गुरुवार, 16 जुलाई 2015

चलती ट्रेन मतलब बुद्धिजीवियों की सोसायटी

जब कभी दिल्ली से गांव जाता हूं। या फिर गांव से दिल्ली आने के लिए ट्रेन में बैठता हूं, एक गजब अहसास होने लगता है। ट्रेन जैसे-जैसे आगे बढ़ने लगती है अरस्तू सत्य लगने लगते हैं। समाज की परिकल्पना यथार्थ दिखने लगती है। ऐसा लगने लगता है कि ट्रेन, ट्रेन नहीं बल्कि एक सोसायटी है। बॉगी अपार्टमेंट की तरह लगने लगती है। कंपार्टमेंट फ्लैट की तरह। और अपना बर्थ बेडरूम जैसा।

चलती ट्रेन ऐसी सोसायटी में तब्दील हो जाती है, जहां सिर्फ बुद्धिजीवियों का वास होता है। ऐसे-ऐसे तर्कशास्त्री जिनका कोई तोड़ नहीं है। जो ये साबित कर देते हैं कि कराची या इस्लामाबाद अब तक हिंदुस्तान का हिस्सा इसलिए नहीं है क्योंकि यूएनओ में इन्होंने भाषण नहीं दिया। पता नहीं भारत सरकार इन्हें यूएनओ या फिर द्विपक्षीय वार्ता के लिए क्यों नहीं भेजती है। अपने तर्कों से ये संबंध प्रमाणित करने वाले डीएनए को भी बदल सकते हैं।

एक फ्लैट से दूसरे फ्लैट में छन-छन कर आती आवाज ये पुख्ता करती है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। ये चाणक्य का मुल्क है। चाणक्य अब नहीं रहे तो क्या हुआ। उनको पीछे छोड़ने की चाहत रखने वाले राजनीति शास्त्र के पुरोधा बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। चलती ट्रेन में जब एक बार बात सियासत की शुरू होती है तो ऐसे-ऐसे समीकरण निकालते हैं, कि पूछिए मत। अगर नरेंद्र मोदी, अमित शाह, राहुल गांधी या फिर लालू-नीतीश इनकी बात सुन लें तो कल से अपना राजनीतिक सलाहकार बना लेेंगे। बड़े अखबार के संपादक इनसे मिल लिए तो वो अखबार में हर दिन एक कॉलम इनसे  लिखवाने के लिए एग्रिमेंट कर लेंगे। टीवी के चैनलहेड ने देख लिया तो प्राइम टाइम के डिबेट शो का हिस्सा बनाने के लिए इनके घर के सामने पर्मानेंट ओवी वैन लगा कर छोड़ देंगे।

लोकसभा चुनाव 2014 से कुछ दिन पहले भी अगर राहुल गांधी इनसे मंत्र ले लेते तो वो जरूर प्रधानमंत्री बन जाते। राजनीति शास्त्र के ये ज्ञाता ऐसे बात करते हैं जैसे ये उनकी हर खूबी-कमजोरी से वाकिफ हैं। राहुल की तरह मोदी भी बड़ी भूल कर रहे हैं। एक अच्छे प्रधानमंत्री होने के बावजूद मोदी अब तक देश में अच्छे दिन इसलिए नहीं ला पाए क्योंकि वो इनसे मशविरा नहीं कर रहे हैं। इन्हें पता है कि दिल्ली के अगले विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की जमानत जब्त हो जाएगी। अभी भी वक्त है, अगर लालू यादव या फिर नीतीश कुमार टेलीफोन से ही इनसे सलाह ले लेंगे तो बात बन जाएगी। वरना रिजल्ट तो चुनाव की तारीख के ऐलान से पहले ही घोषित कर दिया है।

बात शुरू होती है तो दिल्ली से निकलकर न्यूयॉर्क तक पहुंच जाती है। चर्चा ओबामा और अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव तक होती है। बॉबी जिंद अगर वाकई अमेरिका का राष्ट्रपति बनने को लेकर सीरियस हैं तो इनसे बात करनी चाहिए।

ये बुद्धिजीवी जानते हैं कि ट्रेन में बिकनेवाला खाना शुद्ध नहीं होता। ये भी पता है कि बिस्किट, कोल्डड्रिंक या चिप्स काफी महंगा बेचा जाता है। डुप्लिकेट रहने की संभावना ज्यादा रहती है। इसलिए खरीदकर नहीं खाते। इन्हें ये भी मालूम है कि ट्रेन में बिकनेवाली चाय में कोई स्वाद नहीं होता। गर्म पानी जैसा है। लेकिन इसलिए खरीदकर पी लेते हैं ताकि कि बेचनेवाले गरीब का कल्याण हो जाएगा।

चाय की चुस्की के साथ निकलनेवाला क्रिकेट का ज्ञान धोनी का नसीब बदलनेवाल होता है। धोनी के खेल में अब भी जान बची है लेकिन खुद को बदलना होगा। कप्तानी का तरीका बदलने की जरूरत  है। विराट कोहली जब से अनुष्का के साथ रहने लगा है तब से चौपट हो गया है। शॉट सेलेक्शन ठीक नहीं होता। इनके टिप्स मान लें तो बेहतर खेल सकता है। 2015 में भारत वर्ल्ड कप नहीं जीतेगा, इसकी भविष्याणी तो 2 साल पहले ही कर दी थी। आईपीएल में मैच फिक्सिंग होती है ये भी इन्हें पता था। लेकिन इनको क्या मतलब।

ये इनते बड़े बुद्धिजीवी हैं जिनका सहयोग अगर सरकार ले तो हिंदुस्तान दुनिया में हर क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंच सकता है लेकिन इनके साथ वैसा ही भेदभाव किया जा रहा है जैसे एमबीबीएस, एमडी या एमएस डॉक्टर और बवासीर, नपुंसकता, गुप्त रोग धातु स्राव जैसी गंभीर बीमारी का चुटकी में इलाज करनेवालों में भेदभाव होता है। एक बड़े-बड़े अस्पताल में रहकर भी मरीजों की जान नहीं बचा पाते और दूसरे ट्रेन के टॉयलेट में, रेलवे लाइन के किनारे दीवार पर, आरटीवी बसों में इश्तेहार देकर ही जनकल्याण करते हैं। 

ट्रेन की खिड़कियों से खेत दिखने के बाद देश में कृषि : इतिहास, वर्तमान, भविष्य की स्थितिजैसे गंभीर विषय पर परिचर्चा शुरू हो जाती है। सूखा, बाढ़ से लेकर किसानों की खुदकुशी तक चर्चा की जाती है। इसको लेकर सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए अचूक उपाय बताते हैं। इनके बताए उपाय सरकार मान लें तो खेती और किसान की समस्या चुटकी में निपट सकती है। लेकिन इनसे कोई पूछता ही नहीं। यही देश का दुर्भाग्य है।

कुछ लोग तर्क-कुतर्कों की चरम सीमा पर पहुंच जाते हैं। जिन्हें बाकी लोग मग्न होकर सुनते रहते हैं। जैसे उन्हें पहलीबार ज्ञान के सागर में डुबकी लगाने का मौका मिला है। हां, कुछ अपरोजक टाइप के लोग भी रहते हैं, जो इन महाज्ञानियों के ज्ञान की दो घूंट पीने के बजाय सोते रहते हैं या फिर किताबों या मोबाइल में मग्न रहते हैं। ये ऐसे अपवाद माने जाते हैं, जिनका राष्ट्र निर्माण से कोई लेनादेना नहीं है। देश इनके लिए कोई मायने नहीं रखता। इसीलिए राष्ट्र हित के बारे में सोचने की सारी जिम्मेदारी इन्हीं बुद्धिजीवियों पर रहता है।

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