लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। तारीखें तय हो चुकी है। महासमर के
लिए सभी पार्टियों ने कमर कस ली है। तैयारी में कहीं से कोई खोट ना रह जाए, इसके
लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी तरह के हथियारों पर शान चढ़ाए जा रहे हैं।
नेताओं का दल बदल जारी है। गठबंधन का टूटना, बिखरना और जुड़ना लगातार
जारी है। नैतिकता के नए-नए परिभाषा हर रोज गढ़े जा रहे हैं। हर दिन धर्मनिरपेक्षता
और सांप्रदायिकता की नई सीमा बनायी जाती है और फिर उसे सुविधा के मुताबिक तोड़ दी
जाती है। अवसरवाद के बाजार में महत्वाकांक्षी नेता अपने इमान, नीयत, सोच, दावे और
वादे सरेआम नीलाम कर रहे हैं।
कल तक जो नेता मोदी को हत्यारा, कट्टरवाद, राक्षस, सांप्रदायिक कह कर
गरिया रहे थे, आज वो उनके नाम का माला जाप रहे हैं। जो बीजेपी की विचारधारा से
ओतप्रोत थे, उन्हें अब इस पार्टी में सांप्रदायिकता की बू आने लगी है। चालीस सालों
तक गांधी परिवार के इशारों पर नाचने वाले कांग्रेसी को अब पार्टी में लोकतंत्र का
अभाव खटक रहा है। लालू को गाली देकर जेडीयू का दामन थामने वाले फिर से आरजेडी में
शामिल हो रहे हैं। तो जिंदगी भर लालटेन में तेल भरने वाले दूसरी पार्टियों में जा
रहे हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक हर राज्य में छोटे
बड़े दलों के नेताओं में भागमभाग है। है करनेवाली बात ये है कि इन दल बदलू नेताओं
को धड़ल्ले से टिकट भी मिल रहा है।
स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए ये बेहद ही चिंता की बात है। चुनाव की आहट
पाकर जो नेता नैतिकता को ताक पर रखकर अपना सियासी सिद्धांत बदल लेता है, वो चुनाव जीतने
के बाद जनहित में किए गए अपने दावे और वादे पर अडिग रहे, ये कैसे मुमकिन हो सकता
है। जब ये नेता एक अदद टिकट के लिए अपनी पार्टी को भूल जाते हैं। अपने नेता को
गरियाने लगते हैं। इन्हें उन जनता को भूलने में कितना वक्त लगेगा।
जाहिर है ऐसे मौकापरस्त नेता सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं ना कि
लोगों के बारे में। समाज के विकास के बारे में। इनके लिए चुनाव एक ऐसी परीक्षा है
जिसे पास करने के बाद पांच साल तक लूटने का लाइसेंस मिलता है। पावर मिलता है। ताकत
मिलती है। लोगों में पूछ बढ़ती है। इसलिए वो इस परीक्षा को पास करने के लिए सारे
तिकड़म लगा देते हैं। और जो पार्टी ऐसे पलटीमार नेताओं को टिकट देती है, उसे सिर्फ
शीर्ष का सत्ता दिखाई पड़ता है। वो किसी तरह जादुई आंकड़े को छूना चाहती है। चाहे
वो हत्या के आरोपी, भ्रष्ट, लूट के आरोपी और दल बदलूओं के दम पर ही क्यों ना पूरा
करना पड़े।
लोगों को इस तरह के नेताओं को नकारने की जरूरत है। चाहे वो किसी भी दल
के हों। किसी भी बड़े नेता के आशीर्वाद से चुनाव लड़ रहे हों।
सचमुच ही ऐसे मौकापरस्त और निकम्मे राजनेताओं को नकारने की जरूरत है, दलों की दल-दल से ऊपर उठाने की भी।
जवाब देंहटाएंBilkul sahi wakhyan kiya hai aapne.
हटाएं