लालू यादव के साथ मिलकर नीतीश कुमार बिहार में बीजेपी
को साधन में जुटे हुए हैं। मोदी ने जो झटका लोकसभा चुनाव में दिया था, उससे निकलकर कुर्सी को बरकार रखने के लिए तमाम समीकरण बना रहे हैं। लालू और
नीतीश दोनों मिलकर सीटों का जोड़-घटाव कर रहे हैं। 14 जनवरी तक नई पार्टी के नाम का
ऐलान हो जाएगा। और जो हालात हैं, उसमें नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री
और राबड़ी या फिर मीसा भारती को उपमुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाना भी लगभग तय
है। लेकिन मांझी की महत्वाकांक्षा लालू-नीतीश के लिए किसी मुसीबत से कम नही है।
दरअसल नीतीश कुमार अपने ही बिछाए सियासी
जाल में फंसते जा रहे हैं। जिस महादलित कार्ड के जरिए वो सत्ता को बचाए रखना चाहते
थे, वही उनके लिए मुश्किल खड़ा कर रहा है। नीतीश कुमार ने
जीतन राम मांझी को मनमोहन सिंह बनाकर कुर्सी पर बिठाया था। कुर्सी से दूर रहकर भी अपने
हिसाब से सरकार चलाने की नीतीश की ख्वाहिश
को मांझी ने जोर का झटका दे दिया। मांझी तो इंदिरा गांधी साबित हो गए। नीतीश कुमार
न तो मांझी की महात्वाकांक्षा को समझ सके और न ही उनके सियासी तजुर्बे को आंक सके।
अब हालात ऐसे हैं कि ने उगलते बन रहा है और न ही निगलते।
मांझी सीधे-सीधे कह रहे हैं कि पार्टी के
वरिष्ठ नेताओं का काम संगठन को मजबूत करना है और मेरा काम सरकार चलाना है। यानी सरकार
में जो हूं वो मैं ही हूं। कई बार ये भी कह चुके हैं कि आगे भी बिहार को दलित मुख्यमंत्री
ही चाहिए। यानी इशारा साफ है। जेडीयू से निष्कासित कुछ विधायकों की विधायकी खत्म करने
पर भी मांझी ने सवाल खड़े कर दिए। नीतीश के चहते अफसरों को इधर से उधर कर दिया। पार्टी
के सख्त मनाही के बावजूद मांझी बयान देते रहे हैं। जिसपर सवाल भी हुआ है और बवाल भी।
मतलब संकेत साफ है। जो बात नीतीश कुमार चाहते हैं, मांझी ठीक उसका उल्टा करते हैं। ये बात नीतीश कुमार भी समझने लगे हैं। यही
वजह है कि अब वो मांझी को ही किनारे लगाने में जुटे हैं। हालांकि अब ये काम नीतीश के
लिए इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि सियासी बिसात पर मांझी ने
पिछले 6 महीने में कई चालें चल दी है। मांझी खुद को गंवई अंदाज में पेश कर, लोगों से बात कर, गांव में जमीन पर लोगों के बीच भोजन
कर के एक बड़े वोट बैंक को साधने की कोशिश की है। मांझी का बीच-बीच में ये कहना कि
मैं तो बस कुछ ही दिनों का मुख्यमंत्री हूं, आपके लिए ज्यादा
नहीं कर पाऊंगा,मंत्री-अफसर मेरी बात नहीं मानते, बगैरह-बगैरह। जाहिर है ये सहानुभूति लेने की बड़ी कोशिश है। दरअसल अब वो नीतीश
से आगे की सोच रहे हैं। कहीं न कहीं मांझी के मन में ये बात घर कर चुकी है कि नीतीश
उनको यूज करने की कोशिश कर रहे हैं। लिहाजा वो जाति-सम्प्रदाय की सियासत में खुद को
बड़े स्तंभ के रूप में खड़ा करना चाहते हैं। दारू, मूस,
चखने की बात कर मांझी उन्हीं लोगों की नब्ज को पकड़ने की कोशिश कर रहे
हैं, जिसे नीतीश कुमार ने महादलित का नाम देकर पासवान और लालू
से अपने हिस्से में झटक लिया था। इसी वोट बैंक के जरिए मांझी अपनी महत्वाकांक्षा को
भी टटोल रहे हैं। बिहार में 16 फीसदी दलित वोट है। अगर इसका बड़ा हिस्सा मांझी के समर्थन
में खड़ा हो गया तो वो खुद को बड़े नेता के रूप में पेश कर सकते हैं। वैसे भी नीतीश
और मांझी के बीच बड़ी लकीर तो पड़ ही चुकी है। ऐसे में अगर नीतीश कुमार इस वक्त मांझी
को सत्ता से बेदखल कर देते हैं और खुद मुख्यमंत्री बनेंगे तो लगता नहीं है कि मांझी
चुप रहेंगे। अपनी महत्वाकांक्षा को उड़ान देने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। घर
के बाहर पासवान और बीजेपी बाहें पसारकर खड़े हैं गलबहियां करने के लिए। और अगर मांझी
को हटाते नहीं हैं, तो चुनाव में प्रशासनिक समीकरण साधने में
कहीं मांझी पैर न अटका दे। यही डर नीतीश कुमार के लिए मुसीबत बन रहा है।
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