इंतजार का फल मीठा होता है। साबिर अली को भी मीठा फल गया। बीजेपी ने राष्ट्रभक्त
का सर्टिफिकेट दे दिया। गरदन में अपना भगवा गमछा लपेट दिया। फुलों का गुलदस्ता देकर
अपना लिया। साबिर भी यही चाहते थे। डेढ़ बरस पहले जल्दबाजी में थे। नकवी में
लंगड़ी मार दी। ऐसे गिरे कि होश आते-आते डेढ़ बरस लग गए। खैर , देर आए। दुरुस्त
आए। अब किसी को शिकवा नहीं है। साबिर के लिए नकवी बड़े भाई जैसे हैं। गिरिराज सिंह
के लिए साबिर अली एक सच्चे देशभक्त हैं। दूरदर्शी अमित शाह और भूपेंद्र यादव के
लिए फायदे का सौदा। बड़े नेताओं ने फैसला किया तो छुटभैय्ये अब जय जयकार करने लगे
हैं। कल तक टीवी स्टूडियो में बैठकर एक-दूसरे की बखिया उकेर रहे थे। अब पार्टी
दफ्तर से लेकर चुनावी मंच पर एक दूसरे से गलबहियां करेंगे। यही सियासत है। यही सच
है।
साबिर अली सधे हुए नेता हैं। रामविलास पासवान के बंगले से निकले थे,
तो पहचान बनी थी। रामविलास की सियासी पहचान मलीन होने लगी तो साबिर साहब ने नीतीश
का दामन थाम लिया। राज्यसभा सांसद बन गए। टीवी स्टूडियो में बैठकर विरोधियों पर
तीर चलाने लगे। नीतीश जब मोदी से अलग हुए थे तो बहुत खुश हुए थे साबिर साहब।
गुजरात दंगों का एक-एक आंकड़ा रट्टा मार लिया था। सब जुबान पर था। बीजेपीवालों की
बोलती बंद कर देते थे। लेकिन लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने साबिर साहब को चुनाव
लड़ने की तैयारी करने को कहा तो विदक गए। चुनाव लड़ने के लिए तो कभी राजनीति की
नहीं। जानते थे कि जमानत जब्त हो जाएगी। टीवी पर बोलकर। पैसा खर्चकर। सियासत में
टिकने की ख्वाहिश लेकर मैदान में उतरे थे। लेकिन नीतीश माने नहीं। मन खट्टा हो
गया। पार्टी छोड़ दी। हवा का रुख भांप लिया। मौकापरस्ती में साबिर साहब ने भी अपने
नाम की एक लकीर खींच दी। मोदी का प्रचार करने के लिए मुरेठा बांधकर तैयार हो गए।
लेकिन नकवी ने खेल बिगाड़ दिया। साबिर अली भी जिद्दी निकले। किसी दूसरी पार्टी की
तरफ मुंह नहीं ताका। जाएंगे तो बीजेपी में। करीब डेढ़ बरस की कड़ी मेहनत के बाद
सफलता मिली। आतंकी से रिश्ते के आरोप में निकले थे। सच्चे देशभक्त मुसलमां बनकर
लौट आए हैं।
साबिर अली बिहार में विधानसभा चुनाव नहीं लडेंगे। ये तो तय है। अगर
चुनाव ही लड़ना होता तो नीतीश के साथ रहते। खैर, साबिर अली खुद भी जानते हैं कि उनका
कोई जनाधार नहीं है। अपनी बदौलत वो 10 हजार वोट भी बमुश्किल इकट्ठा कर पाएंगे।
लेकिन बीजेपी के रणनीतिकार इससे आगे की सोचते हैं। उन्हें लगता है कि कुछ मुस्लमानों
को पार्टी में जोड़ने से बिहार में उनकी छवि बदलेगी। मुस्लमानों का कुछ वोट इनके
हिस्से भी आएगा। लेकिन बीजेपी की ये गलतफहमी है। साबिर अली जैसे नेताओं को पार्टी
में रहने-ना रहने से बड़ा फर्क नहीं पड़ता है। लगता है कि बीजेपी ने जल्दबाजी कर
दी। बीजेपी को तो साबिर अली से ही सीखना चाहिए था। इंतजार करना चाहिए था। लोकतंत्र के चाणक्य इंतजार नहीं करते। क्योंकि अब तो हर पार्टी, हर घर में एक चाणक्य है।
बिहार में चुनाव की तारीख का अभी एलान होना बाकी है। अगले दो-ढाई महीने में बड़ी तादाद में राष्ट्रभक्त, धर्मनिर्पेक्ष, समाजसेवी के सर्टिफिकेट बांटे जाएंगे। बीजेपी ने शुरुआत कर दी है। हर पार्टी में ऐसा होना है। बड़ी तादाद में घर वापसी भी होगी। भ्रम भी टूटेगा। कईयों को दृव्य ज्ञान की प्राप्ति होगी। भाई-मिलन होगा। बस देखते रहिए।
Bahut Achcha, bihar ka rajniti kuch aisa hi hai..
जवाब देंहटाएंbhut achchhe-----लोकतंत्र की अगली मंडी बिहार में -http://khabriguppy.blogspot.in/2015/06/blog-post_2.html
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