शुक्रवार, 22 मई 2015

बीजेपी की ‘जात-पात’ की सियासत

दिक्कत इस बात को लेकर नहीं है कि बीजेपी जाति की सियासत कर रही है। दिक्कत इस बात को लेकर है कि उन महापुरुषों को जाति के घेरे में कैद कर रही है जिनकी पहचान उनके  उपनाम नहीं बल्कि काम से रही है। जो हमेशा जाति और क्षेत्र से ऊपर रहे हैं। दिक्कत इस बात से है कि जिस दौर में हम मेक इन इंडिया की बात कर रहे हैं उस दौर में ईसापूर्व 304 साल पहले पैदा हुए सम्राट अशोक की जाति का निर्धारण किया जा रहा है।

आखिर बीजेपी सियासत की वो कौन सी परिभाषा गढ़ना चाहती है जिसमें एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी विकास के आसरे राजनीति को आगे बढ़ाने की वकालत करते हैं। तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री उस कार्यक्रम में शामिल भी होते हैं जिसमें दिनकर के जरिए भूमिहारों को साधने की कोशिश होती है। प्रधानमंत्री मोदी लोगों को जात-पात की सियासत से ऊपर उठने की अपील करते हैं। तो बिहार में उन्हीं की पार्टी सम्राट अशोक को कुसवाहा जाति के खूंटे में बांध देती है।

हम जैसे करोड़ों लोगों को पहली बार पता चला कि सम्राट अशोक कुशवाहा जाति के थे। हम तो उन्हें महान शासक के तौर पर याद करते हैं। जिन्होंने क्रूर भाइयों की हत्या कर गद्दी संभाली। जिन्होंने अफगानिस्तान, ईरान तक मौर्य राज्यवंश का विस्तार किया। कलिंग की लड़ाई में लाखों लोगों का कत्ल करवाया। जिन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। राष्ट्रीय गणतंत्र के राज्यचिह्न अशोक स्तम्भ के लिए हम उन्हें जानते हैं। उनकी जाति के बारे में कभी चर्चा नहीं हुई। अगर बीजेपी के बद्धिजीवियों ने इसका खोज किया तो जाहिर है कि कहीं न कहीं इसमें एक जाति के वोटरों को साधने की सियासत छिपी है।

जिस बिहार के संदर्भ में जाति की बात हो रही है, वहीं पर लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी जी ने यादवों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नई कहानी सुनाई थी। भगवान कृष्ण के आसरे उन्होंने यदुवंशियों से अपना पुराना रिश्ता बताया था। राजनीति का रट्टा मारनेवाले जानते हैं कि भूपेंद्र यादव अगर बिहार में बीजेपी के प्रभारी बनाए गए हैं तो ये भी रणनीति का एक हिस्सा ही है।  

दरभंगा में भी मोदी ने बीजेपी को ब्राह्मण और बनिया से जोड़ा था। बनारस में जब चुनाव लड़ने गए थे मोदी जी तो उन्होंने बकायादा खुद की जाति का जिक्र भी किया था। उन्होंने कहा था कि मैं अतिपिछड़ा वर्ग से  ताल्लुक रखता हूं। यानी सियासी बिसात पर विकास की बात करनेवाले मोदी जी भी जातिवाद के बंधन से मुक्त नहीं हो पाते।

ये बात किसी से छुपी नहीं है कि गिरिराज सिंह को क्यों मोदी मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। ये अलग बात है कि वो मोदी भक्त रहे हैं लेकिन उससे भी बड़ी वजह उनका भूमिहार होना है। क्योंकि उससे पहले मोदी मंत्रिमंडल में सिर्फ एक भूमिहार थे मनोज सिन्हा। इस बात को लेकर भूमिहार जाति में आक्रोश था। लालू की पार्टी छोड़कर बीजेपी में चुनाव से चंद दिनों पहले शामिल होने वाले रामकृपाल यादव को मंत्री बना दिया जाता है तो उनकी जाति के अलावे दूसरी योग्यता के बारे में तो पूछे जाएंगे ही।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जयंती से ठीक पहले अगर पटना में सड़कों के किनारे बीजेपी नेताओं के नाम पर बैनर टांगे जाते हैं। पोस्टर चिपकाये जाते हैं। सीपी ठाकुर की अगुवाई में श्रीकृष्ण सिंह की जयंती मनाई जाती है तो इसका उद्देश्य साफ है। क्योंकि श्रीकृष्ण सिंह का भूमिहारों के बीच बड़ा सम्मान है। अगर बीजेपी के नेता परशुराम की जयंती मनाते हैं तो इसका मतलब क्या है।

जाहिर है दूसरी पार्टियों की तरह बीजेपी भी बढ़ चढ़कर जातिवाद कि सियासत कर रही है। मोदी भले ही जात-पात की सियासत से ऊपर उठने की अपील कर रहे हों लेकिन उनका भी इसमें भरोसा करते हैं। अगर ऐसा नहीं है तो जाति के नाम पर जयंती मनानेवाले नेता- कार्यकर्ताओं पर उन्होंने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की। इतिहास के पन्नों को खंगालकर सम्राट अशोक की जाति की खोज करनेवालों से मोदी जी ने सफाई क्यों नहीं मांगी।

बिहार में जीतनराम मांझी को लेकर अगर बीजेपी नेताओं का हृदयपरिवर्तन हुआ तो इसके पीछे भी जातिगत  समीकरण ही था। जो महादलित वोट नीतीश कुमार और रामविलास पासवान को मिलते थे, उसमें सेंघ लगाने की कोशिश थी। बीजेपी चाहे जो कहे लेकिन हकीकत यही है।

अगर प्रधानमंत्री मोदी वाकई जात-पात से ऊपर विकास की सियासत के पैरोकार हैं तो उन्हें बड़े फैसले लेने होंगे। सबसे पहले उन्हें अपनी पार्टी के उन नेताओं से हिसाब मांगना पड़ेगा जो जाति के नाम पर जयंती मनाते हैं। उन्हें उस लकीर को मिटानी होगी जिसके भीतर अब महापुरुषों को बीजेपी रख रही है। लेकिन वो ऐसा करेंगे ये लग नहीं रहा है। क्योंकि जिस रफ्तार से मोदी सरकार काम कर रही है। लोगों के बीच निराशा है। ऐसे में सियासत के किसी भी सूत्र में यह फिट नहीं बैठता है। 

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