पिछले कुछ बरसों में नेताओं
को लेकर लोगों का नज़रिया काफी बदला है। आम लोगों के बीच नेताओं की जो छवि सामने
आई है, वो लोगों को प्रभावित नहीं किया बल्कि उसमें नकारात्मक संदेश कहीं ज्यादा
है। जिन्हें लोग एक पहचान के साथ खड़े करते हैं। जिन्हें सम्मान के साथ अपने प्रतिनिधि
के तौर पर भेजते हैं, आज उन्हें ही गरियाने लगे हैं।
सवाल है कि देश के एक जिम्मेदार और दिशा
देनेवाले व्यक्ति को लेकर लोगों में नकारात्मक सोच क्यों है। दरअसल इसके लिए नेता
खुद जिम्मेवार हैं। क्योंकि ऐसा एकाएक नहीं हुआ है। पिछले कुछ सालों में नेताओं के
स्वभाव, हावभाव, विचार और काम करने के तरीके में नाटकीय ढंग से हुए परिवर्तन का ये
दुष्परिणाम है। अपने काम करने के तौर तरीकों के ज़रिए उन्होंने नेता
की परिभाषा को बदल दिया है। वे राजनीति को व्यवसाय मात्र समझने लगे हैं। और चुनाव
को इंट्रेंस एक्जाम की तरह। परीक्षा पास करने के लिए कुछ भी करते हैं। लोगों से
झूठा वादा करते हैं। उजूल-फिजूल बयान देते हैं। अपने सीनियर की चरणपूजा करते हैं।
और जब चुनाव जीत जाते हैं, तो फिर उनका एक ही लक्ष्य रह जाता है, ज्यादा से ज्यादा
पैसा कमाना। और जब बात पैसों के इर्द गिर्द घूमने लगती है। तो ये सारा खेल होता
है। आम लोगों से उनका सरोकार खत्म होते चला जाता है। और नेता दिल्ली दरबार में
सिमटकर रह जाते हैं।
ऐसे में अहम सवाल है कि आम लोग क्या करे। जिनके
हाथ चुनाव के बाद पांच सालों के लिए बंध जाते हैं। जो सबकुछ देखने और सुनने के लिए
मजबूर हैं। मौका मिला तो अन्ना आंदोलन के जरिए अपने गुस्से का इजहार किया। चाय
दुकान पर बैठकर गरिया दिये। और फिर चुप। इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं। लोग बिबस
हैं। क्योंकि विकल्पहीन हैं। संसदीय राजनीति में किसी न किसी को तो चुनना है।
लोकतांत्रिक ढांचा ऐसा है, जिसमें नेता चाहिए। और नेता आम जनता ही चुनेगी। और हर
नेता कमोबेश एक जैसे ही हैं। तो स्वभाविक है कि टकटकी पर लटके लोगों को जब दर्द
होगा तो निशाने पर उसे लटकानेवाला ही होगा।
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