रविवार, 8 जुलाई 2012

कॉर्पोरेट गरीब


कॉर्पोरेट गरीब। यानी बड़ी कंपनी में कम सैलरी पर काम करने वाला कर्मचारी। ऊंची मत्वाकांक्षा। कुछ पाने की हसरत। मेहनत से सपने को हक़ीकत में बदलने का जज़्बा। आइरन किया हुआ शर्ट-पैंट। चमचमाते जूते। आंखों पर चश्मा। जो हर सुबह समय पर ऑफिस पहुंचता है। दिनभर कम्प्यूटर के साथ हाई प्रोफाइल माथापच्ची करता है। बॉस की गालियां सुनता है। दिल में दर्द लिए मुस्कुराते रहता है। महीने के सात तारीख को टाइट होता है। और आठ तारीख को कंगाल हो जाता है।
महीने के एक तारीख के बाद जेब में सिर्फ आईकार्ड और आने-जाने का भाड़ा रहता है। लेकिन रूतबा वैसा ही। ऑफिस के बाहर गार्ड जब सैल्यूट मारता है तो सीना अड़तालीस इंच चौड़ा हो जाता है। लोगों को पता है बड़ी कंपनी में काम करता है। बड़ा आदमी है। अदब से बात करो। बड़ी मुश्किल होती है। जब दुकानों में पर्सनैल्टी देखकर ऊंचा रेंज वाला सर्ट पैंट दिखता है। मन मसोस कर कहना पड़ता है कि पसंद नहीं है। गर्लफ्रेंड से झूठ बोलते-बोलते परेशान है। हर दिन नया बहाना। किसी तरह सात तारीख आ जाए। अभी तक घर का नालायक बेटा बना हुआ है। पापा को क्या बताएगा कि उनका बेटा कॉर्पोरेट गरीब है।
ऑफिस के कैंटीन में तीन सितारा होटल का मजा। खाते वक़्त नहीं। पैसा देते वक़्त महसूस होता है। जितना पैसा कर्च कर बाहर में दोपहर का लंच कर लूं उतने में नास्ता नहीं होता। बड़ी कंपनी का कैंटीन है भाई। प्राइस भी ऊंची है। दोस्तों के साथ बैठकर मुस्कुराते हुए खा लेता है। दोस्तों को कोई फर्क नहीं पड़ता। ऊंचा पोस्ट। ऊंची सैलरी। खाने के लिए बाहर जाना पर्सनैलटी पर पड़ता है। लेकिन गेहूं के साथ घुन भी पिस रहा है। जेब का दर्द रात में सोते समय यादों के जरिए बाहर आता है। दिल को बहलाता है। समझाता है। बेटा, सब ठीक हो जाएगा। लेकिन कब। कब तक कॉर्पोरेट गरीब बना रहूंगा। पता नहीं।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब अंकुर साहब....... सही हालात बयां कर दिए....

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  2. बिल्कुल सही फ़रमाया जनाब... keep it up.. बहुत खूब

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  3. दिल्ली में हर तीसरे बंदे की कहानी कुछ इसी तरह है अंकुर जी... खैर आपने वाकई कुछ सोचने को मजबूर किया है....

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