भाषा विनम्र होती है । बोली उदंड । भाषा अनुशासित रहती है, अभिभावक की देखरेख में रहनेवाले बच्चों की तरह । और बोली बिना अभिभावक वाले बच्चों की तरह । पूरी तरह से बेलगाम । जो किया वही ठीक है । इयाकरण-व्याकरण से कोई मतलब नहीं । जैसा बोला, वैसा ही सही । किसी की परवाह नहीं । किसी के बाप के राज में नहीं रहते । क्यों सहेंगे किसी का डंडा । क्यों चलेंगे किसी के कहे मुताबिक । सब कुछ अपने मने से । सीना ठोंककर । पसंद करना है तो करो, वरना भाड़ में जाओ ।
जिस भाषा से मन हुआ उसी से शब्द उठा लिये । रोक सको तो रोक लो । देख लेंगे । नहीं हुआ तो अपना ही शब्द बना लिये । बोली में बड़ी खासियत होती है शब्द निर्माण की । ऐसे ऐसे शब्द बनते हैं कि भाषा सोच भी नहीं सकती । सुनकर दंग रह जाती है । बनावटी शब्दों पर बोली ऐसी तगड़ी पॉलिश करती है कि कुछ दिनों बाद भाषा भी उसकी चमक में खो जाती है । जैसे पहले उद्दंड लड़के को देखकर अनुशासित और तथाकथित पढ़नेवाले बच्चे भी सिगरेट पीने लगते हैं ।
बोली अपना अस्तित्व खुद बनाती है । इसलिए बेबाक होती है । ठेंठ । मुंहफट्ट । ज्यादा सोचती नहीं । किसी के पीछे भागती नहीं । बोली का इफेक्ट भी जबर्दस्त होता है । हर सार्वजनिक जगहों पर बोली का कब्जा है । रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, ऑटो स्टैंड, सरकारी दफ्तर या फिर डॉक्टर के क्लिनिक पर । व्याकरण पर सवार होकर भाषा बोलने से काम नहीं होगा । घिघियाते रहेंगे, कोई नहीं सुनेगा । जो काम करवाने में भाषा के पसीने छूट जाते हैं, उसे बोली यूं करवा लेती है । रूतबे में रहती है बोली । और जो बोली का रूतबा रहता है, वहीं इसे बोलनेवालों का । यही कारण है कि इसकी लोकप्रियता भी जबर्दस्त है ।
बोली तो भैया बोली है....ठेंठ...मुंहफट्ट...
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