से तो जोड़ दिया
लेकिन अंदर की बौखलाहट उन्हें व्यक्तिगत बना दिया। नीतीश कुमार का भाषण डीएनए में
फंसकर अटक गया। उन्होंने मोदी के खानदान पर सवाल उठा दिए। उनकी विकास की राजनीति
पीछे छूट गई।
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