शुक्रवार, 20 मार्च 2015

ये मेट्रो का सफर है! (पार्ट वन)

पहली बार शुलभ शौचालय का सही मतलब समझ में आया । पहली बार लगा कि जगह-जगह टॉयलेटर बनवाकर बिंदेश्वरी पाठक ने कितना बड़ा क्रांतिकारी काम किया है। कुछ और जगहों पर वो टॉयलेट बनवा देते तो मैं उनके लिए भारत रत्न की मांग करने वाला पहला शख्स होता।

सड़क से करीब 25 फीट ऊपर दौड़ती मेट्रो में मेरी चाहत 500 किलोमीटर प्रति सेकेंड के हिसाब से दौड़ रही थी। दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने मेट्रो चलाकर इतनी बड़ी क्रांति ला दी। लेकिन बड़ी चूक हो गई DMRC वालों से। मेट्रो में टॉयलेट नहीं बनवाया। सूसू के दर्द ने मेरी सोच को विस्तार दे दिया था। बहुत बड़े स्वप्नदृष्टा की तरह मेरी सोच, मेरी इच्छाएं पसरती जा रही थी।

हर जगह शौचालय क्यों नहीं है। मेट्रो के हर प्लेटफॉर्म पर अगर लिफ्ट के लिए जगह निकाली जा  सकती है तो फिर एक टॉयलेट क्यों नहीं। बहुत बड़ी चूक हो गई DMRC वालों से। अगर मैं सदन में नेता प्रतिपक्ष रहता तो हर मेट्रो स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर टॉयलेट बनवाने की मांग करता। अगर सरकार में शामिल होता तो हर बॉगी में एक टॉयलेट जरूर बनवा देता।

छोटी सी लेकिन पूरी जिंदगी में पहली बार ऐसा अनुभव हुआ था। जब तक गांव में था सड़क के किनारे कहीं भी खड़े होकर शुरू हो जाने की आदत थी। लेकिन दिल्ली आया तो यहां कहीं भी शुरू हो जाने की इजाजत नहीं थी। आगाह करने के लिए दीवारों पर भारी भरकम शब्द लाद दिए गए थे। शर्म भी कोई चीज होती है। इसलिए सतर्क रहता था। लेकिन ऐसी नौबत आएगी, कभी सोचा नहीं था। जिंगदी के एक बड़े ही अनोखे अनुभव से गुजर रहा था।

सीट पर बैठा हुआ था। जितना ध्यान इधर-उधर लगाने की कोशिश करता, उतना ही तेजी से महसूस होने लगता। बैठे-बैठे मन अकुलाने लगा था। बड़ी मुश्किल से मिली सीट छोड़ने का फैसला कर लिया। मेट्रो  में सीट मिल जाना सौभाग्य की बात होती है। एक संस्कारी बच्चे की तरह उठकर अभी-अभी गाड़ी में दाखिल हुईं एक आंटी को अपनी सीट ऑफर कर दिया।

मेरी छटपटाहट बढ़ती जा रही है। धीरे-धीरे दर्द भी होने लगा था। लग रहा था, पता नहीं, कब सारी सीमाएं टूट जाएगी। कुछ भी होने वाला था। एक बार मन किया कि बाहर निकलकर हल्का हो लूं। लेकिन ऑफिस के लिए ऑलरेडी लेट हो चुका था। इसलिए बाहर निकलने से बच रहा था। सोचा, थोड़ा बर्दाश्त कर लूं। नोएडा में मेट्रो से उतरते ही पहला और तेजी से यही काम करूंगा। लेकिन आज पता नहीं क्यों सामान्य रफ्तार में चलने के बावजूद लग रहा था कि मेट्रो धीरे चल रही है। ड्राइवर ने गाड़ी की रफ्तार को कम कर दिया है। दो स्टेशनों की बीच की दूरी कुछ ज्यादा हो गई है। ऐसा लग रहा था जैसे हर कोई साजिश रच रहा है।

एक दर्दनाक अनुभव के बीच मैं अब तक करोल बाग मेट्रो स्टेशन आ चुका था। तभी मोबाइल की घंटी बजी
कहां हो
सर मेट्रो में हूं, आ रहा हूं
यार तुमको 3 बजे तक आना था
हां सर, थोड़ा लेट हो गया, बस आ ही रहा हूं। आधे घंटे में पहंच जाऊंगा।
तुम लोगों को टाइम का कोई ख्याल ही नहीं है। आओ यार, जल्दी आओ।
जी सर।

एक तो वैसे ही सूसू की महासमस्या में फंसा हुआ था। जिसके बारे में किसी को बता नहीं सकता। ऊपर से बॉस की घुड़की ने और बेचैनी बढ़ा दी। तभी झंडेवालान में बजरंग वली की महामूर्ति दिखी। मन ही मन प्रणाम किया। थोड़ी हिम्मत दीजिए महावीर जी। बर्दाश्त कर पाऊं। किसी तरह नोएडा तक पहुंच जाऊं। एक दिन जल्दी आकर लड्डू चढ़ाऊंगा । मन ही मन हनुमान चलीसा पढ़ने लगा। सोचा भगवान भी खुश हो जाएंगे और टाइम भी पास हो जाएग। अब तक राजीव चौक आ चुका था। एक बड़ी भीड़ बाहर निकल चुकी थी। कई सारे लोग भीतर दाखिल हो चुके थे। मेरा हनुमान चलीसा दूबारा खत्म हो चुका था। लेकिन बेचैनी कम होने का नाम नहीं ले रही थी।

क्या करूं। उतरूं या नहीं, इसी उधेड़बु में बाराखम्बा रोड आ चुका था। लगा अगर नहीं नहीं उतरा तो सब गड़बड़ हो जाएगा। पेट भी फुलता जा रहा था। बिना कुछ सोचे मैं बॉगी से बाहर निकल गया। किसी ने बताया कि ऊपर पर टॉयलेट।

कुछ देर तक भटकने के बाद टॉयलेट दिखा। पेंट का चेन खोलते हुए टॉयलेट की तरफ लपका। जगह देखते हुए शुरू हो गया। फिर तीन मिनट तक क्या हुआ, खुद भी पता नहीं चला। बस सबकुछ हल्का होते जा रहा था। पहली बार अहसास हुआ कि सूसू को लोग हल्का होना क्यों कहते हैं।

वापस मेट्रो में चढ़ा। ऑफिस जाने के लिए। मेट्रो दौड़ती जा रही थी। सोचते-सोचते गांव चला गया। जहां मर्दों को हल्का होने की इजाजत कहीं भी है लेकिन औरतों को अंधेरे का इंतजार  करना पड़ता है। जब मैं 50 मिनट तक बर्दाश्त नहीं कर पाया तो 5 घंटे कैसे इंतजार करती होगी। वो कितनी बड़ी पीड़ा से गुजरती होगी ।

सोमवार, 16 मार्च 2015

दिल्ली और नागपुर में 'दूरी' है क्या ?

2014 लोकसभा चुनाव में मिली जिस जीत को आडवाणी सरीखे स्वयंसेवक से लेकर खुद मोहन भागवत या कहें पूरा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, पार्टी और कार्यकर्ताओं की सफलता बता रहे थे, उसे मोदी ने एक झटके में ही खारिज कर दिया। मोदी ने एक इंटरव्यू में साफ तौर पर कह दिया कि ये सफलता मेरी वजह से मिली। लोगों ने मुझे वोट दिया। जाहिर है मोदी की ये बात सामने आते ही आरएसएस के कान खड़े हो गए। सो, संघ के नंबर दो यानी भैयाजी जोशी ये कहते हुए सामने आए कि किसी व्यक्ति की नहीं बल्कि देश की जनता ने बदलाव को वोट दिया। यानी बीजेपी की जीत मोदी की नहीं बल्कि संघ से लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं के कठिन परिश्रम का नतीजा है।

संघ की पाठशाला में सियासत का कहकरा पढ़नेवाले नरेंद्र मोदी बेहतर जानते हैं कि सत्ता में आने के लिए स्वयंसेवकों ने इस बार कितनी मेहनत की थी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मोदी संकेतों में संघ को ये कहना चाहते हैं कि उनके कामकाज में दखल न दिया जाए। वो जो कर रहे हैं उसे करने दें। ये इंटरव्यू तब सामने आया है जब कश्मीर में सरकार बनाने से लेकर भूमि अधिग्रहण कानून तक को लेकर संघ सवाल खड़ा कर चुका है। ये सुगबुगाहट है कि दिल्ली में सरकार पर नजर रखने के लिए संघ के किसी बड़े चेहरे रख सकता है।

दरअसल मोदी नहीं चाहते हैं कि उनकी आर्थिक नीति में कोई दखअंदाजी हो। विकास की अवधारणा को लेकर मोदी आगे की सियासत साधना चाहते हैं। तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पहली बार खुद को इस स्थिति में रखना चाहता है कि हिंदुत्व को लेकर जितने प्रयोग करने हैं वो कर लिया जाए। मोदी हिंदुत्ववाद की छवि से बाहर निकल कर विकास की एक लकीर खींचना चाहते हैं तो संघ चाहता है कि इसी पांच साल के दरम्यान जितनी ख्वाहिशें हैं वो पूरी हो जाए। संघ और उससे जुड़ा छोटा बड़ा हर संगठन हिंदू राग अलाप रहा है। घर वापसी से लेकर लव जिहाद और जनसंख्या बढ़ाने तक।

एक तरफ संघ प्रमुख मोहन भागवत घर वापसी को जायज ठहारा रहे हैं। हिंदू राष्ट्र की वकालत कर रहे हैं तो दूसरी तरफ मोदी संसद में ये कहते हैं कि धार्मिक कट्टरता के वो बिल्कुल समर्थक नहीं हैं। और जो इस सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की बात करेगा उसको सीधा करने के लिए उनके पास बहुत सारी उपाय है।

यानी दिल्ली और नागपुर के बीच में समीकरण ठीक तरह से बैठ नहीं पा रहा है। संघ कट्टर हिंदुत्ववाद के रास्ते आगे बढ़ना चाह रहा है तो प्रचारक से प्रधानमंत्री बने मोदी कट्टरवाद की छवि से अब आगे बढ़कर वाजपेयी के रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। और यही डर संघ के भीतर भी है। क्योंकि प्रधानमंत्री बनने के बाद वाजपेयी संघ से सीधे तौर पर कंट्रोल नहीं हो पा रहे थे। संघ कभी नहीं चाहेगा कि ये स्थिति मोदी के साथ बने। तो मोदी भी ये बेहतर जानते हैं कि संघ के बिना वो भी अधूरे हैं। अब इस दूरी को किस तरह से कम की जाए ये दोनों के लिए बड़ा सवाल है।

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

शरद बाबू...शर्म है !

वो समजावाद के स्वयंभू पुरोधा हैं। खुद को बराबरी के बहुत बड़े पैरोकार कहते हैं। सामंती सोच के खिलाफ लड़कर सियासत की हस्ती बने हैं। डॉक्टर लोहिया के स्कूल के सामार्थवान विद्यार्थी। लेकिन महिलाएं आज भी उनके लिए पैरों की जूती से ज्यादा नहीं है। पुरुषों के लिए देह का सुख भोगने का साधन है। औरतों को मजा लेने की वस्तु मानते हैं। 

गांधी अगर जिंदा होते तो उनकी बेतुकी बातें सुनकर कराह रहे होते। डॉक्टर अंबेडकर सिसकियां भर रहे होते। जेपी और लोहिया माथा पकड़कर बैठ गए होते। क्योंकि उन्हीं का चेला उच्च सदन में निम्नता की सारीं सीमाएं लांघ रहा था। महिलाओं के नाम पर मर्यादा को सूली पर लटका दिया था। 

राज्यसभा में जब इंश्योरेंस बिल पर चर्चा हो रही थी। तो शरद यादव नारी दर्शन का चित्रण करने लगे। सौंदर्य की गहराई में ऐसे घुसे कि मर्यादा की लकीर कब पार गए, पता ही नहीं चला। देश की आजादी से एक महीना पहले पैदा होने वाले 68 साल के शरद यादव हाथ चमका-चमका कर दक्षिण भारतीय महिलाओं के रंग, शरीर की बनाटव और कसावट का वर्णन करने लगे। ऐसा चित्रण तो शायद कामदेव ही करते। एक महिला सांसद ने टोका तो वरिष्ठता का हवाला देकर ललाट चमका लिया। हद देखिए कि शरद यादव का विरोध करने के बजाय संसद में बैठे ज्यादातर सदस्य बेशर्मी पर हंस रहे थे। ये हमारे देश के माननीय सांसद हैं।

ऐसा नहीं है कि शरद यादव महिलाओं को लेकर पहली बार संसद में इतनी बेहूदी बात कर रहे हों। उनके महिला विरोधी जज्बात कई बार छलक चुके है। निर्भया कांड के बाद जब रेप के खिलाफ कड़े कानून की बात हो रही थी कि शरद यादव ने तंज कसते हुए कहा था कि ऐसा कानून मत बनाओ की अपनी पत्नी को घूरने पर जेल जाना पड़ा।

जब पूरा देश आक्रोश में था, तभी उन्होंने ब्रह्मचर्य को पाखंड घोषित कर दिया था। सेक्स को स्वभाविक क्रिया बताया। उन्होंने अपनी बात को पुख्ता करने के लिए कहा था कि जैसे हम खाते हैं। पीते हैं। सांस लेते हैं। वैसे ही सेक्स भी जरूरी है। 15 दिन में एक बार तो चाहिए। तब शरद यादव की उम्र 66 साल थी।

महिला आरक्षण के सबसे बड़े विरोधियों में शरद यादव का नाम ऊपर की सूची में है।सदन से सड़क तक खुलकर गुस्से का इजहार कर चुके हैं। संसद में जब बिल पेश हुआ तो शरद यादव ने इतना तक कह दिया कि 'परकटी महिलाओं' को सदन में लाने की कोशिश हो रही है।

8 मार्च को ही हमने महिला दिवस मनाया था। बड़ी-बड़ी बातें की थी। माननियों ने महिलाओं के सम्मान में क्या-क्या नहीं कहा था। देखिए कि 6 दिन के बाद ही महिलाओं को लेकर उनकी सोच बेलिबास हो गई। यकीन मानिए, संसद में बैठे ऐसे लोगों के ओछे विचार के बीच नारी सशक्तिकरण और बेटी बचाओ जैसी बातें ढकोसला लगती है।

बुधवार, 11 मार्च 2015

मिस्टर क्लीन के ऊपर कोयला का धब्बा

अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने जो बातें सपने में भी नहीं सोची होगी, वो हकीकत बनकर उनके सामने खड़ी है। उनकी खासियत रही कि दलदल में रहते हुए भी मिस्टर क्लीन की छवि को उन्होंने बनाए रखा। लेकिन काली कोठरी से बेदाग बाहर निकलना बेहद मुश्किल है। नामुमकिन की तरह। कोई कितना भी बचना चाहे, छींटे तो उसके ऊपर पड़ने ही है। और देखिए कि उम्र के अंतिम पड़ाव में आकर मनमोहन सिंह के ऊपर यही छीटें पड़ चुके हैं। जिस शख्स ने देश में आर्थिक योजनाओं को अपने तरीके से परिभाषित किया। अर्थव्यवस्था को बुलंदी की ऊंचाई पर पहुंचाई। उसे नया आयाम दिया। उस शख्स पर देश की आर्थिक स्थित को कमजोर करने से लेकर विश्वासघात तक के आरोप लगे हैं।   

याद कीजिए उस दौर को जब नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री थे। अर्थव्यवस्था रसातल में थी। देश दिवालियापन के कगार पर था। तब नायक बनकर उभरे थे डॉक्टर मनमोहन सिंह। वित्त मंत्री रहते हुए उन्होंने न सिर्फ देश को आर्थिक उदारीकरण की ओर ले गए बल्कि दुनिया के लिए बाजार का रास्ता भी खोल दिया। अर्थव्यवस्था की सेहत सुधरी तो  हिंदुस्तान महाशक्ति बनकर उभरा। मनमोहन सिंह के इस प्रयोग का विरोधी भी कायल थे। मनमोहन सिंह की यही खासियत उन्हें 2004 में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक ले गई। लेकिन 2015 आते-आते वही महान अर्थशास्त्री पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह आरोपी के कटघरे में खड़े हैं।

संयोग देखिए 2004 से 2009 के बीच तीन बार मनमोहन सिंह के पास कोल मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार था। इसी दौरान 155 कोल ब्लॉक्स आवंटित किए गए। यही आवंटन सवालों के घेरे में खड़ा हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे ये कह कर रद्द कर दिया कि इससे देश को भारी नुकसान हुआ है। देश की आर्थिक स्थिति कमजोर करने में एक कड़ी मनमोहन सिंह को मानी गई। यहां तक कि उन पर अपराधिक साजिश से लेकर विश्वासघात तक के आरोप लगे हैं। 

यानी आठ अप्रैल को वो सीबीआई की विशेष अदालत में कठघरे में खड़े होंगे। वकील उनसे सवाल-जवाब करेगा। आरोप साबित हो पाता है या नहीं, ये बाद की बात है। लेकिन जो काले छींटे उनके ऊपर परे हैं, ये विद्वता के तमगे से सुसज्जित मनमोहन सिंह के लिए काफी परेशान करनेवाला है। यही वजह है कि कोर्ट से समन मिलने के कुछ ही घंटे बाद वो मीडिया के सामने आए। खुद को बेदाग, बेकसूर बताया।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब तक सत्ता के शीर्ष पर बैठे रहे। उके ऊपर यही आरोप लगता रहा कि वो तो महज संकेत मात्र हैं। किसी और के इशारे पर काम करते हैं। किसी ने रोबोट कहा। किसी ने मौनी बाबा कहा। विरोधी अपने हिसाब से मनमोहन सिंह को परिभाषित करते रहे। पता नहीं कोल आवंटन के घालमेल में मनमोहन सिंह की सहमति थी या नहीं या थी तो कितनी थी। लेकिन जब कटघरे में खड़े होने की बारी आई तो वही 'रोबोट' आरोपियों के फेहरिस्त में शामिल हो चुका है। जिसके हाथ में रिमोट था, उसका कॉलर अभी भी सफेद है। दरअसल यही राजनीति की हकीकत है। यही सियासत का काला सच भी।

मंगलवार, 10 मार्च 2015

मोदी के नाम श्यामा प्रसाद मुखर्जी की चिट्ठी

प्रिय नरेंद्र मोदी

संसद में आपका वक्तव्य सुन रहा था। आप ने देशभक्ति के नाम पर मेरा भी जिक्र किया।आपने कहा कि जम्मू-कश्मीर के लिए आपके नेता यानी मैंने कुर्बानी दी। मेरी देशभक्ति याद रखने के लिए आभार।

आपने अब तक मुझे याद रखा लेकिन हमारी नीति भूल गए। पिछले कुछ दिनों से कश्मीर में जो हो रहा है उससे मैं काफी आहत हूं। क्यों ऐसा लग रहा है कि कुर्सी और अहंकार में आपलोग अपना अस्तित्व भूलते जा रहे हैं। आपलोगों को स्मरण नहीं है कि कश्मीर को लेकर मैंने क्या सोचा था। मेरा, हमारी पार्टी का क्या सिद्धांत था। आपने हमारे सिद्धांत को सूली पर लटका दिया।

सत्ता में साझेदारी के लिए क्यों उस व्यक्ति से हाथ मिला लिया, जिसकी नीति हमारी नीति के विपरित है। जो देश द्रोहियों का हिमायती है। जो दुश्मन देश का परस्त है। मैं आपलोगों का अशुद्ध गठबंधन देखकर हैरान हूं।

आपका नया दोस्त मुफ्ती मोहम्मद सईद हर दो दिन पर मेरे सीने में नश्तर चुभा रहा है। हमारे सिद्धांत को रौंद रहा है। आपलोग कुर्सी की खातिर सब देख रहे हैं। सुन रहे हैं। सह रहे हैं। क्या हो गया है आपलोगों को।

मुफ्ती के शपथग्रहण समारोह में आप भी मौजूद थे।आडवाणी और जोशी भी थे।आपलोगों के सामने टेबल पर दो-दो झंडा फहरा रहा था। शूल की तरह चुभ रहा था वो दूसरा झंडा।

धारा 370 को हटाने के लिए मैंने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया। एक देश में दो निशान,दो प्रधान, दो विधान के खिलाफ मैंने लड़ाई लड़ी। नेहरू से बगावत की। शेख अब्दुल्ला से अदावत की। मुझे जान तक गंवानी पड़ी। और आपने एक झटके में उससे समझौता कैसे कर लिया।

आपने शायद अध्ययन किया होगा कि राष्ट्र के लिए मैंने कुर्सी त्याग दिया था। इसी कश्मीर के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया था। सरकार की मनाही के बावजूद मैंने 1953 में कश्मीर के लिए इसलिए प्रस्थान किया था, क्योंकि मेरे लिए राष्ट्र सर्वोपरि था। अखंड भारत के सपने को पूरा करना चाहता था।

 मैं जम्मू-कश्मीर को भी पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह देश का हिस्सा बनाना चाहता था। मुझे गिरफ्तार कर लिया गया।फिर क्या-क्या हुआ मेरे साथ, उसका जिक्र नहीं करना चाहता। वो दर्द तो गैरों ने दिया था। लेकिन 6 दशक के बाद आपलोग जो दर्द दे रहे हैं, वो बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है।

ऐसा लग रहा है कि आपलोग मेरे नाम का सिर्फ इस्तेमाल कर रहे हैं। अपने फायदे के लिए। मैं जो काम अधूरा छोड़कर आया था, उसे आपलोगों ने सब्र के कब्र में दफ्न कर दिया। क्यों ऐसा लग रहा है कि आपलोग मात्र अपने फायदे के लिए मेरा नाम लेते हैं। मेरी नीति, मेरे सिद्धांत से आपलोग सिर्फ सत्ता के लिए वास्ता रखना चाहते हैं। कुर्सी के मोह में कुछ भी कर रहे हैं। कृपा करके आप लोग सत्ता के शीर्ष पर हुंचने की सीढी मुझे मत बनाइए।

आप देश के प्रधानमंत्री हैं। उस पार्टी के निर्विवादित नेता हैं, जिसका बीज हमने कुछ साथियों के साथ करीब छह दशक पहले बोया था। सुना है कि आज की तारीख में आप से पूछे बगैर पार्टी में कुछ नहीं होता है। इसलिए ये पत्र आपको लिख रहा हूं।

यहां पर कश्मीरी पंडितों की टोली अक्सर मिलकर मुझसे पूछती है कि कब घर वापसी होगी हमारे बच्चों की। शहीद होकर स्वर्ग पहुंचे सेना के जवान मुझसे मिलने आते हैं। किस - किसको क्या जवाब दूं। आप ही बताइए।

अगर सच में आपलोग मुझे अपना नेता मानते हैं। मेरी नीति पर आपलोगों को भरोसा है। मेरे सिद्धांत को आपलोग आगे बढ़ाना चाहते हैं तो कुर्सी का मोह त्यागना होगा। राष्ट्र सम्मान को अपनाना होगा। नहीं तो इतना आग्रह है कि आपलोग मेरा नाम लेना छोड़ दीजिए। बहुत कृपा होगी।

क्षमा कीजिएगा। थोड़ा कष्ट में हूं। इसलिए आक्रोशित हो गया। हां, लेकिन मेरी बात पर गौर जरूर कीजिएगा।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी
संस्थापक, जनसंघ

गुरुवार, 5 मार्च 2015

नीतीश की माफी और भूल की सियासत

नीतीश कुमार सियासत में नई परिभाषा गढ़ने के लिए जाने जाते रहें हैं। 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से नीतीश राजनीति में एक लकीर खींचते चले गए। लेकिन मोदी की लहर में लड़खड़ाकर गिरे नीतीश कुमार को जब अपने मांझी ने जोर का झटका दिया तो उन्होंने दूसरे की खींची लकीर पर डेग बढ़ा दिया।

अब सवाल उठता है कि क्या दूसरे के बनाए रास्ते पर चलकर वो नवंबर में होने वाले चुनाव में जीत हासिल कर पाएंगे। जिस तरह से नीतीश कुमार बार-बार माफी मांग रहे हैं। मांझी को कुर्सी सौंपने को अपनी भूल बताकर फिर से मौका देने की अपील कर रहे हैं। हर प्रेस कॉन्फ्रेंस, हर सभा, हर रैली में माफी और भूल का जिक्र जरूर करते हैं तो क्या इसका असर लोगों पर होगा। 

दरअसल नीतीश ने माफी मांगने की प्रेरणा केजरीवाल से ली है। नीतीश कुमार को लगा कि जैसे माफी मांगकर केजरीवाल प्रचंड बहुमत से जीत गए,वैसे ही बिहार में  माफी मांगकर वो सत्ता पर लगातार काबिज रह सकते हैं। लेकिन हकीकत ये है कि केजरीवाल और नीतीश की सियासत में, माफी मांगने में, बड़ा फर्क है।

केजरीवाल को मासूमियत की माफी मिली थी। केजरीवाल लोगों को ये समझाने में सफल रहे कि सियासी सूझबूझ के चलते उन्होंने विधानसभा में इस्तीफा दिया था। लिहाजा लोगों ने केजरीवाल की मासूमियत को माफ कर दिया। लेकिन बिहार के लोग ये अच्छी तरह जानते हैं कि सियासत के माहिर खिलाड़ी नीतीश ने एक रणनीति के तरत इस्तीफा दिया था। मांझी को कुर्सी पर बिठाकर वो बहुत आगे की राजनीति को साधने की जुगत में थे। जिसमें वो चूक गए।

दूसरी बड़ी बात ये है कि दिल्ली के लोग एक प्रयोग करना चाहते थे। वो केजरीवाल को परखना चाहते थे, उनकी सियासत के तरीके को देखना चाहते थे। लिहाजा उन्हें मौका दिया गया। लेकिन नीतीश कुमार परखे जा चुके हैं। नीतीश को लेकर लोगों की धारणा बन चुकी है।

तीसरी बात दिल्ली और बिहार के सियासी मिजाज में बहुत फर्क है। दोनों जगहों के वोटर की सोच में बड़ा फासला है। दिल्ली में वोटर पढ़े लिखे हैं या फिर पढ़े लिखों के संपर्क में हैं। लोगों ने दिल्ली में जाति, धर्म, पार्टी से उठकर केजरीवाल को वोट दिया। लेकिन बिहार में ऐसा नहीं है। बड़ी तादाद में लोग हैं जो अभी भी जाति, धर्म, क्षेत्र, पार्टी के बंधे-बंधाए परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। मिसाल के तौर पर देख सकते हैं कि बीजेपी से अलग होने के बाद फॉरवार्ड मतदाता नीतीश कुमार से छिटक गए हैं।

चौथी बात, हारने के बावजूद केजरीवाल अकेले अपने दम पर चुनावी मैदान में डटे रहे। लेकिन नीतीश को थोड़ा झटका लगा तो लालू के कंधे पर हाथ रख दिया। जाहिर है इसका असर भी अगले चुनाव पर पड़ेगा। ऐसे में अगर नीतीश कुमार ये सोच रहे हैं कि भूल और माफी के आसरे उनकी कुर्सी बरकार रहेगी तो ये उनकी बड़ी भूल होगी। भूल और माफी से बढ़कर उन्हें समय रहते बड़ी चाल चलनी होगी।

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

सुनो कल्पना

सुनो कल्पना
आज तुम्हारे पापा बहुत उदास थे। तुम्हारी मां को देखकर लग रहा था कि उन्होंने कई दिनों से ठीक से खाना नहीं खाया है। तुम्हारे घर का माहौल ऐसा इस से पहले कभी नहीं लगा था।

इतने दिनों से जा रहा हूं तुम्हारे घर। पहली बार बड़ी अजीब सा अहसास हुआ। घर के हर कोने में खामोशी पसरी हुई थी। उदासी की चादर में पूरा माहौल लिपटा हुआ था। पता है कल्पना। पहली बार ऐसा हुआ, जब मैं तुम्हारे घर पहुंचा तो अंकल के होंठों पर मुस्कुराहट नहीं था। उन्होंने कुछ बोला नहीं। उनके चेहरे पर खुशी नहीं थी।

मैं खुद बैठ गया। उन्होंने हालचाल भी ऐसे पूछा जैसे रस्म अदायगी कर रहे हों। ऐसा तो आज तक कभी नहीं हुआ था।

पहली बार ऐसा हुआ कल्पना कि तुम्हारी मां ने मुझे देखा और बिना हालचाल पूछे भीतर के कमरों की तरफ चली गई। बहुत ही अजीब सा लग रहा था। जिस घर को मैं हमेशा अपने घर की तरह समझा वहां बेगाना सा लग रहा था।

अंकल को देखकर क्यों ऐसा लग रहा था कि उनके दिल में बहुत बड़ा तूफान अटका हुआ है। जिसे खुद उन्होंने रोक कर रखा है। अगर बाहर निकल आया तो पता नहीं क्या होगा।

चाची चाय बनाकर लाई। मैंने चाय पीना शुरू किया। इतने सालों में पहली बार आज लग रहा था कि जरूरत से ज्यादा चीनी रहने के बावजूद चाय में मिठास नहीं है। जैसा माहौल कड़वा था, वैसी चाय भी कड़वी लग रही थी। इधर-उधर आंखें भटकाते हुए मैंने चाय पीनी शुरू कर दी।

जिस घर में कदम रखते ही मेरे सारे गम, सारा दुख दूर हो जाता था। जहां हमेशा लोग खिलखिलाते रहते थे। जहां मैं अपना हर सुख दुख अंकल और चाची को ऐसे सुनाता था जैसे वो मेरे भी मां-पापा हों। उन्होंने अपने बेटे की तरह प्यार दिया था मुझे। तुम जानती हो इसे।

जहां चारो तरफ खुशियां बिखरी रहती थी, वहां खामोशियों की मोटी पड़त जमी हुई थी।जिनसे मैं छोटी-छोटी बात पूछ लेता था, उनसे इतनी बड़ी खामोशी का राज नहीं पूछ पा रहा था मैं। बहुत हिम्मत चाहिए थी इस खामोशी को तोड़ने के लिए। प्याली की पूरी चाय खत्म हो गई। लेकिन कहीं आवाज नहीं आई।

आखिर सन्नाटे को अंकल ने तोड़ा। पूछा- कैसे हो। चेन्नई से कब आए। सब ठीक तो है।

मैंने कहा- हां अच्छा हूं। कल रात में आया।

फिर खामोशी छा गई। फिर मैंने पूछा- कल्पू कैसी है?

कोई उत्तर नहीं मिला। ऐसा लगा जैसे किसी ने सुना ही नहीं। मैंने फिर से पूछा- अंकल कल्पू कैसी है, उसका फोन आया था कि नहीं ?

अंकल ने धीरे से जवाब दिया। कल्पना अब बड़ी हो गई है। बहुत बड़ी। बहुत खुश है।

मुझे लगने लगा कि कुछ गड़बड़ है। क्योंकि एक तो इतने दिनों पहली बार मैंने अंकल के मुंह से तुम्हारा पूरा नाम सुना था कल्पना। इससे पहले जब भी अंकल तुम्हारा नाम लेते थे, बस कल्पू ये, कल्पू वो, कल्पू ऐसा, कल्पू वैसा...बस कल्पू ही बोलते थे। और दूसरा उनकी आवाज में दर्द था।

मैंने तुंरत अगला सवाल कर दिया- अंकल समझा नहीं, बड़ी हो गई मतलब ?

हां, एक बार तो मैं भी नहीं समझा था। कल्पना मेरी बेटी है इसके बावजूद मैं नहीं समझ पाया कि वो बड़ी हो गई है। इतनी बड़ी कि खुद अपने अच्छे-बुरे का ख्याल रखने लगी है अब। इतनी समझदार हो गई है मुझे अहसास ही नहीं हुआ इसका।

अंकल बोलते चले गए।

हम तो आज भी उसे वही बच्ची समझते थे जिसे मैंने ऊंगली पकड़कर चलना सिखाया था। उसकी हर जरूरतों को अपना समझते हैं। समझे भी क्यों नहीं। वो मेरी इकलौती बेटी है। जो है सब वही तो है। दो बेटों के बाद वो एक बेटी हुई थी। कितने लाड़-प्यार से पाला उसे। उसके मुंह से निकलता नहीं था कि हम उसे पूरा कर देते थे। कई बार उसकी मां ने मुझे टोका था- कि आप अपनी बेटी को बहसा रहे हैं। लेकिन मैं हर बार नजर अंदाज कर देता था। बेटा-बेटी में क्या फर्क। बड़ी होगी तो खुद समझ जाएगी।

तुम्हारे पापा कहते चले गए।

पता है जब उसने पढ़ाई के लिए दिल्ली जाने की बात कही थी तो तुम्हारी चाची ने मना कर दिया था। रोहित और सुमित ने भी कहा था कि रांची में ही पढ़ेगी तो क्या होगा। सब अड़ गए थे। लेकिन मैंने जिद कर के उसे दिल्ली पढ़ने के लिए भेजा था। क्योंकि मैं चाहता था कि वो बड़ी होकर कुछ करे। अपने पैरों पर खड़े हो सके। कुछ ऐसा करे जिससे हमारे खानदान का नाम और ऊंचा हो। मैंने उसे हर वो काम करने की आजादी दी जो वो चाहती थी। जो उसके कैरियर के लिए बेहतर हो सके। जो मैंने रोहित और सुमित को करने दिया। लेकिन वो इतनी आजाद हो जाएगी इसका अहसास नहीं था। मैं समझ नहीं पाया कि वो ये सब कर जाएगी।

इतना कहते कहते अंकल की आंखें डबडब गई। गला रुंधने लगा उनका। गरदन झुक गई। बगल में बैठी चाची ने उन्हें जाकर ऐसे पकड़ लिया जैसे कोई पेड़ गिरने लगा हो और उसे कोई मजबूती से थामने की कोशिश कर रहा हो । अपनी आंखों के आंसू को पल्लू से पोंछते हुए उन्हें संभालने लगी। छोड़िये न, जो होना था वो हो गया।

पता है कल्पना। जितना मैं तुम्हारे पापा और मम्मी को समझ पाया, मैंने यही महसूस किया कि उन्होंने ऐसे ही तुम्हारा नाम कल्पना नहीं रख दिया था। वो तुमको लेकर बहुत बड़ी ख्वाब देख रहे थे। कल्पना की उड़ान में बड़े-बड़े पंख लगाना चाहते थे वो। वे उस पंख को पकड़कर उड़ना चाहते थे। आसमां से लोगों को बताना चाहते थे कि देखो ये मेरी बेटी है। मेरी प्यारी बेटी। उसने जो चाहा करने दिया। वो तुम्हें एक मिसाल बनाना चाहते थे कि बेटी को भी अपने सपने में पंख लगाने दीजिए, वो बेटे से कमतर साबित नहीं होगी।

लेकिन आज तुम्हारा पूरा परिवार उस कल्पना की उड़ान से गिरकर लहुलूहान हुआ पड़ा था। छटपटा रहा था। तुम्हारे मां और पापा दोनों एक-दूसरे को संभाल रहे थे। लेकिन जितना एक-दूसरे को समेटने की कोशिश कर रहे थे, उतना ही बिखरते जा रहे थे।