बुधवार, 5 सितंबर 2012

उच्च सदन में निम्नता


      शर्म करूं या गुस्सा। समझ में नहीं आता। देश की सबसे बड़ी पंचायत में जो कुछ भी हो रहा था, वो लोकतंत्र के इतिहास में काले अक्षरों में लिखता जा रहा था। सदन की गरिमा लुट रही थी। गणतंत्र की जननी कलंकित हो रही थी। लोकतंत्र का चीरहरण हो रहा था। धृतराष्ट्र की तरह हमसब देख और सुन रहे थे। बेबस। लाचार। चाहकर भी हम कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि हममें से कुछ पार्टी के गुलाम हैं, कुछ जाति तो कुछ मजहब के गुलाम हैं। और गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा इंसान सोचता तो बहुत है लेकिन कुछ करता नहीं। और इसी स्थिति में कमोबेश हम सब थे।
    ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है। महज एक बरस पहले इसी उच्च सदन में राजनीति प्रसाद ने लोकपाल बिल फाड़कर जो तुच्छ राजनीति की थी, उसे संसद कभी भूल नहीं सकता। निचले सदन में भी कई बार ये निम्न काम हो चुके हैं। राज्यों की पंचायतों में भी मननीय कई बार चारित्रीक रूप से नंगे हो चुके हैं। कश्मीर से कर्नाटक तक और बिहार से यूपी और महाराष्ट्र तक सदन के भीतर हमारे माननीय दो दो हाथ कर चुके हैं। 
    दरअसल सदन में विरोध का स्वरूप बदल गया है। वैचारिक शून्यता में भटक रहे राजनैतिक दल बहस करने से कतराते हैं। ऐसे में विरोध के लिए हंगामा,तोड़फोड़ और हाथापाई हथियार बन चुका है। प्रमोशन में रिजर्वेशन को लेकर भी सदन में यही हुआ। बहस के बजाय दो माननीय दो-दो हाथ करके फैसला करने पर उतर आये।
     बता दें कि पैसे देकर सदन पहुंचे इनमें से एक माननीय कुछ दिन पहले तक बहन जी के साथ थे तो इस बिल का समर्थन कर रहे थे। लेकिन यूपी चुनाव के दौरान पार्टी बदल ली। सोच और निष्ठा बदल गई। अब किसी भी कीमत पर प्रमोशन में रिजर्वेशन का विरोध कर रहे हैं। राज्यसभा में जैसे ही बिल पेश हुआ, पहलवान ब्रांड के मोटे कदकाठी वाले नेताजी को बर्दाश्त नहीं हुआ। बेल की ओर बढ़ गये । लेकिन कई महीनों से खुन्नस खाये बहनजी के दूसरे भाई सरदार जी ने ताक़त दिखाई। उन्हें रोकने की कोशिश की। तो धक्का मार दिया । और फिर देखते ही देखते दोनों माननीय बेपर्दा हो गए ।
    दो माननियों की लड़ाई में जीत किसकी हुई, ये समझ में नहीं आया। लेकिन हारनेवालों में बहुत कोई हैं । हम, आप और सबसे ज्यादा निसहाय लोकतंत्र । 

2 टिप्‍पणियां: