सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

'समाजवादी संत' के नाम एक चिट्ठी

नेताजी, 
मेरी राजनीतिक समझ के हिसाब से आपकी ज़िंदगी में 23 अक्टूबर की तारीख बहुत ही दर्दनाक होगी। तकलीफ देनेवाली होगी। झकझोरनेवाली होगी। तिनका-तिनका जोड़कर जिस पार्टी को आपने बनाया। जिस परिवार को आपने दशकों तक जोड़ कर रखा। उसके दो फाड़ साफ-साफ दिख रहे थे। आपकी भावुकता इसे प्रमाणित करता है। लेकिन महाबैठकों के बाद ऐसे लग रहा है कि परिवार में मचे तूफान को  आपने तत्काल थाम लिया है। हालांकि इसकी कोई गारंटी नहीं है कि ये सुलह कब तक रहेगी? क्योंकि ये पार्टी के ऊपर परिवार और ईगो की लड़ाई है। खैर, ये सब आप बेहतर जनते होंगे। लेकिन मेरा सवाल इसे कहीं दूसरा है।  24 अक्टूबर को जब आप महाबैठक में बोल रहे थे, तो आपने कई सारी बातें कही। आपने मुख्यमंत्री को बेटे के अंदाज में फटकारा तो भाई का साथ दिया। उन्हें पुचकारा। आपने बहुत सारी अच्छी बातें कही। जो किसी अनुभवी नेता को कहनी चाहिए। जो एक पिता को कहनी चाहिए। लेकिन आपकी बातों से मेरे दिमाग में कुछ सवाल कौंध रहे हैं, क्योंकि आप लोहिया की समाजवादी विचारधारा की बात करते हैं। क्योंकि आपको कुछ लोग आपको समाजवादी  संत कहते हैं। समाजवादी शिरोमणि कहते हैं।

नेताजी, आपने कहा कि मुख्तार अंसारी का परिवार ईमानदार है। जो फैसला हुआ वो पार्टी के हित में हुआ। सर, आपको किस हिसाब से मुख्तार अंसारी का परिवार ईमानदार लगता है। क्या आपको पता नहीं है कि मुख्तार अंसारी को पूर्वांचल का रॉबिनहुड यूं ही नहीं कहा जाता है। क्या आपको पता नहीं है कि मुख्तार पर धमकी देने, हत्या, वसूली, दंगा भड़काने के कितने केस दर्ज हैं। क्या आपको पता नहीं कि वो आपराधिक गिरोह चलता है। पूरा परिवार उसके साथ है। क्या आपको याद नहीं कि पहले भी वो आपके साथ था। फिर चला गया। फिर सटा। वो मौका परस्त है। क्या सच में मुख्तार का परिवार आपको ईमानदार लगता है। अगर हां  तो वाकई आप समाजादी संत हैं।

नेताजी, आपने संकेत में ही सही लेकिन अखिलेश यादव को कहा कि वो शराबियों और जुआरियों की मदद कर रहे हैं। सर, वो तो ठीक है। हो सकता है कि कर रहे होंगे। लेकिन जिन-जिन लोगों की तारीफ में आप कसीदे पढ़ रहे थे। क्या वो कैसे हैं आपको नहीं पता है। वो किन-किन लोगों की मदद कर रहे हैं ये आप नहीं जानते। अगर नहीं जानते हैं तो वाकई आप समाजवादी संत हैं। 

नेताजी, आपने कहा कि युवा हमारे साथ हैं। तो सर, ये आप जान लीजिए कि आज की तारीख में समजावादी पार्टी का वही युवा आपके साथ हैं, जिसका कोई निजी हित होगा। अगर आप  अब भी ये मानने के लिए तैयार नहीं है कि समाजवादी युवाओं का असली नेता अखिलेश यादव हैं तो वाकई आप समजावादी संत हैं। 

नेताजी, आपने कहा कि शिवपाल आमलोगों के नेता हैं। कई लोगों ने चापलूसी को धंधा बना लिया। सर, इसमें कोई शक नहीं कि शिवपाल आमलोगों के नेता हैं। लेकिन क्या शिवपाल चापलूस नहीं हैं। क्या वो आपकी चापलूसी नहीं करते हैं। लोगों के बीच शिवपाल यादव की छवि कैसी है ये आपको पता नहीं है। कैसे-कैसे कब्जाधारियों से शिवपाल के संपर्क हैं ये आपको नहीं मालूम हैं। अगर नहीं है तो आप वाकाई समाजवादी संत हैं।

नेताजी, आपने अमर सिंह को अपना भाई बताया। उनके  कई अहसानों का जिक्र किया आपने। कुछ का नहीं किया। कर भी नहीं सकते। ये सबको पता है। खैर। आप भूल गए कि आपका ये भाई कुछ महीने पहले तक आपको क्या-क्या कहता था। आप भूल गए कि पार्टी से जब आपने अमर सिंह को बाहर कर दिया था, तो उन्होंने आपके लिए कैसे-कैसे विशेषणों का इस्तेमाल किया था। कैसे-कैसे मुहावरे और शेरो-शायरी पढ़ता था आपके लिए। अगर आप वाकई भूल गए हैं तो आप सही में समजावादी संत हैं।

नेताजी, आपने कहा कि लाल टोपी पहनकर कोई समजवादी नहीं बन जाता। आपने बिल्कुल ठीक बातें कही। लेकिन लाल टोपी पहनाकर आपने ही लोगों को समजावादी बनाना सिखाया है। अमर सिंह और जयाप्रदा को क्या पता कि समाजवाद का संघर्ष क्या है। अखिलेश, धर्मेंद्र, रामगोपाल, डिंपल, तेजप्रताप को तो आपने ही लाल टोपी पहनाकर समाजवादी बनाया। आपने तो कल्याण सिंह और उनके बेटे को भी टोपी पहनाकर समाजवादी बना दिया था। क्या आपको याद नहीं है। अगर याद नहीं है तो ठीक ही लोग आपको समजावादी संत कहते हैं।

नेताजी, आपने अपने भाषण के दौरान एक बार समाजवाद की परिभाषा पूछी थी। जाहिर वो अखिलेश और अखिलेश समर्थकों के तरफ उछाला गया सवाल था। लेकिन एक बात बताइए सर कि आपकी पार्टी के कितने लोग समजावाद का असली मतलब समझते हैं। अगर एक-आध समझते भी हैं तो क्या वो उसपर अमल करते हैं। अगर आप इसका जवाब नहीं देंगे तो वाकई आप समजावादी संत हैं।

नेताजी, आपने एक बार जिक्र किया कि समाजवादी पार्टी टूट नहीं सकती। तो सर ये बात एक मंझे हुए नेता के तौर पर बिल्कुल ठीक है। पार्टी सुप्रीमो होने के नाते कहा तो भी ठीक। लेकिन हकीकत आफ जानते हैं। आपको पता है कि आपकी पर्टी, आपके परिवार में खेमेबाजी किस हद तक है। अब तो पार्टी अंदर से बिखर चुकी है। आपकी लाज रखकर दोनों गुट कब तक एक रहते हैं ये देखना है। फिर भी आपको लगता है कि पार्टी नहीं टूटेगी तो आप वाकई समाजवादी संत हैं। 

आखिरी में नेताजी, पार्टी में चल रहे झगड़ों से आपका दुखी होना लाजिमी है। लेकिन आप वक्त को समझिए। अब अखिलेश युग आ चुका है। साइकिल पर चढ़नेवाले भी अब लैपटॉप की बात करते हैं। जाति और धर्म की सियासत ठीक है। लेकिन इससे कहीं ऊपर अब विकास की सियासत पहुंच चुकी है। इसमें आपसे और शिवपाल यादव से अखिलेश कहीं आगे हैं। अगर आप नहीं समझ रहे हैं तो वाकई आप समाजवादी संत हैं।

धन्यवाद

रविवार, 9 अक्टूबर 2016

'दलाली' के बाद ममा-बाबा की बात

बाबा के एक बयान के बाद टीवी पर गहमागहमी शुरू हो चुकी थी। ब्रेकिंग न्यूज़ चलने लगी थी। एंकर सब गला फाड़कर चिल्लाने लगा था। तभी मैडम के फोन की घंटी बजी। पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता ने फोन किया था। 
मैडम, बाबा ने क्या कहा दिया है सुना आपने?  
हां, सुना है।
मैडम, वो मीडिया वाले मेरे घर के बाहर खड़े हैं। रिएक्शन मांग रहे हैं।
छोड़ो अभी। कोई रिएक्शन मत दो। फोन कर रहा है तो कह दो कि मुझे इसके बारे में पूरी जानकारी नहीं है।
जी मैडम। 
फोन रखते ही। दूसरे नेता का फोन। मैडम ने उसे भी यही बातें कही। फिर तीसरा। फिर चौथा। फिर पांचवा। फिर एक-एक कर न जाने पार्टी के कितने पदाधिकारियों के फोन आ गए। सिर्फ यही पूछने के लिए मैडम, बाबा के बयान पर क्या रिएक्शन दूं।
अंत में मैडम झल्ला गईं। दो-चार नेताओं को झाड़ लगाई। मोबाइल को साइलेंट मोड में रख दिया। फोन से रिसिवर हटा दिया। बेटी को भी अपने घर बुला लिया। सलाहकार मियां को भी बुला लिया था। बिन बुलाए आफत के बारे में दोनों मां-बेटी सोच ही रही थी कि सभा खत्म करने के बाद बाबा घर आए। अपने घर जाने की बजाय सीधे ममा से मिलने पहुंचे।
मैडम ने पूछा- आ गए। हां ममा, जवाब मिला।
पता है तुझे, आज फिर तुमने बोलते-बोलते क्या बोल दिया।
येस ममा। लेकिन ममा, मैं तो कड़े शब्दों में फेकू पर अटैक रहा था। मीडिया अटेंशन के लिए। 
लेकिन दलाली शब्द बोलने की क्या जरूरत थी?
मैंने तो ऐसे ही बोल दिया था ममा।
क्या ऐसे ही बोल दिया। 12 साल में तुमने कुछ नहीं सीखा। सही में तुम पप्पू हो। लोग कुछ गलत नहीं कहते।  
ममा के मुंह से पप्पू सुनते ही बाबा गुस्सा गए। तुनकते हुए कहा- आपने भी तो एक बार उसे मौत का सौदागर कहा था। मैंने तो सिर्फ दलाल ही कहा है। इतना ही नहीं। आपने तो ये भी एक बार कहा था कि फेकू जहर की खेती करता है।
ये क्या फेकू-फेकू  बोल रहे हो। 'डिग्गी' ने एक बार सिखा दिया। वही रट्टा मार लिया। अपने मन से भी कुछ बोलो। और हां, वो जब मैंने मौत का सौदागर बोला था, तब क्या हुआ था, तुम्हें याद है। गुजरात में कितनी कम सीटें मिली थी कांग्रेस को। उससे भी कुछ नहीं सीख पाए पप्पू। सच तो ये है कि तुम्हें कुछ याद ही नहीं रहता। नशे से बाहर निकलो तब तो।
ऐसे मत बोलिए। रट्टा मार के न बोलूं तो क्या बोलूं। पूरे यूपी में घूम-घूमकर वही बोला जो रट्टा मारा था। एक बार अपने मन से बोल दिया तो आप लोग कह रहे हैं कि गोबर कर दिया। 
ममा निराश होकर बोली। जा पप्पू। तेरा कुछ नहीं होगा। कब तू बड़ा होगा पता नहीं। इसीलिए तुम्हारी शादी भी हम नहीं करवा रहे हैं।
जो होगा। सो होगा। लेकिन आप मुझे पप्पू मत कहा कहिए हां।
रूठ कर बाबा मां के कमरे से बाहर निकले। अपने घर पर पहुंचे। उस कमरे में खुद को बंद कर लिया, जहां गांजा, अफीम जैसे कुछ चीजें रखी हुई थी। उधर दूसरी तरफ मैडम अब डैमेज कंट्रोल में जुट गई।  

सोमवार, 8 अगस्त 2016

ये गुस्सा बड़ा सियासी है!

2 दिनों के अंदर प्रधानमंत्री मोदी ने जिस लाचारगी भरे अंदाज़ में अपने गुस्से का इजहार किया, वो कई सवाल खड़े करते हैं। सवाल उठता है कि जो शख्स देश की सबसे ताक़तवर कुर्सी पर बैठा हो, वो ऐसे कैसे बोल सकता है? भक्त जिसकी तुलना शेर से करे वो इतना लाचार कैसे हो सकता है? या फिर संसदीय राजनीति में तालमेल बैठाने के लिए घड़ियाली गुस्से का सहारा लेना जरूरी हो गया है? या फिर दलित पिटाई का मुद्दा हो या फिर तथाकथित गौरक्षा की बात हो, इसमें न्याय-अन्याय और समर्थक-विरोधी के बीच प्रधानमंत्री लकीर नहीं खींच पा रहे हैं? क्योंकि जिस स्वयंभू गौरक्षकों पर बर्बरता के आरोप लग रहे हैं वो कहीं न कहीं भगवा झंडे के नीचे पलते रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ स्वयंभू गौरक्षकों के निशाने पर वही दलित हैं, जो देश के 16.6 फीसदी हैं। दलित जिन 5 राज्यों में सबसे बड़ी तादाद में हैं उनमें से पंजाब और यूपी में अगले बरस चुनाव होना है। तो जाहिर की बीजेपी और मोदी दोनों को दलितों की चिंता दिखानी पड़ेगी। वही हो भी रहा है। क्योंकि अगर प्रधानमंत्री ये कह रहे हैं कि चाहें तो मुझे गोली मार दें, लेकिन दलितों को कुछ मत कहें, तो फिर इसका मतलब क्या है? ऐसा तो नहीं कि दलितों को पीटने वाले भगवाधारियों के खिलाफ कार्रवाई करने से बचना  भी चाहते हैं और सीधे तौर पर समझा पाने में भी नाकाम हैं? लिहाजा उनसे कैमरे के सामने अपील कर रहे हैं। लेकिन सवाल यहीं से आगे बढ़ता है कि सत्ता में आने के बाद लोग सिर्फ दिखावे का गुस्सा करते हैं? क्योंकि कमोबेश ऐसी ही स्थिति उस वक्त राहुल गांधी की भी थी, जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी। राहुल गांधी को भी गुस्सा बहुत आता था। वो भी इसी तरह कभी महंगाई पर, कभी भ्रष्टाचार पर तो कभी बेटियों से बलात्कार के बाद गुस्से का इजहार करते थे। लोग उनसे भी यही सवाल करते थे कि कांग्रेस के सबसे ताक़तवर नेता को किसी बात पर गुस्सा आता है लेकिन उसकी सरकार रहने के बावजूद वो कार्रवाई नहीं कर पा रहा है तो आखिर क्यों? लोगों को जिस तरह से राहुल गांधी का गुस्सा दिखावा लगता था, ठीक उसी तरह मोदी का गुस्सा भी लोगों को घड़ियाली लग रहा है। सिर्फ नरेंद्र मोदी या फिर राहुल गांधी ही नहीं,  यूपी की सियासत के समाजवादी शिरोमणि मुलायम  सिंह यादव को भी अपने मुख्यमंत्री बेटे पर गुस्सा बहुत आता है। अपने गुंडा कार्यकर्ताओं और विधायकों पर बहुत गुस्सा आता है। लेकिन कार्रवाई सिर्फ उन्हीं के खिलाफ करने की हिम्मत करते हैं, जो उनके या उनके परिवार के किसी सदस्य की तरफ ऊंगली उठता है। तो क्या ये गुस्सा कहीं संसदीय राजनीति का हथियार तो नहीं है? जिसके जरिये नेता लोगों के दिलों में सहानुभूति पैदा करना चाहते हैं? हालांकि लोग भी अब अच्छी तरह जानते हैं कि बड़े-बड़े नेता कैमरे के सामने गुस्से का इजहार कर सियासत को किस तरह साधते हैं। ये बात मोदी को भी समझना चाहिए और मुलायम को भी। क्योंकि राहुल गांधी के इस गुस्से को 2014 में जनता पूरी तरह से नकार चुकी है। 

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

सुशासन बाबू का शराब कानून

नीतीश जी
सर, गज़ब का शराब वाला कानून बनाया है आपने।  क्या धांसू आइडिया मिला है आपको। किसने दिया ये आइडिया । उस अफसर पर बलिहारी जाने को जी करता है। इस जबरदस्त आइडिया देनेवाले सलाहकार को कोई बड़ा सम्मान जरूर दिलाइएगा सर। मैं तो कहूंगा कि अबकी बार पद्म पुरस्कार के लिए कोई जुगाड़ लगवा दीजिएगा।  

घर में कोई शराब पीये तो सबको जेल। वाह! किसी लड़के के पास शराब मिली तो उसके बूढे-मां को भी जेल। सुना है कि उसकी संपत्ति भी जब्त कर लेंगे आपलोग। और तो और अगर किसी के दरवाजे के आसपास कहीं शराब की बोतल दिखेगी तो भी पूरे परिवार को जेल भेज दीजिएगा आपलोग। गज़ब का कानून है सर। 
अब रात के अंधेरे में कोई किसी के घर के अहाते में शराब की बोतल फेंक जाएगा और फिर पुलिस को बुलाकर पकड़वा देगा। फिर पीसते रहेगा जिंदगीभर जेल की चक्की। आपके मासूम सलाहकार को ये नहीं पता है कि आपके सुशासन में ये फर्जीवाड़ा करना कितना आसान है।

वैसे उनलोगों के लिए ये मस्त आइडिया है, जो अब तक रेप या फिर देहज के केस में दूसरे को फंसा देते थे या फंसाने की धमकी देते थे। इतना चक्कलस की कोई बात नहीं।  दहेज और रेप का काम तो एक बोतल शराब कर देगी। 

वैसे सर आपका वो ताड़ी वाला कानून भी कम नहीं है। आपने गरीबों को लेकर भूल-सुधार की। उनके लिए 'ताड़ीबार' फिर से खोलकर बड़ी मेहरबानी की है। वोट का जुगाड़ बना रहेगा।  
बिहार में आपकी सरकार है। एक तरह से संपूर्ण बहुमत है आपके पास। आप कुछ भी कर सकते हैं। नया शराब वाले कानून को देखकर पूरा यकीन हो गया। एक और काम कर लीजिए। इस महान आइडिया पर रिसर्च की भी व्यवस्था कर दीजिए। इतिहास आपको शराबबंदी से ज्यादा इस महान कानून के लिए याद रखेगी। साथ ही वो आइडिया देने वाला आपका सलाहकार भी अमर हो जाएगा। 

खैर अभी हम गरीब को जरा ताड़ी की मदहोशी से उबरने दीजिए फिर आपके 'मीठा टैक्स' वाले आइडिया का वर्णन करूंगा।

धन्यवाद

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

आरक्षण...एक खोज !


जाति उद्धारक को सुखस्वप्न आया। स्वप्नदेव ने बताया कि तुमलोगों के अच्छे दिन आरक्षण के रूप में सड़क पर घूम रहा है। सरकार की निगरानी में है। जागो, उठो और अपना हक़ छीन लाओ। फिर देखना, अगली इक्कीस पीढियों तक तुम्हारे आंगन में अच्छे दिन अठखेलियां करेंगे। पुश्त-पुश्त तक का कल्याण हो जाएगा। भारत वर्ष में अनंतकाल तक तुम्हारी जाति खुशियों से खेला करेंगी। दुख, दर्द सब खत्म हो जाएंगे।

जाति उद्धारक वो दिग्पुरूष सुबह उठा और कुछ ऐसे लड़कों को इकट्ठा किया जो घरों में मुफ्त की रोटियां तोड़ रहे थे। बाजार में, सड़कों पर लफंगगीरी को मुकाम पर पहुंचा कर खुद को साबित कर चुके थे। जाति उद्धारक ने उन लड़कों को समझाया कि वक्त आ गया है कि अब समाज के लिए कुछ करना है। जाति उद्धारक ने ये भी समझाया कि आरक्षण को खोजते वक्त डरना मत। जेल जाओगे या फिर मारे जाओगे तो युगपुरूष कहलाओगे। लड़कों को भी उसकी बात समझ में आ गई। नया काम मिल गया। जिसमें कहानी भी थी। एक्शन भी था। और इमोशन भी। यानी नया एसाइनमेंट।  
         रातभर रणनीति बनी। और सुबह से सभी अपने काम पर लग गए। आरक्षण को खोजने लगे। सबसे पहले सड़कों पर खोजा। नहीं मिला। बस, ट्रक, ऑटो, जीप वालों को रोक रोकर उसमें ढूंढ़ा तो भी नहीं मिला। तभी किसी ने बताया कि उसने आरक्षण को रेलवे स्टेशन की तरफ जाते देखा है। सो, दौड़ पड़े स्टेशन की तरफ। वहां भी ट्रेनें रोककर तलाशी ली गई। लेकिन हाथ खाली। फिर जाति उद्धारक टोली में से किसी ने कहा कि हो सकता है कि आरक्षण पटरियों के नीचे छिप गया हो। आरक्षण खोजी दस्ते की एक टीम ने पटियां उखाड़ दी। लेकिन होता तब न मिलता।



           जाति उद्धारक टोली के एक चालाक, बुद्धिजीवी ने बताया कि एक टीम अभी से पटरी पर बैठ जाओ ताकि आरक्षण चोरी छिपे ट्रेन से भाग न जाए। वही हुआ। कुछ लोगों ने वहीं डेरा जमा लिया। वैसे अच्छा हुआ कि उस बुद्धिजीवी के दिमाग में हेलिकॉप्टर से आरक्षण के भागने का ख्याल नहीं आया।
          खैर, आरक्षण खोजी दस्ते की अब कई टीमें बन चुकी थी। वे लोग फिर शहर की तरफ लौटे। जहां कहीं उन्हें लगा कि आरक्षण छिपा हो सकता है, वहां तोड़-फोड़ कर उसे गिरा दिया। कई दुकानें टूट गई। घर तोड़ दिए गये। गाड़ियां तोड़ दी गई।


         तब तक शाम ढलने लगी थी। लड़कों को लगा कि कहीं अंधेरे में छिप तो नहीं गया आरक्षण। सो उन्होंने तुंरत जेब से माचिस निकाली और सामने खड़ी बाइक में आग लगी दी। किसी ने कहा कि अगर रोशनी की चाहिए तो बड़ गाड़ी में आग लगाओ। एक लड़के ने बस को फूंक दिया। तो इस बीच कुछ टैलेंटेड लड़कों ने मॉल को ही आग के हवाले कर दिया ताकि रोशनी चारों तरफ फैल जाए। तभी एक बुजुर्ग को ख्याल आया कि स्कूल में तो पहले से ज्ञान की ज्योति जलती है। इसमें आग लगा दें तो सोचिए और कितना प्रकाश होगा। सो उन्होंने स्कूल को ही फूंक दिया। लेकिन मासूम उम्मीदों को कहीं मंजिल नहीं मिली।
             आरक्षण की आकांक्षा में आकंठ डूबे लड़कों और उसके अगुवा को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। सरकार आंख-मिचौली खेल रही थी। बेगारी का ताना सुन सुनकर परेशान कुछ लड़कों के लिए ये सुनहरा मौका था। अपनी ज़िंदगी को साबित करने के लिए। लेकिन वो भी हाथ से जाता दिख रहा था। टीवी पर फोटो जरूर आ रहे थे। लेकिन वो तो समाज के युगपुरुष में शुमार होने को आतुर थे। इसके लिए कुछ करने को तैयार।


           इस बीच राज्य के अलग-अलग हिस्सों से मौत की ख़बरें आने लगी। हालांकि बांके छोड़े पीछे हटने को तैयार नहीं थे। लेकिन सरकार ने इस बीच राष्ट्रीय साजिश कर दी। सेना को बुला लिया। आरक्षण पर सेना का पहरा पड़ गया। जातिउद्धारक दिगपुरुष ने लड़कों को समझाया। कहा कुछ दिन लिए ठहर जाओ। फिर शुरू करेंगे आरक्षण की खोज। जब तक मिलेगा तक नहीं तब तक लड़ते रहेंगे, उसे खोजते रहेंगे।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

रवीश के बहाने सोचिएगा जरूर !

आप जितना चाहें गरिया लीजिए रवीश कुमार को। फेसबुक, ट्विटर पर कोई भले ही आपको टोकने वाला नहीं हो। या फिर आपको टोकनेवाले से ज्याद आपके हां में हां मिलानेवालों की तादाद हो। लेकिन जब एकांत में बैठिएगा या फिर सुतते समय एक बार जरूर सोचिएगा कि कौन-कौन सी सच्ची बातें वो कह गया आपके बारे में। वो भी बेहद शालीन शब्दों में। जाहिर है कि उनकी कही सारी बातें सच नहीं होगी। लेकिन उस काली स्क्रीन पर चमकते सफेद और अंडर लाइन किए गए लाल-लाल शब्दों के पीछे से आती आवाज़ में कुछ तो बातें थी, जो आपके दर्द को बढ़ा गई। टीवी पर दिखने वाले वीडियो के पीछे से आती उग्र और भड़कानेवाले शब्दों को गढ़नेवाले स्क्रिप्ट राइटर हों या फिर टीवी पर छोटी-छोटी कुछ खिड़कियों के बीच एक बड़ी से खिड़की से झांककर सवाल पूछनेवाले। आप भी अपने आप से पूछिएगा, जब आप किसी जूनियर को कहते हैं कि किसी मुद्दे पर हाहकारी पैकेज लिखो। ठंड और गर्मी में ऐसा पैकेज लिखो कि देख-सुनकर लोग डर जाएं। काली स्क्रिन के पीछे से आती वो आवाज़ आपके लिए भी है। जो आप नई पौध को नफरती और भारी भरकम डरवाने शब्दों से सींचकर बड़ा करते हैं। अच्छा होगा अगर आप इसे वामपंथी या दक्षिणपंथी चश्मे को उतार कर देखेंगे। क्योंकि बड़े-बड़े गमछाधारी वामी पत्रकार भी हैं जो अपने धारदार शब्दों से लोगों को डराने के लिए मशहूर हैं। काली स्क्रिन के पीछे से गूंजते वो शब्द उनके मुंह पर भी करारा तमाचा है। रवीश के ये शब्द उन पत्रकारों के लिए भी है, जो लंबी-चौड़ी कहानी को काट छांटकर एक शब्द के ऊपर आधे घंटे का प्रोग्राम बुन लेते हैं। रवीश खुद क्या हैं मुझे पता नहीं। उनका क्या एजेंडा है, इससे भी मतलब नहीं। लेकिन उस टिमटिमाती स्क्रिन पर कुछ तो था। फिर एक बार कहता हूं कि गुस्साइएगा मत। सोचिएगा। सही लगे तो चुप रहिएगा। या फिर सवाल पूछिएगा तो और उम्दा। क्योंकि पत्रकार हैं तो सवाल पूछना लाजिमी है। लेकिन ध्यान रहे, पहला सवाल खुद से पूछिएगा कि जो आप लिख रहे हैं, कह रहे हैं, उसमें जो विशेषण लगा रहे हैं वो कितना उचित है। और लास्ट में ये कि वे वरिष्ठ पत्रकार/ पूर्व संपादक खुद से जरूर आज माफी मांग लीजिएगा, जिन्हें आज रवीश की बातें तो बड़ी अच्छी लग रही है, लेकिन जब खुद फैसला लेने वाले होते हैं तो सबकुछ ताक पर रख देते हैं। बाकी, गलती-सलती माफ कीजिएगा।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

बाय-बाय बस्सी सर !

डियर बस्सी सर,
आपकी विदाई का वक्त तय हो चुका है। आप जल्द ही अपने पद से रुखसत हो जाएंगे। जैसा कि ख़बरों में आ रहा है कि रिटायरमेंट के बाद आप किसी दूसरे दफ्तर की शोभा बढ़ानेवाले हैं। अच्छी बात है। भगवान आप की जैसी किस्मत हर किसी को दे। नौकरी के साथ भी, नौकरी के बाद भी। वैसे अच्छा तो यही रहता है कि उम्र के इस पड़ाव में आप अपने परिवार के साथ समय बिताते, लेकिन काम का ईनाम किसे अच्छा नहीं लगता। आपको भी अच्छा लग रहा है, आगे भी लगेगा।

आप ने जिनकी विरासत संभाली थी, उनके अंतिम वक्त में लोग उनसे लोग बेहद निराश थे। उन्होंने कुछ ऐसा काम किया, जो कहीं से भी जायज नहीं था। कई बार ऐसा लगा कि नीरज कुमार को हटा दिया जाएगा, लेकिन उनके ऊपर किसकी मेरहबानी थी पता नहीं, (चर्चा तो कई नामों की थी) लेकिन उन्होंने अपना टर्म पूरा किया और आपको अपनी विरासत सौंप दी।

मुझे याद है जब कुर्सी संभालते ही तमाम टीवी चैनलों पर आपका रौबदार इंटरव्यू चला था। आपके कड़क कामों की चर्चा चारों तरफ हो रही थी। ऐसा लग रहा था कि मानों अब सबकुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन बाद में अहसास हुआ कि दिल्ली पुलिस कमिश्नर की कुर्सी में ही कुछ गड़बड़ है। धीरे-धीरे दिल्लीवालों को ऐसा लगने लगा कि आपका ध्यान दिल्ली की सुरक्षा में कम और पोस्ट रिटायर्मेंट प्लान पर ज्यादा है। दिल्ली में न रेप कम हुआ। न हत्याएं, लूट कम हुई। न सड़क पर झंडे लेकर दौड़ते लोगों के ऊपर पुलिसवालों के डंडे कम हुए। आप कहीं से भी जनता के नहीं हो सके। ऐसा क्यों।

आप क्यों कमजोर हो गए थे। हिंदुस्तान में अब भी पुलिस कमिश्नर का ओहदा बहुत बड़ा होता है। आप चाहते तो एक लकीर खींच सकते थे। लेकिन अंतिम वक्त आते-आते आपको लेकर जो धुंधली सी गलतफहमी थी वो भी खत्म सी होती गई। ऐसा लग रहा है कि जैसे दिल्ली पुलिस का कमिश्नर एक कठपुतली होता है, जो गृहमंत्रालय के इशारों पर खुद भी नाचता है और दूसरों को भी नचवाता है।

कितने सबूत मिलने के बाद और किसके कहने पर आपने जेएनयू से छात्र नेता कन्हैया कुमार को पकड़ लाये मुझे पता नहीं। लेकिन दिल्ली की बीच सड़क पर एक लड़के को दौड़ा-दौड़ा कर पटक-पटकर मारने वाले विधायक को आपने छूने तक की हिम्मत क्यों नहीं की। पीटते हुए वीडियो है। वो विधायक सरेआम कह रहा है कि मैंने उस लड़के को पीटा है। ये भी धमकी दे रहा है कि आगे भी पीटेंगे और आपने उसे पूछताछ के लिए हिरासत में लेने तक की हिम्मत नहीं की। आपने उन वकीलों को पकड़ने की हिम्मत क्यों नहीं कि, जिन्होंने पत्रकारों को पीटा। आपकी पुलिस तो सबकुछ देख रही थी।

आप किसको धोखा दे रहे हैं। लोगों को। वर्दी को या फिर खुद को। मुझे ये समझ नहीं आता कि आप जैसे लोगों के मन में ये सवाल क्यों नहीं आते। अगर आते हैं तो बार-बार क्यों नहीं आते। अगर बार-बार आते हैं तो खुदको खुदसे इसका जवाब क्या और कैसे देते हैं।

अब तो आप जा ही रहे हैं। दिल्ली आपकी इस स्तरहीन अदा को कभी नहीं भूलेगी। दिल्ली याद रखेगी कि नीरज कुमार के बाद भीम सिंह बस्सी नाम का एक दंतहीन, विषहीन व्यक्ति पुलिस कमिश्नर बना था। जाते-जाते आप अगर ये बता जाते कि सरकार आप पर क्यों मेहरबान हुई है तो अच्छा लगता। लेकिन इतने कठिन प्रश्नों का जवाब नहीं दिया जात। खैर, अबकी बार जहां जाइएगा, वहां कुछ ऐसा जरूर कीजिएगा कि लोग आपसे इस तरह के सवाल न पूछे। चलते-चलते आपके अगले एसाइनमेंट के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।
धन्यवाद