सोमवार, 16 जुलाई 2012

हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट क्या है...

हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट । गाड़ियों में लगाये जानेवाले नंबर प्लेट का सरकारी भर्सन । आम लोगों के लिए टेंशन । सरकारी बाबुओं के लिए लेनदेन का नया साधन । नौकरी करते हुए एक और पेंशन । परिवहन विभाग प्राधिकरण के केन्द्रों पर ठेलमठेल भीड़ । धक्का मुक्की । नंबर आते आते समय खत्म । वगैरह, वगैरह ।
 ये गाड़ी मालिक की बात है । लेकिन सरकार को लगता है कि इस नंबर प्लेट के जरिए गाड़ियों के गलत इस्तेमाल से रोका जा सकता है। आतंकी जितनी आसानी से आतंकी घटनाओं में गाड़ियों का इस्तेलाम करते हैं, उस पर लगाम लगेगा। इसलिए इसे बनाने में काफी मशक्कत की गई है।    
  हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट एल्युमिनियम की बनी होती है । इसे रिपिट के जरिए गाड़ियों  में लगाया जाता है। प्लेट को गाड़ियों में इस तरह लगाया जाता है कि वो टूट जाए, लेकिन उखड़ नहीं पाए । जब आप टूटा हुआ प्लेट लेकर जाएंगे, तभी दूसरा नंबर प्लेट मिलेगा । इतना ही नहीं, नंबर प्लेट पर सात अंकों का एक सिक्योरिटी कोड होगा, जिसकी मदद से वाहन की पूरा जानकारी पाई जा सकती है । इस नंबर प्लेट पर होलो ग्राम के साथ साथ रिफ्लेक्टर भी लगे हुए हैं, जो अंधेरे में लाइट पड़ने पर चमकेगा और नंबर को साफ साफ पढ़ा जा सकेगा । हर गाड़ी पर नंबर एक ही स्टाइल में होंगे। जिससे नंबर नोट करने में, आसानी होगी ।
    नई गाड़ियों में नंबर प्लेट के लिए परिवहन विभाग ऑनलाइन संबंधित कंपनी से बात करेगा । एमएलओ से मिली ऑथराइजेशन स्लिप के बाद छह दिनों के भीतर प्लेट लगानी होगी । आपको स्लिप कटवाना होगा । ये स्लिप लेकर जाएंगे, तभी नंबर प्लेट मिलेगा । नंबर प्लेट के साथ साथ गाड़ी के पीछे भी विशेष स्टीकर लगाया जाएगा, जिसमें गाड़ी का इंजन, चेसिस, लेजर और रजिस्ट्रेशन नंबर होगा। सफेद या पीली प्लेट पर मशीन से नंबर लगाया जाता है। इसके बाद प्लेट पर लेमिनेशन की जाती है। मार्क नंबर का रेकॉर्ड बनाया जाता है । गाड़ी नंबर के रेकॉर्ड का एक नन रिमुवल कार्ड गाड़ी के पीछे लगाया जाता है।

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

बोली का रूतबा


          भाषा विनम्र होती है । बोली उदंड ।  भाषा अनुशासित रहती है, अभिभावक की देखरेख में रहनेवाले बच्चों की तरह । और बोली बिना अभिभावक वाले बच्चों की तरह । पूरी तरह से बेलगाम । जो किया वही ठीक है । इयाकरण-व्याकरण से कोई मतलब नहीं ।  जैसा बोला, वैसा ही सही ।  किसी की परवाह नहीं । किसी के बाप के राज में नहीं रहते । क्यों सहेंगे किसी का डंडा । क्यों चलेंगे किसी के कहे मुताबिक । सब कुछ अपने मने से । सीना ठोंककर । पसंद करना है तो करो, वरना भाड़ में जाओ ।
         जिस भाषा से मन हुआ उसी से शब्द उठा लिये । रोक सको तो रोक लो । देख लेंगे । नहीं हुआ तो अपना ही शब्द बना लिये । बोली में  बड़ी खासियत होती है शब्द निर्माण की । ऐसे ऐसे शब्द बनते हैं कि भाषा सोच भी नहीं सकती । सुनकर दंग रह जाती है । बनावटी शब्दों पर बोली ऐसी तगड़ी पॉलिश करती  है कि कुछ दिनों बाद भाषा भी उसकी चमक में खो जाती है । जैसे पहले उद्दंड लड़के को देखकर अनुशासित और तथाकथित पढ़नेवाले बच्चे भी सिगरेट पीने लगते हैं ।
        बोली अपना अस्तित्व खुद बनाती है । इसलिए बेबाक होती है । ठेंठ । मुंहफट्ट । ज्यादा सोचती नहीं । किसी के पीछे भागती नहीं । बोली का इफेक्ट भी जबर्दस्त होता है ।   हर सार्वजनिक जगहों पर बोली का कब्जा है । रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, ऑटो स्टैंड, सरकारी दफ्तर या फिर डॉक्टर के क्लिनिक  पर । व्याकरण पर सवार होकर  भाषा  बोलने से काम नहीं होगा । घिघियाते रहेंगे, कोई नहीं सुनेगा ।  जो काम करवाने में भाषा के पसीने छूट जाते हैं, उसे बोली यूं करवा लेती है । रूतबे में रहती है बोली । और जो बोली का रूतबा रहता है, वहीं इसे बोलनेवालों का । यही कारण है कि इसकी लोकप्रियता भी जबर्दस्त  है ।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

दारा सिंह होने का मतलब


 दारा सिंह । कुश्ती का किंग । रूस्तम-ए- हिंद । शायद दुनिया का पहला पहलवान जिसने कभी मात नहीं खाई । जिसने दुनियाभर के पहलवानों को पटखनी दी । स्वामी विवेकानन्द का आध्यात्म और गांधी की अहिंसा को जाननेवाले फिरंगियों को पहली बार दारा सिंह ने ही भारत की शारीरिक ताक़त का अहसास कराया । उस दौर के हर पहलवानों को शिकस्त दी । कॉमनवेल्थ गेम्स हो या फिर विश्व चैंपियनशीप । हर किताब अपने नाम किया । कुश्ती के अखाड़े से निकलकर जब बॉलिवुड में कदम रखा तो लोगों ने विशाल सा सख्त दिखनेवाले इंसान का रोमांटिक चेहरा देखा । रूपहले पर्दे पर हिरोइनों के साथ रोमांस करते करते दारा सिंह हनुमान बनकर लोगों के दिलों में उतरते चले गये । दारा सिंह ने खेल से लेकर सिल्वर स्क्रीन और फिर संसद तक में लोकप्रियता की नई पहचान बनाई । 
       दारा सिंह अब नहीं रहे । कुश्ती किंग ज़िंदगी का आखिरी दांव हार गया । लेकिन कहते हैं कि दारा सिंह कभी मरते नहीं ।  क्योंकि आम लोगों की जिंदगी में दारा सिंह होने का मतलब सिर्फ कॉमवेल्थ गोल्ड मेडलिस्ट या सिल्वर स्क्रीन पर शर्टलेस होने या फिर रामायण में लक्ष्मण के लिए संजीवनी लानेवाले हनुमान भर से नहीं है । बल्कि दारा सिंह होने का मतलब इससे कहीं आगे तक है । आम लोगों के बीच दारा सिंह उपनाम बन चुका है । दारा सिंह होने का मतलब शक्तिशाली, हट्ठा कट्ठा होना है । मां कहती है, खाओगे तभी तो दारा सिंह बनोगे । दोस्त कहता है, लगात है बहुत खाते हो, दारा सिंह टाइप लग रहे हो । और सामनेवाला कहता है कि खुद को दारा सिंह समझ रहे हो क्या । तो इसका सीधा सीधा मतलब बलशाली होने से होता है ।   साफ है कि दारा सिंह आम की बोली से जुड़े हुए हैं । 
        यानी जिस दौर में दिलीप सिंह राणा विदेशी में खली के नाम से बली होने की परिभाषा गढ़ रहे हैं । जमाना सिक्स और एट पैक का है । बतौर बॉडी बिल्डर सलमान खान और जॉन अब्राहम सरीखे अभिनेता का बोलाबाला है । इस दौर में भी अगर उपमान के तौर पर आम आदमी दारा सिंह का नाम लेता है, तो आसानी से समझा जा सकता है कि बेहद आम लोगों के बीच दारा सिंह क्या हैं । 

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

क्या यूपी में जंगल राज नहीं है ?


उत्तर प्रदेश में अपराधी बेलगाम हो चुके हैं । अखिलेश राज के सौ दिनों के दरम्यान राज्यभर में 1149 लोगों की हत्याएं हो चुकी है । यानी औसतन ग्यारह से बारह लोग हर रोज मारे जा रहे हैं । ये नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ें हैं । जमीनी सच्चाई इससे भी ज्यादा डरावनी है । यूपी में कानून व्यवस्था की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देशभर में जितने भी अपराध होते हैं, उसके 33 फीसदी यानी एक तीहाई अपराध सिर्फ यूपी में होता है । जब से अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने हैं, तब से अपराध का ग्राफ और बढ़ा है । हत्या, लूट और बलात्कार की घटनाओं में बेहताशा बढोत्तरी हुई है । ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यूपी में जंगल राज नहीं है ? 
         याद कीजिए उस दौर को जब बिहार में लालू - राबड़ी का राज था । विपक्षी पार्टियां, मीडिया यहां तक कि बड़े बड़े विद्वानों  ने लालू - राबड़ी राज की तुलना, जंगल राज से की थी । उस वक्त पटना, गोपालगंज, सीवान या फिर मुज़फ्फरपुर में दो रूपये के एक अंडे की खातिर पचपन रूपये की गोली मार दी जाती थी । दिन दहाड़े बच्चों को उठा लिया जाता था । लेकिन उत्तर प्रदेश में तो अपराधी इससे भी आगे निकल चुके हैं । यहां तो बहू- बेटियों को सरेराह उठा लिया जाता है । लगभग हर दिन बलात्कार की घटनाएं समाने आ रही है । बलात्कार के बाद लड़कियों को ज़िंदा जला दिया जाता है । लखनऊ, कानपुर, नोएडा और गाजियाबाद से लेकर बहराइच और बाराबंकी तक । हर जगह एक जैसी स्थिति है ।   
         कमोबेश यही स्थिति मायावती राज में थी । अखिलेश ने बेहतर कानून व्यवस्था का वादा किया । बिगड़ी व्यवस्था से आजिज लोगों ने अखिलेश के सच से दिखनेवाले वादों पर भरोसा किया । एक तेज तर्रार पढ़े लिखे युवा के हाथ में सत्ता सौंपी । जिस तरह से प्रशानिक अमलों में फेरबदल हुए, उससे लोगों में बेहतर कानून व्यवस्था की उम्मीद जगी । लेकिन अखिलेश राज में तो मानो अपराधी और बेलगाम होते चले गये । अपराधियों पर सरकार का कोई अंकुश नहीं रहा । आखिर अखिलेश यादव कानून व्यवस्था को दुरूस्त करने में नाकाम क्यों हैं ?  
        दरअसल छात्रों को टैबलेट और लैपटोप देने की योजना बनाने में व्यस्थ अखिलेश सरकार ने अब तक ऐसी कोई नीति नहीं बना पाई है, जिससे अपराधियों को डर लगे । उन्हें कानून का भय हो । जिसमें अपराधियों को गिरफ्तार कर उसे सजा देने का प्रावधान हो ।
          इसकी दूसरी बड़ी वजह सपा के कार्यकर्ता हैं । अखिलेश यादव वो लकीर नहीं खींच पा रहे हैं, जिससे सपा कार्यकर्ता और अपराधी में फर्क हो सके । समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता न तो अखिलेश की बात मानते हैं और ना ही नेताजी यानी मुलायम की । कई बार हिदायत के बावजूद समाजवादी कार्यकर्ताओं की गुंडई थमने का नाम नहीं ले रही है । यहा तक कि कोतवाली के भीतर ही गुंडई शुरू कर देते हैं । उनके सामने पुलिस तक की घिग्घी बंध जाती है । पुलिस का मनोबल गिरता है । और इसी आड़ में दूसरे अपराधियों का डर भी कम होता जा रहा है । 
      यही स्थिति बिहार में लालू यादव के साथ हुई थी । लालू के कार्यकर्ता भी इसी तरह बेलगाम हो चुके थे । जिसका नतीजा लालू और उनके पार्टी को अभी तक भुगतना पड़ रहा है । अगर समय रहते अखिलेश यादव नहीं चेते, तो इनका भी वही हाल होगा, जो लालू का हुआ । 

रविवार, 8 जुलाई 2012

कॉर्पोरेट गरीब


कॉर्पोरेट गरीब। यानी बड़ी कंपनी में कम सैलरी पर काम करने वाला कर्मचारी। ऊंची मत्वाकांक्षा। कुछ पाने की हसरत। मेहनत से सपने को हक़ीकत में बदलने का जज़्बा। आइरन किया हुआ शर्ट-पैंट। चमचमाते जूते। आंखों पर चश्मा। जो हर सुबह समय पर ऑफिस पहुंचता है। दिनभर कम्प्यूटर के साथ हाई प्रोफाइल माथापच्ची करता है। बॉस की गालियां सुनता है। दिल में दर्द लिए मुस्कुराते रहता है। महीने के सात तारीख को टाइट होता है। और आठ तारीख को कंगाल हो जाता है।
महीने के एक तारीख के बाद जेब में सिर्फ आईकार्ड और आने-जाने का भाड़ा रहता है। लेकिन रूतबा वैसा ही। ऑफिस के बाहर गार्ड जब सैल्यूट मारता है तो सीना अड़तालीस इंच चौड़ा हो जाता है। लोगों को पता है बड़ी कंपनी में काम करता है। बड़ा आदमी है। अदब से बात करो। बड़ी मुश्किल होती है। जब दुकानों में पर्सनैल्टी देखकर ऊंचा रेंज वाला सर्ट पैंट दिखता है। मन मसोस कर कहना पड़ता है कि पसंद नहीं है। गर्लफ्रेंड से झूठ बोलते-बोलते परेशान है। हर दिन नया बहाना। किसी तरह सात तारीख आ जाए। अभी तक घर का नालायक बेटा बना हुआ है। पापा को क्या बताएगा कि उनका बेटा कॉर्पोरेट गरीब है।
ऑफिस के कैंटीन में तीन सितारा होटल का मजा। खाते वक़्त नहीं। पैसा देते वक़्त महसूस होता है। जितना पैसा कर्च कर बाहर में दोपहर का लंच कर लूं उतने में नास्ता नहीं होता। बड़ी कंपनी का कैंटीन है भाई। प्राइस भी ऊंची है। दोस्तों के साथ बैठकर मुस्कुराते हुए खा लेता है। दोस्तों को कोई फर्क नहीं पड़ता। ऊंचा पोस्ट। ऊंची सैलरी। खाने के लिए बाहर जाना पर्सनैलटी पर पड़ता है। लेकिन गेहूं के साथ घुन भी पिस रहा है। जेब का दर्द रात में सोते समय यादों के जरिए बाहर आता है। दिल को बहलाता है। समझाता है। बेटा, सब ठीक हो जाएगा। लेकिन कब। कब तक कॉर्पोरेट गरीब बना रहूंगा। पता नहीं।

शनिवार, 7 जुलाई 2012

मैं बेटी हूं...

मैं बेटी हूं
प्यारी सी
नन्हीं सी
छोटी सी
सब मुझे
दुलारते हैं
पुचकारते हैं
गोद में बिठाते हैं
मेरे साथ खेलना चाहते हैं
मेरी मुस्कान पर, हंसते हैं
मेरी आह पर, तड़पते हैं
फिर क्यों मेरी ही जैसी
मेरी बहनों से
भेदभाव करते हैं
क्यों उन्हें
जन्म से पहले मार देते हैं ........ ?

धर्मनिरपेक्षता तो बहाना है...



पिछले कुछ दिनों में  बीजेपी को लेकर जदयू के  तेवर इतने तल्ख हो चुके हैं कि दोनों के रिश्ते पर बन आई है....सोलह साल का साथ कभी भी खत्म हो सकता है...गठबंधन में धर्मनिरपेक्षता की गांठ पड़ चुकी है...
           आखिर नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता की वो कौन सी घेरा बना रहे हैं जिसमें लालकृष्ण आडवाणी, डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती सरीखे नेता तो आते हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी नहीं...बाबरी मस्जिद ढांचा गिराने के आरोपी आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने में कोई आपत्ति नहीं है,,,लेकिन नरेन्द्र मोदी बर्दाश्त नहीं....और सबसे अहम बात कि कट्टरवाद के कोख से जनमे बीजेपी के साथ रहने में भी नीतीश कुमार को कोई गुरेज नहीं है.....
          दरअसल नीतीश कुमार जो धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गढ़ रहे हैं, उसे रानीतिक तौर पर समझना होगा...  1996 से लेकर 2005 तक नीतीश के लिए बीजेपी मजबूरी थी...क्योंकि नीतीश कुमार उस हैसियत में नहीं थे कि वो बीजेपी से इतर अपनी पहचान बना सके.....नीतीश उस वक्त पटना का सपना देख रहे थे...बिहार में कांग्रेस की स्थिति बढ़िया थी नहीं....और लालू के  खिलाफ बीजेपी ताल ठोक रही थी...ऐसे में नीतीश कुमार का बीजेपी के साथ गलबहियां करना मजबूरी थी...ऐसे में अगर 2002 में गुजरात दंगे के वक्त रेल मंत्री रहते नीतीश का मोदी के खिलाफ कुछ न बोलना चौंकाता नहीं है....2010 तक मोदी को लेकर नीतीश कुमार के मन में कोई आपत्ति नहीं थी....लेकिन 2010  चुनाव में 242 सीट वाले विधानसभा में 115 सीट हासिल करने के बाद नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी खटने लगे....गौर करनेवाली बात है कि  2010 में बिहार में ऐतिहासिक जीत के बाद नीतीश कुमार को लेकर प्रधानमंत्री की बात होने लगी,....उन्हें लगने लगा है कि अगर गुजरात के रास्ते मोदी दिल्ली का सपना देख सकते हैं तो फिर बिहार के जरिये मैं क्यों नहीं....और दिल्ली पहुंचने में सबसे बड़ा रोड़ा मोदी बन सकते हैं....राजनीति के शातिर खिलाड़ी नीतीश कुमार गुजरात दंगों का दाग दिखाकर मोदी को रास्ते से अलग करने में लग गये.... 
           जब जब दो मुख्यमंत्रियों की तुलना होती है तो आमने-सामने नीतीश और मोदी होते हैं.....और जानकार दोनों में मोदी को ही बेहतर आंकते हैं...कहीं न कहीं नीतीश को ये बातें  खटकती है....बिहार को बदलने का दावा करनेवाले नीतीश कुमार पिछले सात सालों में कागजी आंकड़ों से इतर वो कुछ नहीं कर पाये जो जिससे गुजरात की जनता से बेहतर बिहार की जनता महसूस कर सके....ऐसे में नीतीश कुमार को लगता है कि  जो छवि बनाना चाहते हैं वो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के बाद ही हो सकता है....और इसके लिए कांग्रेस से मिलना ही फायदेमंद रहेगा... 
          एक और अहम बात....नीतीश कुमार ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि अगर बिहार में बने रहना है कि मुस्लिमों को नाराज नहीं कर सकते....क्योंकि सामने लालू खड़े हैं...मुस्लिमों के लिए मोदी का विरोध करना भी नीतीश के लिए मजबूरी है......यही कारण है कि धर्मनिरपेक्षा की वो परिभाषा गढ़ रहे हैं,,,,जिसमें दूर दूर तक नरेन्द्र मोदी फिट ना बैठ सके......