गुरुवार, 7 मार्च 2013

आत्मविश्वास से ही जीत है!


गिरकर संभलना कोई उससे सीखे। अपने बिखरे हुए विश्वास को समेटना कोई उससे सीखे। हारकर जीतना कोई उससे सीखे। आलोचनाओं से सीखना कोई उससे सीखे। वक्त से लड़ना कोई उससे सीखे। वक्त बदला। हालात बदले। जो कल तक उसको पानी पी-पी कर कोस रहे थे। आज फिर वे उसकी तारीफों में कसीदे गढ़ रहे हैं।

महेन्द्र सिंह धोनी। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान। महेन्द्र सिंह धोनी के लिए पिछले डेढ़ बरस बेहद खराब रहा। जो शख्स आसमान में बुलंदियों की ऊंचाई से ऊपर उड़ रहा था, वो अचानक धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। देश को क्रिकेट में दो-दो विश्वकप दिलानेवाले कप्तान पर सवाल खड़े होने लगे। धोनी के फैसले पर। खेल पर। बॉडी लैंग्वेज पर। विश्वास पर। व्यवहार पर। हर स्तर पर धोनी की आलोचना होने लगी। मौका परस्त साथी भी साजिश रचने लगे। लेकिन धोनी ने हार नहीं मानी।  

विश्वकप जीतने के बाद जिस इंग्लैंड की टीम ने धोनी के आत्मविश्वास को तोड़ दिया था। उसी अंग्रेजों के खिलाफ धोनी ने नई शुरूआत की। वन डे में न सिर्फ खुद अच्छी पारियां खेली, बल्कि साथियों का भी आत्म विश्वास बढ़ाया।

फिर आई कंगारूओं की बारी। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ चेन्नई में। चेपॉक स्टेडियम में टीम इंडिया के 4 विकेट आउट हो चुके थे। सचिन,सहवाग, मुरली, पुजारा ड्रेसिंग रूम लौट चुके थे। तब धोनी ने न सिर्फ खुद धुआंधार पारी खेली, बल्कि साथी खिड़ालियों का भी हॉसला बढ़ाया। धोनी ने बिखरी हुई टीम को समेटा। उन्होंने खुद एक ही दिन में 203 रन ठोक दिए। धोनी को कोहली, अश्विन, भुवनेश्वर जैसे युवाओं का साथ मिला। और धोनी के दिन लौट आए। चेन्नई के बाद हैदराबाद में धोनी के धुरंधरों ने फिर ऑस्ट्रेलिया को पानी पिला दिया। पारी और 135 रनों से करारी हार। पुजारा का दोहरा शतक। मुरली विजय का शतक। जडेजा और अश्विन की शानदार गेंदाबाजी।

अब फिर मैदान में वही हो रहा है, जो डेढ़ बरस पहले होता था। धोनी का हर फैसला सही होने लगा। बॉडीलैंग्वेज पर अब सवाल नहीं होते। आलोचकों को धोनी का आत्मविश्वास और व्यवहार अच्छे लगने लगे हैं। कप्तानी छोड़ने की सलाह देनेवाले सुनील गावस्कर फिर उन्हें 2019 तक कप्तान बनाए रखने की वकालत कर रहे हैं। टीवी स्टूडियों में बैठकर धोनी को कोसनेवाले स्वयंभू महान क्रिकेटर को अब जवाब नहीं सूझ रहा।


  

सोमवार, 4 मार्च 2013

लाचारी को कौन सुधारेगा?


बेचारा डीएसपी। लाचार। बेबस। निसहाय। सरकारी भीड़ का शिकार हो गया। मंत्री के गुर्गों ने उसे मार डाला। खाकी और खादी की टक्कर में खादी फिर भाड़ी पड़ी। खादी में छुपे गुंडों ने खाकीवाले की हत्या कर दी। वो चीखता रहा। चिल्लाता रहा। सरेआम। कानून का कत्ल हुआ। लेकिन किसी ने नहीं देखा। गणतंत्र में गनतंत्र से लड़नेवालों को मरते हुए देखने की हिम्मत किसी में नहीं। मौका-ए-वारदात पर वो कोई नहीं था, जिन्हें हिंद पर नाज है।

एक हंसता-खेलता परिवार बिखर गया। एक लड़की महज कुछ महीनों में विधवा हो गई। बूढे मां-बाप का सहारा खत्म हो गया। डीएसपी के अपने अब इंसाफ मांग रहे हैं। लेकिन इंसाफ देगा कौन। सरकार। वही सरकार जिसके मंत्री पर हत्या करवाने का आरोप लगा है। उसी मंत्री पर जिसके सामने किसी की नहीं चलती। वो अपने आप में सरकार है। राजा है। लोग उसे राजा भैया कहते हैं। यूपी के समाजवादियों के भैयाजी यानी अखिलेश यादव के भी भैया।

इंसाफ मांग रही डीएसपी की पत्नी से मिलने के लिए मुख्यमंत्री पहुंचे। सबसे पहले डीसपी की कीमत लगा दी। 25 लाख रूपये। फिर पेंशन दोगुना करने का वादा। और फिर पूरी घटना की सीबीआई से जांच कराकर दोषियों को कड़ी सजा दिलाने का दावा। उसी सीबीआई से जो सांप-सीढी के खेल में उलझी रहती है।

और इस सब के बीच डीएसपी की मौत पर हो रहा है खेल। वही गंदा खेल। जिसे राजनीति कहते हैं। बीएसपी-एसपी-कांग्रेस-बीजेपी। संसद से सड़क तक हंगामा। मौका मिला है। सब के सब पत्ते खेल रहे हैं। कोई कानून व्यवस्था का पत्ता फेक रहा है। तो कोई अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का पत्ता। मायावती डीएसपी की मौत का हिसाब मांग रही हैं। तो मुलायम सिंह यादव उन्हें फ्लैश बैक में ले जाकर आइना दिखा रहे हैं।

वैसे तो देश और समाज की रक्षा करनेवालों की कोई जाति या धर्म नहीं होती। लेकिन राजनीति के बिनानी सिमेंट उन्हें भी इनके बीच में मजबूत दीवार खड़ी कर देता है। कुछ नेता कह रहे हैं कि वो अल्पसंख्यक था इसलिए मारा गया। कुछ कहते हैं कि गरीब था इसलिए मारा गया। कुछ कहते हैं कि मंत्रीजी की जातिगत अदावत थी, इसलिए मरवा दिया।  

खैर, ये राजनीति है। मौकापरस्त हर लाश की लौ पर रोटी सेकने के आदी हो चुके हैं। इसबार भी वही कर रहे हैं। लेकिन बड़ा सवाल है कि चालीस बरस का पढ़ा-लिखा नौजवान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा है। लेकिन लाचार है। बिगड़ी व्यवस्था को तो युवा सुधार सकता है, जो डीएसपी सुधार रहा था। लेकिन लाचारी को कौन सुधारेगा?