शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

रवीश के बहाने सोचिएगा जरूर !

आप जितना चाहें गरिया लीजिए रवीश कुमार को। फेसबुक, ट्विटर पर कोई भले ही आपको टोकने वाला नहीं हो। या फिर आपको टोकनेवाले से ज्याद आपके हां में हां मिलानेवालों की तादाद हो। लेकिन जब एकांत में बैठिएगा या फिर सुतते समय एक बार जरूर सोचिएगा कि कौन-कौन सी सच्ची बातें वो कह गया आपके बारे में। वो भी बेहद शालीन शब्दों में। जाहिर है कि उनकी कही सारी बातें सच नहीं होगी। लेकिन उस काली स्क्रीन पर चमकते सफेद और अंडर लाइन किए गए लाल-लाल शब्दों के पीछे से आती आवाज़ में कुछ तो बातें थी, जो आपके दर्द को बढ़ा गई। टीवी पर दिखने वाले वीडियो के पीछे से आती उग्र और भड़कानेवाले शब्दों को गढ़नेवाले स्क्रिप्ट राइटर हों या फिर टीवी पर छोटी-छोटी कुछ खिड़कियों के बीच एक बड़ी से खिड़की से झांककर सवाल पूछनेवाले। आप भी अपने आप से पूछिएगा, जब आप किसी जूनियर को कहते हैं कि किसी मुद्दे पर हाहकारी पैकेज लिखो। ठंड और गर्मी में ऐसा पैकेज लिखो कि देख-सुनकर लोग डर जाएं। काली स्क्रिन के पीछे से आती वो आवाज़ आपके लिए भी है। जो आप नई पौध को नफरती और भारी भरकम डरवाने शब्दों से सींचकर बड़ा करते हैं। अच्छा होगा अगर आप इसे वामपंथी या दक्षिणपंथी चश्मे को उतार कर देखेंगे। क्योंकि बड़े-बड़े गमछाधारी वामी पत्रकार भी हैं जो अपने धारदार शब्दों से लोगों को डराने के लिए मशहूर हैं। काली स्क्रिन के पीछे से गूंजते वो शब्द उनके मुंह पर भी करारा तमाचा है। रवीश के ये शब्द उन पत्रकारों के लिए भी है, जो लंबी-चौड़ी कहानी को काट छांटकर एक शब्द के ऊपर आधे घंटे का प्रोग्राम बुन लेते हैं। रवीश खुद क्या हैं मुझे पता नहीं। उनका क्या एजेंडा है, इससे भी मतलब नहीं। लेकिन उस टिमटिमाती स्क्रिन पर कुछ तो था। फिर एक बार कहता हूं कि गुस्साइएगा मत। सोचिएगा। सही लगे तो चुप रहिएगा। या फिर सवाल पूछिएगा तो और उम्दा। क्योंकि पत्रकार हैं तो सवाल पूछना लाजिमी है। लेकिन ध्यान रहे, पहला सवाल खुद से पूछिएगा कि जो आप लिख रहे हैं, कह रहे हैं, उसमें जो विशेषण लगा रहे हैं वो कितना उचित है। और लास्ट में ये कि वे वरिष्ठ पत्रकार/ पूर्व संपादक खुद से जरूर आज माफी मांग लीजिएगा, जिन्हें आज रवीश की बातें तो बड़ी अच्छी लग रही है, लेकिन जब खुद फैसला लेने वाले होते हैं तो सबकुछ ताक पर रख देते हैं। बाकी, गलती-सलती माफ कीजिएगा।

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