मंगलवार, 3 जनवरी 2017

समाजवादी पार्टी

एक बार फिर से वक्त का पहिया घूम रहा है। समझिए तकरीबन 25 बरस पहले... जब समाजवादी शिरोमणि मुलायम सिंह यादव ने रोटी , दाल ,कच्चा प्याज़ और नींबू खाकर सियासत की नई पारी शुरू की थी। लोकतंत्र के पाठ्यक्रम की सियासी किताब में एक नया अध्याय जोड़ा था समाजवादी पार्टी के नाम से। आज फिर से उस साइकिल छाप पार्टी को समझने के लिए इतिहास के पन्नों को पलटा जा रहा है।

वो साल 1992 का था। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री पद से बेदखल हो चुके थे। यूपी में बीजेपी की नई-नी सरकार बनी थी। 25 बरस में सियासत का हर दांव-पेच सीख चुके मुलायम ने एक ऐतिहास फैसला लिया। लोहिया और जेपी के आदर्श की नींव पर समाजवाद, समानता और प्रजातंत्र की दीवार को जोड़कर एक पार्टी बनाई। 4 अक्टूबर 1992 को बेगम हजरत महल पार्क में मुलायम सिंह यादव ने नई पार्टी का ऐलान कर दिया।  नाम पड़ा समाजवादी पार्टी।

समाजवादी जनता दल से अलग होकर मुलायम सिंह ने पार्टी बना ली थी। लेकिन उनके पास बड़ा जनाधर नहीं था। लोहियावादी जनेश्वर मिश्र और मोहन सिंह सरीखे साथियों के साथ मिलकर मुलायम ने जनाधार बढ़ाना शुरू किया। साइकिल की सवारी कर गांव-गांव दौड़ा किया। लोगों से मिले। लोगों के बीच जाकर पार्टी के सिद्धांत को समझाया। लोगों को मुलायम की बातें समझ में आने लगी थी। मुलायम के साथ-साथ शिवपाल और दूसरे सदस्य भी थे।

समाजवादी पार्टी का जनाधार धीरे-धीरे बढ़ रहा था। लेकिन वक्त की नजाकत कुछ और कह रही थी। मुलायम  की नज़र सत्ता के शीर्ष पर थी। गरीब, पीड़ित, पिछड़ों के हक़ की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने के लिए मुलायम ने एक बड़ा फैसला किया। 1993 में विधानसभा चुनाव से पहले मुलायम सिंह यादव ने बीएसपी के साथ गठबंधन कर लिया। दूरदर्शी मुलायम सिंह का ये प्रयोग सफल रहा। इसका नतीजा ये हुआ कि बीजेपी दोबारा सत्ता में नहीं लौट पाई। मुलायम सिंह के हाथ में फिर से यूपी की कमान आ गई। मुलायम को कांग्रेस और जनता दल का भी समर्थन मिला।

 सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। इसी बीच साल 1995 में गेस्ट हाउस कांड हुआ। मायावती के साथ अभ्रद्रता के बाद बीएसपी ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया। समाजवादी पार्टी की सरकार गिर गई। इस दौरान मुलायम सिंह यादव के साथ अमर सिंह और जया प्रदा जैसी हस्तियां जुड़ती गई।  फिर बच्चन फैमिली जुड़ी। 5 स्टार होटल में पार्टी के कार्यक्रम होने लगे। इसको लेकर कई सवाल भी उठे।

अब मुलायम की नज़र केंद्र पर थी। सूबे की सियासत से बढ़कर वो दिल्ली में राज करना चाहते थे। 1996 में लोकसभा का चुनाव हुआ। मुलायम सिंह मैनपुरी से सांसद बन गए। संयुक्त गठबंधन की सरकार में मुलायम सिंह प्रधानमंत्री बनने के प्रमुख दावेदार थे। लेकिन लालू यादव ने ऐसा अड़ंगा लगाया कि मुलायम का सपना अधूरा रह गया। लेकिन देवगौड़ा सरकार में रक्षा मंत्री बने। और गुजराल सरकार में भी इसी पद पर रहे। समाजवादी पार्टी के इतिहास में ये एक बड़ा मौका था।

1998 में केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटने के बाद मुलायम फिर से लखनऊ लौट आए। संगठन को फिर से मजबूत करने में जुट गए। साल 2002 में चुनाव हुआ। समाजवादी पार्टी सत्ता से दूर रह गई। लेकिन मुलायम ने बीएसपी को तोड़ दिया। अमर सिंह ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई। साल 2003 में साइकिल पर चढ़कर मुलायम सिंह यादव फिर से 5 कालिदास मार्ग पहुंच गए। यूपी में फिर से समाजवादी सरकार बनी। इस दौरान मुलायम के परिवार के सदस्य भी राजनीति में जुड़ते चले गए।मुलायम के छांव में समाजवादी पार्टी में उनका परिवार बढ़ता चला गया। साल 2004 में लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने यूपी में 35 सीटें हासिल की। लेकिन दिल्ली की सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिली।

इस बीच साल 2000 में मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव की सियासत में एंट्री हो चुकी थी। पहली बार कन्नौज से अखिलेश यादव पार्टी के सांसद चुने गए। अखिलेश यादव दिल्ली की सियासत करने लगे। लेकिन इस बीच साल 2007 में समाजवादी पार्टी बुरी तरह से हार गई। इसके बाद के पांच साल समाजवादी पार्टी के लिए बेहद उथल-पुथल भरे रहे।  एक ओर राष्ट्रीय राजनीति की ललक, दूसरी ओर क्षेत्रीय क्षत्रप बने रहने की लालसा। इस दुविधा में पार्टी का बंटाधार होने लगा। 2009 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को महज 22 सीटें मिलीं।  इसी दौर में पार्टी के बड़े मुसलमान चेहरा आजम खान ने पार्टी छोड़ दी। राजबब्बर और बेनी प्रसाद वर्मा जैसे नेताओं ने भी समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ दिया। बाबरी  कांड के आरोपियों में से एक कल्याण सिंह को समाजवादी पार्टी में शामिल किया गया तो मुलायम के उन  साथियों ने भी पार्टी छोड़ दी जिन्होंने नेताजी के सियासी सफर में कदम से कदम मिलाकर चले थे।

इस बीच घर में घमासान मचा तो साल 2010 में मुलायम के सबसे करीबी अमर सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

इस बीच 2011 का साल आया। विधानसभा चुनाव की तैयार होने लगी। मुलायम ने बड़ा फैसला करते हुए बेटे अखिलेश को पार्टी का चेहरा बना दिया। साइकिल की सवारी कर  लोहिया की विचारधारा को युवाओं तक पहुंचाने लगे। दागी नेताओं को पार्टी से बेदखल कर दिया गया। आजम खान फिर पार्टी में जुड़े। लोगों को अखिलेश की बात समझ में आने लगी। अखिलेश यादव को यूपी में ऐतिहासिक जीत मिली। सूबे के सबसे युवा मुख्यमंत्री की ताजपोशी हुई। लोहिया के समाजवाद को अखिलेश ने कंप्यूटर से जोड़ दिया।

अखिलेश मुख्यमंत्री बन चुके थे। लेकिन समाजवादी पार्टी में अंत:कलह की बातें भी धीरे-धीरे सामने आने लगी थी। चर्चा होने लगी कि पार्टी में कई गुट बन चुके हैं। कहा जाने लगा कि मुलामय, रामगोपाल, शिवपाल और आजम खान अपने-अपने हिसाब से अपना हित साध रहे हैं। वर्चस्व के लिए शीत युद्ध चल रहा था। इस बीच अमर सिंह की पार्टी में वापसी भी हो गई।

पार्टी में चार साल तक चली ये कसमसाहट 2016 के जून में उभकर सामने आई गई। शिवपाल यादव और अखिलेश यादव आमने-सामने आए गए। जिस पार्टी को मुलायम ने अपने खून-पसीने से सींचा था, जिस पार्टी ने मुलामय को नेताजी बनाया, जिस पार्टी को नेताजी ने अपने बूते खड़ा किया था, वो टूट के कगार पड़ खड़ी थी। एक तरफ मुलामय और शिवपाल थे तो दूसरी तरफ रामगोपाल और अखिलेश थे। रामगोपाल को पार्टी से निकाल भी दिया गया। लेकिन सियासत के सात घोड़ों का साथ-साथ साधने में माहिर मुलायम ने पार्टी के अंदर मचे तूफान को थाम लिया।

मुलायम की ये सियासी सूझबूझ ने भले ही बवंडर को थाम लिया था लेकिन पार्टी अंदर ही अंदर सुलगती जा रही थी। दिसंबर की हाड़ कंपाने वाली ठंड में फिर से पार्टी के अंदर  कसमसाहट शुरू हुई। विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की लिस्ट पर पार्टी में दरार पड़ गई। मुलायम और अखिलेश के बीच लकीर मोटी होती चली गई। डायलॉग के बाद एक्शन का दौर शुरू हुआ। अखिलेश यादव और रामोगपाल यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। लेकिन जल्द ही मुलामय पिघल गए। बेटे और भाई को पार्टी में वापस बुला लिया। लेकिन अखिलेश के मन में तो कुछ और ही चल रहा था।

पार्टी में चल रहे विवाद का क्लाइमेक्स होने बाकी था। महसचिव रामगोपाल यादव ने पार्टी का अधिवेशन बुलाया। अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कर पार्टी की कमान पूरी तरह से अखिलेश यादव को सौंप दी। समाजवादी पार्टी में मुलायम युग का अंत हो गया। इस तरह से समाजवादी पार्टी का नया मुखिया अखिलेश यादव बन गए। इस तरह से 24वां साल पार करने के 3 महीना बीतते-बीतते नए साल के पहले दिन से समाजवादी पार्टी में नए युग की शुरुआत हो गई।

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