शुक्रवार, 20 मार्च 2015

ये मेट्रो का सफर है! (पार्ट वन)

पहली बार शुलभ शौचालय का सही मतलब समझ में आया । पहली बार लगा कि जगह-जगह टॉयलेटर बनवाकर बिंदेश्वरी पाठक ने कितना बड़ा क्रांतिकारी काम किया है। कुछ और जगहों पर वो टॉयलेट बनवा देते तो मैं उनके लिए भारत रत्न की मांग करने वाला पहला शख्स होता।

सड़क से करीब 25 फीट ऊपर दौड़ती मेट्रो में मेरी चाहत 500 किलोमीटर प्रति सेकेंड के हिसाब से दौड़ रही थी। दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने मेट्रो चलाकर इतनी बड़ी क्रांति ला दी। लेकिन बड़ी चूक हो गई DMRC वालों से। मेट्रो में टॉयलेट नहीं बनवाया। सूसू के दर्द ने मेरी सोच को विस्तार दे दिया था। बहुत बड़े स्वप्नदृष्टा की तरह मेरी सोच, मेरी इच्छाएं पसरती जा रही थी।

हर जगह शौचालय क्यों नहीं है। मेट्रो के हर प्लेटफॉर्म पर अगर लिफ्ट के लिए जगह निकाली जा  सकती है तो फिर एक टॉयलेट क्यों नहीं। बहुत बड़ी चूक हो गई DMRC वालों से। अगर मैं सदन में नेता प्रतिपक्ष रहता तो हर मेट्रो स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर टॉयलेट बनवाने की मांग करता। अगर सरकार में शामिल होता तो हर बॉगी में एक टॉयलेट जरूर बनवा देता।

छोटी सी लेकिन पूरी जिंदगी में पहली बार ऐसा अनुभव हुआ था। जब तक गांव में था सड़क के किनारे कहीं भी खड़े होकर शुरू हो जाने की आदत थी। लेकिन दिल्ली आया तो यहां कहीं भी शुरू हो जाने की इजाजत नहीं थी। आगाह करने के लिए दीवारों पर भारी भरकम शब्द लाद दिए गए थे। शर्म भी कोई चीज होती है। इसलिए सतर्क रहता था। लेकिन ऐसी नौबत आएगी, कभी सोचा नहीं था। जिंगदी के एक बड़े ही अनोखे अनुभव से गुजर रहा था।

सीट पर बैठा हुआ था। जितना ध्यान इधर-उधर लगाने की कोशिश करता, उतना ही तेजी से महसूस होने लगता। बैठे-बैठे मन अकुलाने लगा था। बड़ी मुश्किल से मिली सीट छोड़ने का फैसला कर लिया। मेट्रो  में सीट मिल जाना सौभाग्य की बात होती है। एक संस्कारी बच्चे की तरह उठकर अभी-अभी गाड़ी में दाखिल हुईं एक आंटी को अपनी सीट ऑफर कर दिया।

मेरी छटपटाहट बढ़ती जा रही है। धीरे-धीरे दर्द भी होने लगा था। लग रहा था, पता नहीं, कब सारी सीमाएं टूट जाएगी। कुछ भी होने वाला था। एक बार मन किया कि बाहर निकलकर हल्का हो लूं। लेकिन ऑफिस के लिए ऑलरेडी लेट हो चुका था। इसलिए बाहर निकलने से बच रहा था। सोचा, थोड़ा बर्दाश्त कर लूं। नोएडा में मेट्रो से उतरते ही पहला और तेजी से यही काम करूंगा। लेकिन आज पता नहीं क्यों सामान्य रफ्तार में चलने के बावजूद लग रहा था कि मेट्रो धीरे चल रही है। ड्राइवर ने गाड़ी की रफ्तार को कम कर दिया है। दो स्टेशनों की बीच की दूरी कुछ ज्यादा हो गई है। ऐसा लग रहा था जैसे हर कोई साजिश रच रहा है।

एक दर्दनाक अनुभव के बीच मैं अब तक करोल बाग मेट्रो स्टेशन आ चुका था। तभी मोबाइल की घंटी बजी
कहां हो
सर मेट्रो में हूं, आ रहा हूं
यार तुमको 3 बजे तक आना था
हां सर, थोड़ा लेट हो गया, बस आ ही रहा हूं। आधे घंटे में पहंच जाऊंगा।
तुम लोगों को टाइम का कोई ख्याल ही नहीं है। आओ यार, जल्दी आओ।
जी सर।

एक तो वैसे ही सूसू की महासमस्या में फंसा हुआ था। जिसके बारे में किसी को बता नहीं सकता। ऊपर से बॉस की घुड़की ने और बेचैनी बढ़ा दी। तभी झंडेवालान में बजरंग वली की महामूर्ति दिखी। मन ही मन प्रणाम किया। थोड़ी हिम्मत दीजिए महावीर जी। बर्दाश्त कर पाऊं। किसी तरह नोएडा तक पहुंच जाऊं। एक दिन जल्दी आकर लड्डू चढ़ाऊंगा । मन ही मन हनुमान चलीसा पढ़ने लगा। सोचा भगवान भी खुश हो जाएंगे और टाइम भी पास हो जाएग। अब तक राजीव चौक आ चुका था। एक बड़ी भीड़ बाहर निकल चुकी थी। कई सारे लोग भीतर दाखिल हो चुके थे। मेरा हनुमान चलीसा दूबारा खत्म हो चुका था। लेकिन बेचैनी कम होने का नाम नहीं ले रही थी।

क्या करूं। उतरूं या नहीं, इसी उधेड़बु में बाराखम्बा रोड आ चुका था। लगा अगर नहीं नहीं उतरा तो सब गड़बड़ हो जाएगा। पेट भी फुलता जा रहा था। बिना कुछ सोचे मैं बॉगी से बाहर निकल गया। किसी ने बताया कि ऊपर पर टॉयलेट।

कुछ देर तक भटकने के बाद टॉयलेट दिखा। पेंट का चेन खोलते हुए टॉयलेट की तरफ लपका। जगह देखते हुए शुरू हो गया। फिर तीन मिनट तक क्या हुआ, खुद भी पता नहीं चला। बस सबकुछ हल्का होते जा रहा था। पहली बार अहसास हुआ कि सूसू को लोग हल्का होना क्यों कहते हैं।

वापस मेट्रो में चढ़ा। ऑफिस जाने के लिए। मेट्रो दौड़ती जा रही थी। सोचते-सोचते गांव चला गया। जहां मर्दों को हल्का होने की इजाजत कहीं भी है लेकिन औरतों को अंधेरे का इंतजार  करना पड़ता है। जब मैं 50 मिनट तक बर्दाश्त नहीं कर पाया तो 5 घंटे कैसे इंतजार करती होगी। वो कितनी बड़ी पीड़ा से गुजरती होगी ।

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