रविवार, 26 अप्रैल 2015

डरना जरूरी है!

लगातार धरती हिल रही है। एक के बाद एक भूकंप के झटके आ रहे हैं। लोग डरे हुए हैं। मैं भी डरा हुआ हूं। डरना भी चाहिए। सबको। भूकंप प्राकृतिक आपदा है। भूकंप बाकी आपदाओं से ज्यादा खतरनाक है। और जानलेवा भी। ये ऐसी आपदा जो आपको बर्बाद करने के लिए कुछ सेकेंड लेती है। जिसका कोई मुकम्मल अनुमान नहीं होता है। कब आएगा। कहां आएगा। कोई नहीं जानता है। जब तक लोगों को समझ में आता है तब तक सबकुछ खत्म हो गया रहता है।

देश के अलग-अलग हिस्सों में अनेकों बार ये त्रासदी आ चुकी है। बहुत कुछ बर्बाद हो गया। नेपाल इसी त्रासदी को झेल रहा है। आंशिक रूप से हिंदुस्तान भी। सबकुछ सामान्य चल रहा था। अचानक भूकंप आया। सड़कों पर चीख पुकार मच गई।

पलभर में सबकुछ बर्बाद हो गया। बड़ी-बड़ी इमारतें जमींदोज हो गई। हजारों मकान कब्रिस्तान बन गए। सैकड़ों जान गई। हजारों जख्मी हुए। हादसे के बाद काठमांडू के अस्पतालों में  भीड़ लग गई। लोगों की जिंदगी दस्तावेज में सिमट गई। 

जानकार कहते हैं कि कई दशकों से उत्तर भारत में बड़ा भूकंप नहीं आया है। लिहाजा एक बड़ी तबाही कभी भी दस्तक दे सकती है। लेकिन कब ये तो कोई नहीं जानता।

डरना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम इससे निपटने के लिए तैयार नहीं। वैसे तो देशभर के हर जिले में आपदा प्रबंधन कमेटी है। लेकिन ये रस्म अदायगी भर है। मोतिहारी से नैनीताल तक और लातूर से गाजीपुर तक। आपातकालीन परिचालन केंद्र आजायब घर की तरह है। कहीं अधिकारी नहीं है। कहीं कर्मचारी नहीं है। कहीं टॉर्च नहीं है। कहीं रस्सी नहीं है। कहीं कुछ और नहीं। मतलब अगर आफत गई तो इसके कर्मचारी खुद मदद मांगते दिखेंगे।

जितना खर्च हम विपदा आने के बाद करते हैं। जितनी तत्पड़ता हम त्रासदी के बाद दिखाते हैं उसकी एक चौथाई भी अगर पहले दिखाएं तो जान-माल के बड़े नुकसान से बचेंगे। लेकिन हमारी तो आदत है बर्बाद हो जाने के बाद छाती पीटने की।

डरना जरूरी है। इसका मतलब ये नहीं कि हम घर में रहना छोड़ दें। खान-पीना छोड़ दें। लोगों से मिलना छोड़ दें। दफ्तर जाना छोड़ दें। सड़क पर रहें। या पार्कों में रात बिताएं। ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। हां, बस हमें सतर्क रहने की जरूरत है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें