तथाकथित
बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी बीमारी है छपास की। वो छपना चाहता है। दिखना चाहता है।
खुद की तारीफ चाहता है। रचना कैसी भी हो। बस छपना चाहिए। बस इतनी तमन्ना होती है। एक
बार किसी अखबार या पत्रिका में उसकी लिखी हुई कोई स्टोरी छप जाए। फाइल में सहेज कर
रखता है। जैसे पुरखों का वसीयतनामा हो। कुछ तो उस कतरन में लेमिनेशन करवा कर रखता
है। लोगों को दिखाने के लिए है। दिखाते वक्त, दिल में जो गुदगुदी होती है। वो वही
महसूस कर सकता है।
अखबारों के दफ्तर का चक्कर लगाते-लगाते चप्पल
तोड़नेवालों के लिए गुगल, ब्लॉग के रूप में वैसा ही वरदान दिया, जैसे सालों तपस्या
के बाद अचानक भगवान मिल जाए। लोगों ने धड़ाधड़ ब्लॉग बनाना शुरू कर दिया। भाड़ में
जाए अखबार वाले। बहुत जी हुजूरी कर लिये। अब अपना ब्लॉग। अपना मालिकाना। जब मन हुआ
तब छाप दिये। जो मन हुआ, वो बिना कांट छांट के छाप दिये। भले ही वो सड़ांध ही
क्यों न हो। सीना अड़तालिस इंच चौड़ा हो जाता है, जब लिखे हुए ब्लॉग में कॉमेंट
छपता है कि क्या जबर्दस्त लिखा है साहब आपने। पूरी हक़ीकत बयां कर दी। ऐसे ही
लिखते रहिए। मैं आपका बहुत बड़ा फैन हूं। वगैरह। वगैरह।
लोग
अपनी लिखी हुई बातें (सड़ांध भी हो सकती है) लोगों को पढ़वाने के लिए क्या क्या
नहीं करते। दूसरे को ई-मेल करते हैं। फेसबुक पर रिक्वेस्ट करते हैं। यहां तक कि
मोबाइल से भी मैसेज करते हैं। ताकि कोई पढ़ ले। तारीफ में दो शब्द लिख दे। कुछ तो
बकायदा फोन करके भी बताते हैं कि जरा पढ़ के बताइएगा। कैसा लिखा है। हां एक बात
और। ब्लॉग में फॉलोअर की संख्या में बढोत्तरी देखकर भी अतिप्रशन्नता का भाव उमड़ता
है।
नाम और छपास की
बीमारी देखिए कि कुछ लोग तो ब्लॉग क्या होता है, ये सुनकर भी ब्लॉग बना लेते हैं।
ब्लॉग का कुछ नाम डालकर रजिस्ट्री करवा लेते हैं, जैसे फ्री में कोई ज़मीन मिल रही
हो। इस तरह के लोग या तो ब्लॉग पर कोई पोस्ट नहीं डालते या फिर एक आधबार डालकर
वैसे भूल जाते हैं जैसे पांच साल बाद दोबारा पोस्ट करेंगे तो रेवेन्यू मिलेगा।
मुश्किल होती है उन लोगों के लिए जो देर से ब्लॉग के बारे में जानते हैं। जब
उन्हें कोई नाम नहीं सूझता है। जो नाम डालने की कोशिश कि वो पहले से कब्जा किया
हुआ मिलता है।
छपास की ये बीमार सिर्फ तथाकथि पत्रकारों में ही
नहीं होती। हर क्षेत्र के लोगों इस रोग से ग्रसित हैं। बडे-बड़े नेता। अभिनेता। खिलाड़ी।
व्यापारी। जुकाम की तरह फैलती है ये बीमारी। एक ने छींका तो दूसरे में भी घुस गया।
पता भी नहीं चलता। कब ब्लॉगर बन गये। दूसरों को मैसेज करने लगे। और ब्लॉग पोस्ट
में जाकर कॉमेंट को खंगालने लगे। कि किसने क्या लिखा है। कॉमेंट में तारीफ कर दी
तो सीना चौवालीस इंच चौड़ा हो जाता है। अगर कॉमेंट तारीफ में हो तो अड़तालीस इंच
से भी ज्यादा। लेकिन कॉमेंट न आए तो चिंता बढ़ जाती है। कभी कभी तो ब्लॉग
लिखनेवाले खुद दूसरा एकाउंट बनाकर या बेनामी नाम से भी कॉमेंट लिख देता है। ताकि
दूसरों को लगे उसका ब्लॉग पढ़ा जा रहा है। खैर, ये तो चिरकुट टाइप ब्लॉगर का
कारनामा होता है। लेकिन एक बात तो साफ है कि छपास की बीमारी से ग्रसित लोगों को
ब्लॉग के रूप में ऐसी एंटबाइटिक मिली है, जो वैसा ही काम करता है जैसे सिर दर्द की
बीमारी में सेरिडॉन। जिसे खाने के बाद लोगों को महसूस कराता है कि अब ठीक हो।
कितना ये नहीं पता।
तथाकथित तो यही होता है...पर कुछ मुद्दे ऐसे है जिन्हे लोग जानते है पर उस पर कुछ बोलना नहीं चाहते पर अगर उन्हें उकसा कर कुछ लिखवाया जाए तो वो बहुत कुछ कर देते हैं...इसलिए कुछ हद तक तो ये सही पर हद पार करने के बाद अत्मियात समाप्त होने लगता है..।
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