गुरुवार, 17 जनवरी 2013

जो कभी नायक था, वो बन गया खलनायक


    जिसने लोगों में उम्मीद जगाई। जिसने लोगों को संपन्नता का सपना दिखाया। जिसने लोगों को जंगल से निकालकर मुख्यधारा में जोड़ने का जिम्मा उठाया। उसी ने लोगों को टकटकी पर लटका दिया।
    जंगल में रहनेवाले वे लोग छल प्रपंच क्या जाने। राजनीति क्या समझे। उन्हें तो अपना अधिकार चाहिए था। अधिकार की लड़ाई में लोगों ने तो उसे ही अपना सबकुछ समझा था। तारणहार बनाया था। जज्बात में आकर उस दुबले-पतले दाढीवाले को दिशोम गुरू बना दिया। लेकिन वही दिशोम गुरू, गुरू घंटाल निकल गए।
    उन्होंने तो आदिवासियों के हक के लिए लड़ाई लड़ी थी। वो हक जिसे शासन हमेशा ठेंगे पर रखता था। सत्ता से लेकर सेठ साहूकारों तक से दो-दो हाथ किए। इसके लिए अलग राज्य बनाने के सपने को लड़ते लड़ते पूरा किया। जिन लोगों के लिए वो लड़ते-लड़ते वो बूढे हो गए। जिसके लिए उन्होंने अपना सबकुछ झोंक दिया। अपनी जिंदगी उसके नाम कर दी। वही जब झारखंड के नाम से अस्तित्व में आया तो गुरूजी सत्ता के दीवाने हो गए। जंगल के भोलभाले आदिवासियों के दिल में रहनेवाले गुरूजी, राजनीति करते-करते इतने बेदर्द हो गए कि वो अपनो का भला करना भूल गए। उनकी नज़र सत्ता की कुर्सी पर जाकर ऐसी गड़ी कि राज्य की ऐसी-तैसी कर दी।
   कभी सौभाग्य था जो दक्षिण बिहार के पहाड़ी इलाकों में जहां आदिवासी रहते थे, यानी झारखंड के पास शिबू सोरेन था। लेकिन आज दुर्भाग्य है कि झारखंड के पास शिबू सोरेन है। सत्ता की दीवानगी ने एक नायक को खलनायक बना दिया। सीधे सादे सोच वाले दिशोम गुरू कुर्सी के मोह में ऐसे उलझे कि पूरे राज्य को उलझाकर रख दिया।
   मुख्यमंत्री बनना है तो बनाना है। चाहे जैसे भी हो। इसके लिए कुछ भी करना पड़े। कुछ भी। भले ही अपने भक्तों के भरोसे को ही क्यों ना दांव पर लगाना पड़े। गुरूजी ने लगा दिया।
   गुरूजी की इसी जिद की वजह से झारखंड में तीसरी बार राष्ट्रपति शासन लगने जा रहा है। बारह बरस में झारखंड में आठ बार कुर्सी की अदला-बदली हो चुकी है। चार मुख्यमंत्री बदले जा चुके हैं। हर बार गुरूजी का कुछ ना कुछ योग्दान जरूर रहता है। गुरूजी ने भी ठान रखा है कि जब तक हम पांच बरस पूरा नहीं करेंगे। किसी को चैन से नहीं रहने देंगे।
   राजनीतिक अस्थिरता के बीच झारखंड आज जिस मोड़ पर खड़ा है, वहां से राज्य के विकास की ओर कोई रास्ता जाता नहीं है। हर तरफ बदहाली, बेकारी, बदनसीबी, बेइमानी, बेचारगी है। और इसमें अगर सबसे ज्यादा किसी का नुकसान हो रहा है तो उसमें वेलोग सबसे आगे हैं, जिसके नाम पर ये राज्य बना। यानी आदिवासी।
   अब तक चार मुख्यमंत्रियों में सभी आदिवासी थे। सब ने मिलकर सत्ता का वो खेल खेला जिसमें जीत किसकी हुई पता नहीं लेकिन हार आम आदिवासियों की हुई। और आदिवासियों की इस हार के सबसे बड़े गुनहगार गुरू जी हैं। क्योंकि उन्होंने उन्हें जिताने का, आगे ले चलने का कभी वादा किया था।   
   झारखंड के इतिहास में शिबू सोरेन का नाम ऐसे खलनायक के रूप में लिया जाएगा, जिसने अपनी जिद पूरी करने के लिए अपने भक्तों के भरोसे को भी बेच दिया।   

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